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Wednesday, April 24, 2024

स्वामी अग्रिवेश पर हुए जानलेवा हमले के निहितार्थ

भारतीय राजनीति के चेहरे पर पिछले दिनों उस समय फिर एक बदनुमा दाग लगा जबकि झारखंड में कुछ स्वयंभू हिंदुवादी राष्ट्रवादियों द्वारा भगवाधारी बुज़ुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता,अध्यात्मवादी व राजनीतिज्ञ 79 वर्षीय स्वामी अग्रिवेश पर जानलेवा हमला कर दिया गया। उन्हें डंडों,लाठियों,हाथों,लातों आदि का प्रयोग कर पीटा गया,उनके कपड़े फाड़े गए, उनके सिर पर रखी भगवा पगड़ी उछाल दी गई तथा गंदी गालियां दी गई। उन्हें मारते व गालियां देते यह स्वयंभू सांस्कृतिक राष्ट्रवादी हमले के साथ ‘जय श्री राम’ का उद्घोष भी कर रहे थे। बताया जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के विभिन्न संगठनों से जुड़े लेाग स्वामी अग्रिवेश के झारखंड के इस दौरे का विरोध कर रहे थे। वे उनके विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे थे। अग्रिवेश द्वारा इन प्रदर्शनकारियों को बातचीत करने हेतु न्यौता भी दिया गया। परंतु सत्ता के नशे में चूर तथा समय-समय पर अपने आकाओं से मिलने वाले अप्रत्यक्ष निर्देशों से प्रोत्साहित इन युवाओं ने बातचीत करने के बजाए हिंसा का सहारा लेना ज़्यादा मुनासिब समझा। अग्रिवेश का कुसूर क्या है? आखिर क्या वजह थी कि बातचीत के बजाए उनपर हमला करना ही उचित समझा गया? क्या भगवा रंग के हिमायती लोगों को अग्रिवेश का भगवा रंग नज़र नहीं आया? क्या भारतीय संस्कृति की रक्षा व धर्म जागरण की बात करने वालों को उनकी वृद्ध आयु का भी एहसास नहीं रहा और क्या बातचीत का जवाब बातचीत से न दे पाने की स्थिति में अब भविष्य में और अधिक ऐसे दृश्य दिखाई देने की संभावना नहीं है?
स्वामी अग्रिवेश दक्षिणभारत के ब्राह्मण परिवार में जन्मे तथा युवावस्था में आने के बाद वे स्वामी दयानंद तथा आर्यसमाज पंथ से प्रभावित हुए। भारतवर्ष में आर्यसमाजियों की काफी बड़ी संख्या है। वेदों के सिद्धांत को स्वीकार करने वाला आर्यसमाज पंथ अपने स्थापना के समय से ही मूर्ति पूजा,बलि प्रथा,श्राद्ध,जन्म के आधार पर जाति का निर्धारण, छुआछूत, बाल विवाह,मंदिर में पूजा-पाठ आदि का प्रबल विरोधी रहा है। आर्यसमाजी होने के नाते स्वामी अग्रिवेश भी निश्चित रूप से इसी विचारधारा को ही मानते हैं। अग्रिवेश ही नहीं दिल्ली की केंद्र सरकार से लेकर भाजपा शासित विभिन्न राज्य सरकारों में कई मंत्री व पार्टी के सांसद व विधायक भी ऐसे हैं जो आर्यसमाज पंथ का अनुसरण करते हैं। स्वामी अग्रिवेश की पहचान शुरु से ही एक जुझारू,क्रांतिकारी,संघर्षशील,ईमानदार तथा  साफ-सुथरी छवि वाले नेता की रही है। उन्होंने बाल मज़दूरी व बंधुआ मज़दूरी के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक कार्य किया है। इस नाते उद्योग जगत के लोगों व पूंजीपतियों का उनके विरुद्ध होना स्वाभाविक है। देश में तमाम ऐसे लोग जो अग्रिवेश के विरोधी हैं उनके श्रमिकों के पक्ष में खड़े होने के कारण ही उन्हें नक्सल या माओवादी समर्थक कहकर उनके चेहरे पर नक्सलवादी होने का लेबल चिपकाना चाहते हैं।
जिन शक्तियों तथा जिस विचारधारा के लोगों द्वारा वृद्ध स्वामी अग्रिवेश पर जानलेवा हमला किया गया यह वही ताकतें हैं जो 2011 में स्वामी अग्रिवेश के साथ ही उस समय खड़ी दिखाई पड़ रही थीं जब अग्रिवेश अन्ना हज़ारे को समर्थन देते हुए जनलोकपाल आंदोलन के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे थे। क्या उस समय अग्रिवेश पर आक्रमण करने वाली विचारधारा सिर्फ इसलिए उनके साथ थी क्योंकि वह आंदोलन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के विरुद्ध जनमत तैयार करने में अहम भूमिका निभा रहा था? और आज वही स्वामी अग्रिवेश उसी कट्टरपंथी विचारधारा वालों को इसलिए बुरे