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Saturday, April 20, 2024

संवादहीनता के दौर में गौर और जेटली का जाना


सच बहुत ही अजीब लग रहा है कि ग्राउंड रिपोर्ट के लिये अपने प्रिय नेता बाबूलाल गौर पर लिखने बैठा हूं और टीवी स्क्रीन पर अरूण जेटली के निधन की दुखद खबर चल रही है। जेटली के कुछ दिन पहले सुषमा स्वराज जी का जाना हुआ। पिछले साल अगस्त में अटल बिहारी वाजपेयी जी के देवलोकगमन से शुरू हुआ ये सिलसिला जारी है। दुख इस बात से और बढ जाता है कि दक्षिणपंथी राजनीति करने वाली बीजेपी के सारे वो चेहरे गुम हो रहे हैं जिनकी छवि उदार रही है। इसी कडी में कर्नाटक के अनंत कुमार और गोवा के नेता मनोहर पार्रिकर को भी गिन सकते हैं।

ये सारे वो काबिल नेता रहे हैं जिनकी प्रतिभा बहुमुखी रही है और अपनी पार्टी के अलावा दूसरी पार्टी में भी सम्मान पाते थे। ये सारे नेता आलोचना को जगह देते आये हैं ओर यही वजह रही कि आलोचना करने वाले पत्रकारो से इनके मधुर संबंध रहे हैं। यही हाल हमारे बाबूलाल गौर का था।

पिछले कुछ महीनों की बात छोड दें तो एक दो रविवार के अंतर से दोपहर ग्यारह बजे ये फोन जरूर आता था हल्लो बाबूलाल गौर बोल रहा हूं। हां गौर साब बोलिये। अरे भाई आज तो गजब लिखा है तुमने। किसी को नहीं छोडा दूध का दूध पानी का पानी कर दिया। अरे आपने कब पढा। बस अभ्भी पढा और तुमको फोन लगा दिया। तो चलो आओ शाम को और बातें करेंगे। और हां सुनो थोडे ये त्योहार निकल जायें तो तुम्हारे लिये वैसी वाली पार्टी रखते हैं। हा हा हा। ये गौर साब का वो पेटेंट ठहाका था जो वो मुंह पर हाथ रखकर लगाते थे।

गौर साब भोपाल के उन कुछ बिरले नेताओं में से थे जो अखबारों में छपी खबरें और लेख पढते और उन पर लिखने वाले पत्रकार को पढकर फोन भी करते थे। आमतौर पर नेताओं में लिखने पढने ओर प्रतिक्रिया देने की इस परंपरा का लोप ही हो गया है। यही वजह है कि अब जब हम पत्रकार किसी नेता पर कुछ लिखते हैं तो वो उसे अपनी धुलाई मानता है और पत्रकार से बात करने की जगह उसे विरोधी पार्टी वाला पत्रकार कह खुन्नस पाल लेता है। किसी भी नेता के लिये ये स्थिति ठीक नहीं है।

जेटली पर कहने वाले बोल रहे हैं कि दिल्ली के तकरीबन चार पांच चैनल ओर इतने ही अखबार के जेटली अघोषित संपादक थे मतलब उनकी अखबार के मालिक संपादक से लेकर रिपोर्टर तक से गहरी छनती थी और वो जो छपवाना चाहें छपवा सकते थे। ये संवाद का गुर होता है जो हर किसी नेता में नहीं पाया जाता।

मगर हमारे गौर साब में ये बात थी कि उनके घर जब हम पत्रकारों की महफिल जमती थी तो उसमें मुझसे बडी वाली पीढी के भोपाल के दिग्गज पत्रकार तो होते ही थे मुझ जैसे मझोले पत्रकार और कुछ नयी उमर के पत्रकार भी बुलाये जाते थे जिनसे गौर साब खुलकर बोलते बतियाते थे। चाहे बात हाल के राजनीतिक हालात पर हो या फिर पुरानी राजनीति के किस्से गौर साब कुछ छिपाते नहीं थे। उनके सुनाये कई किस्से मुझे याद आ रहे हैं जिनसे मध्यप्रदेश की राजनीति प्रभावित हुयी।

मप्र सरकार मे जब गौर साब मंत्री थे तो ये तय होता था कि उनके दिल्ली दौरे से बाद पत्रकार वार्ता होती थी जिसमें वो केंद्रीय मंत्रियों से मिली मदद एक कागज पर पढते थे और जब हम पत्रकार कहते थे कि ये तो सब कल छप गया है तो हंसकर बोलते अरे आपको ये छपवाने के लिये थोडे बुलाया है अच्छा खाना खाने बुलाया है चलिये खाइये। फिर और साफ करते ये बताइये आप सब हमारे नाक कान हो कि नहीं सरकार के कामकाज की जमीनी हकीकत तो आप ही बताते हो ना। चलिये खाइये और फिर वो हम सब के साथ ही बीच में टेबल कुर्सी लगाकर हाथ से खाने बैठ जाते। बीच बीच में सबसे पूछते भी जाते वो खाया कि नहीं। होगा कोई नेता ऐसा जो पत्रकारों को घर बुलाये और खबर छापने के लिये जरा भी चिरौरी ना करे।

2004 में जब वो एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर बन गये तो हमारे कुछ मित्र अपने अखबार मालिक का काम लेकर पहुंचे तो गौर साब ने कागज एक तरफ रखकर कहा कि मालिक का काम छोडो अपना कोई व्यक्तिगत मदद का काम हो तो कहो मैं अब मुख्यमंत्री हूं। इतनी साफगोई और ईमानदारी आज के जमाने में किसी नेता से नहीं की जा सकती।

आमतौर पर नेता खासकर मंत्रियों के यहंा भीड भाड रहती है मगर गौर साब के घर पर वो भीड आधी ही रहती थी। वो सरकारी प्रक्रिया को तोड कर काम करवाने वालों को सबके सामने ही लौटा देते थे। नहीं भाई ये काम नहीं होगा। बंदूक का लाइसेंस बनवाना हो तो कलेक्टर एसपी से मिलो मैं गृहमंत्री क्या कर लूंगा।

भोपाल के लिये तो उनका दिल धडकता था। यही वजह रही कि गोविंदपुरा के लोगों ने लगातार दस बार जिताया। मैं उनसे हंसकर कहता था कि भोपाल के भारत रत्न तो आप ही हो, तब वो अपने माथे पर हाथ फेर कर मुस्कुराते हुये कहते जो मिल गया उसी को मुकददर समझ लिया। गौर साब मुकददर के सिकंदर तो थे ही कहां यूपी के प्रतापगढ से आकर एमपी के मुख्यमंत्री बनना सपनों सी कहानी है।

दिल्ली में जेटली और भोपाल में बाबूलाल गौर के जाने से नेताओं की वो पीढी खत्म हो गयी जो पत्रकारों से खुलकर संवाद करती थी। अपनी बात कहती थी उनकी बात सुनती थी। यही वजह है कि अब दिल्ली से लेकर भोपाल तक सरकारी फैसले बम के धमाकों या सरप्राइज की तरह आते है। सरकारों की संवादहीनता के इस दौर में गौर साब और जेटली जी बहुत याद आयेंगे। विनम्र याद
ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज, भोपाल

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