लगने लगे क्योंकि आज वे इनकी नीति व नीयत पर सवाल उठाते फिर रहे हैं? आज वे देश के लोगों को भाजपा के असली चेहरे से लोगों की पहचान कराते फिर रहे हैं? आज स्वामी अग्रिवेश की भगवा पोशाक ही इन भगवा समर्थकों को बुरी लग रही है? अग्रिेश के पहनावे को लेकर असली व नकली भगवा की भी बहस छिड़ी हुई है? क्या भारतीय लोकतंत्र में सहमति,बातचीत तथा वाद-विवाद के सभी रास्ते अब बंद हो चुके हैं? क्या लोगों की सहनशक्ति अब समाप्त हो चुकी है और ऐसे लोगों को हिंसा व ज़ोर-ज़बरदस्ती के साथ अपनी बात मनवाना ही एकमात्र रास्ता नज़र आ रहा है?
पिछले दिनों शशि थरूर ने अपने एक बयान में यह कहने की जुरअत कर दी थी कि 2019 में यदि भाजपा की वापसी होती है तो भारत ‘हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा। थरूर के इस बयान पर ऐसा हंगाम मचा कि प्रत्येक स्वयंभू तथाकथित राष्ट्रभक्त अपनी व शशि थरूर की शैक्षणिक योग्यता के अंतर को समझे-बूझे बिना इस बहस में कूद पड़ा तथा शशि थरूर को राष्ट्रविरोधी,देश विरोधी तथा हिंदू विरोधी न जाने क्या-क्या बताया जाने लगा। यदि हम हिंदू पाकिस्तान के शब्द को छोड़ दें और ‘मुस्लिम पाकिस्तान’ तथा वहां की स्थिति पर नज़र डालें तो हमें बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्षता के साथ यह सोचने में आसानी होगी कि आखिर  धर्म के नाम पर निर्मित किए गए किसी देश का हश्र क्या होता है? पाकिस्तान के निर्माण के समय यह नारा लगता था कि-‘पाकिस्तान का मतलब क्या, ला-इलाहा-इल्लल्लाह’। इस नारे का यही अर्थ है कि पाकिस्तान एक अल्लाह के मानने वालों का देश है यानी अल्लाह के एकात्मवाद पर विश्वास रखने वाले मुसलमानों का देश है। परंतु इस थोथी खोखली तथा अधार्मिक सोच ने पाकिस्तान को किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है यह बात भी किसी से छुपी नहीं है। पाकिस्तान में अपने पांव पसारती जा रही कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा अपने सिवा किसी दूसरे वर्ग के लोगों को मुसलमान स्वीकार करने पर ही तैयार नहीं है। आज इस तथाकथित इस्लामी देश में वहाबी विचारधारा के लोगों द्वारा बरेलवी,शिया,अहमदिया,सिख,हिंदू,ईसाई आदि सभी गैर वहाबी विश्वास के लोगों पर ज़ुल्म ढहाए जा रहे हैं और उनके धर्मस्थान नष्ट किए जा रहे हैं। और इन्हीं हालात ने पूरे पाकिस्तान को आतंकवाद का गढ़ बनाकर रख दिया है। यही तो है ‘मुस्लिम पाकिस्तान’ का असली चेहरा। अब यदि पड़ोसी देश की स्थिति से सबक लेते हुए अपने देश को उस रास्ते पर जाने से रोकने की बात की जाए या उससे बचने की चेतावनी दी जाए तो इसमें शशि थरूर क्यों और कैसे दोषी कहे जा सकते हैं?
हमारे देश में दिन-प्रतिदिन हिंसा व असहमति का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। नरेंद्र दाभोलकर,गोविंद पन्सारे,एमएम कलबुर्गी तथा गौरी लंकेश जैसे लेखकों व विचारकों की हत्याएं यह साबित कर चुकी हैं कि कट्टरपंथी विचारधारा बातचीत तथा संवाद पर नहीं बल्कि हिंसा पर तथा अपने विरुद्ध उठने वाली आवाज़ों व आलोचनाओं को हमेशा के लिए बंद कर देने पर अधिक विश्वास रखती है। हिंसा पर उतारू भीड़ अथवा कट्टरपंथी आक्रमणकारियों की समय-समय पर की जाने वाली हौसला अफज़ाई ऐसे हमलावरों को प्रोत्साहित करती है। स्वामी अग्रिवेश पर हुआ जानलेवा हमला भी इसी सिलसिले की एक प्रमुख कड़ी है। वैचारिक असहमति का एकतरफा हिंसा का रूप धारण कर लेना ही किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए सबसे अशुभ संकेत है? मानवता अथवा कोई भी धर्म इस बात की इजाज़त नहीं देते कि आप किसी 80 वर्षीय बुज़ुर्ग पर जानलेवा हमला कर अपने विचारों की विजय पताका लहराने को ही सबसे बड़ा राष्ट्रधर्म समझ बैठेंं। यह गलतफहमी तो हो सकती है सच्चाई हरगिज़ नहीं।
:- निर्मल रानी

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