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Thursday, March 28, 2024

आजादी के बाद भारत और इंडिया की तस्वीर ?

Government official plans for Indiaहम कैसी आजादी और किस आजादी की बात करते हैं। आम-आदमी को तो आजादी का मतलब भी नहीं पता। तथाकथित खास आदमी (रोटी के लिए मजबूर) को इसकी कीमत नहीं पता। एक तरफ विकास की चकाचैंध, इंडिया शाइनिंग, विकास के आंकड़े, विकास का दर आदि वातानुकूलित कमरे में नीति बनाते बिगाड़ते देश के कर्णधार, नीतिकार हैं, वहीं दूसरी ओर अपने पेट पालने के लिए और दाल-रोटी के जुगाड़ में सुबह होते ही मजदूर किसी भिखारी की तरह काम तलाश करते नजर आते हैं।

आज जहां हमारे देश में भुखमरी और गरीबी के कारण लोग अपने जिगड़ के टुकड़े बच्चे को बेच देते हैं, क्योंकि वह उस बच्चे की क्षुधा को शांत करने में सक्षम नहीं है।

एक तो सूखे के कारण किसान आत्महत्या करने को विवश हैं क्योंकि समय पर उन्हें सरकार से अनुदान या अपेक्षित मदद नहीं मिल पा रही है। जबकि केन्द्र और तमाम राज्य सरकारें दोनों कह रही हैं कि हम किसान के शुभचिंतक हैं। अगर केन्द्र और राज्य सरकारें दानों मिलकर किसानों की मदद कर रही हैं तो आखिर में किसान क्यों आत्महत्या को विवश हैं?

इसका जवाब न केन्द्र सरकार के पास है और न राज्य सरकार के पास। कहां गई हमारी मानवता, हृदय की व्यथा और राज्य सरकार/केन्द्र सरकार, गैर सरकारी संगठन, धन्ना सेठ, समाज के पुरोधा और सामाजिक उत्थान करने वाले, दम्भ भरने वाले शुभचिंतक? हमारी भारत की यह छवि उजली और धुंधली दोनों तस्वीर पेश कर रही हैं। एक तरफ उजाला ही उजाला और एक तरफ अंधेरा ही अंधेरा। हमारे भारत और इंडिया दोनों की तस्वीर? यह तस्वीर बहुत कुछ बोलती है।

अगर हम सरकारी आंकड़ों पर ही जाएं तो हम पाते हैं आजादी के 69 सालों के बाद भी, अभी तक गरीबों को कुछ खास नहीं मिला है। हमारे सामने अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि देश की आबादी का 74 फीसदी हिस्सा जनता 20 रुपये रोजाना आमदनी पर जी रही है।

हमारे यहां असंगठित क्षेत्रों में लगभग 80-85 प्रतिशत लोग जुड़े हुए हैं उन्हें अपेक्षित सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही है जबकि 10-15 संगठित क्षेत्र के लोगों के लिए सरकार और निजी कंपनियां भी अनदेखी करने का साहस नहीं जुटा पाती। क्योंकि वे संगठित क्षेत्र के हैं।

कभी वे हड़ताल करते हैं, तो कभी सड़क जाम करते हैं, कभी स्कूलों में हड़ताल चलता है, तो कभी विश्वविद्यालय में, कभी वकील हड़ताल करते हैं तो कभी अस्पताल में ही हड़ताल हो जाता है। कभी ट्रांसपोर्ट आॅपरेटरों की हड़ताल होती है तो कभी वायुयान के पायलट हड़ताल पर चले जाते हैं।

बैंक कर्मचारी और अधिकारी मोटी तनख्वाह को लेकर एकजुट होकर हड़ताल करते हैं और ये वित्तीय व्यवस्था का भट्ठा बैठा देते हैं। सरकार भी देर-सबेर इन सबकी बात मान ही लेती है, समझौते देर-सबेर हो ही जाते हैं, इनकी पगार भी बढ़ जाती है, पेंशन भी बढ़ जाती है, नया वेतन स्केल भी मिल जाता है क्योंकि ये संगठित क्षेत्र के हैं जबकि असंगठित क्षेत्र के साथ हर बार अन्याय होता है और वे छले जाते हैं। अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की भी वे पूर्ति नहीं कर पाते हैं।

जो देश के लिए कुछ करने योग्य हैं, वे सिर्फ अपने लिए करने में लगे हैं। आज जहां सरकारी बाबू करोड़पति हो गये है, वहीं आईएएस आॅफिसर अरबपति हो गये हैं ये आंकड़े सरकार द्वारा ही अभी बिहार और उत्तरप्रदेश के राज्य के बारे में जारी की गई है। ताजा उदाहरण ए. मोहन जिन्होंने 800 करोड़ रुपये के घोटाले में पकड़े गये हैं।

गाजियाबाद के तीनों प्राधिकरण के मुखिया यादव सिंह को भी सीबीआई ने घोटाले में पकड़ा है और फिलहाल वे जेल में हैं। आजादी के बाद भारत और इंडिया की तस्वीर ?

Read more: राष्ट्रवाद : विविधता ही भारत की मूल पहचान

हाल ही में केंद्रीय जांच एजंसी (सीबीआई) द्वारा कथित रिश्वत के लिए गिरफ्तार किए गए कारपोरेट मामलों के महानिदेशक बीके बंसल की पत्नी और बेटी ने आत्महत्या कर ली। दोनों ने अलग-अलग सुसाइड नोट छोड़े हैं जिनमें कहा गया है कि सीबीआइ के छापे से बहुत बदनामी हुई और वे उसके बाद जिंदा नहीं रहना चाहतीं।

उन्होंने अपनी मौत के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया। आखिर रुपये-पैसा किस काम का जो अपने ही परिवार की सुख-चैन छीन ले और अंततोगत्वा अपने परिवार के सदस्य एवं जिगर के टुकड़े को अपनी जीवन लीला समाप्त करनी पड़े।
वोट बैंक के चक्कर में राजनीतिक दल, धर्म और जाति की शतरंजी बाजियां खेलते हैं। अयोध्या में राम मंदिर से लेकर बाबरी मस्जिद तक साम्प्रदायिकता, जातिवाद का खामियाजा आम आदमी को ही उठाना पड़ा है।

पहले एक ओर जहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के नाम भेदभाव होता था वहीं आज जातिगत आरक्षण के नाम पर समाज में भेदभाव उत्पन्न कर उसे साम्प्रदायिक रंग दिया जाता है। सामान्य जाति, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अत्यंत पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक वर्ग आदि इसमें भी आरक्षण में आरक्षण क्रीमीलेयर आदि बनाकर भेदभाव उत्पन्न किया जाता है।

जातिगत आरक्षण का लाभ जिस जाति को दिया जा रहा है उसमें एक प्रतिशत लोग भी उस जाति का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं और सिर्फ आरक्षण के नाम उस जाति के निन्यानबे प्रतिशत लोग बेवकूफ बन रहे हैं कि हमारा तो कोटा है।

एक प्रतिशत लोगों के लिए निन्यानबे प्रतिशत लोग को बरगलाया जा रहा है और इसमें खाद्य-पानी देकर राजनीतिक दल इसमें अपनी फसल तैयार करते हैं। वे अपना वोट बैंक का हित साधते हैं।

अतः देश के सभी राष्ट्रीय पार्टियों को ऐसे मुद्दे पर एक समान नीति से कोई निर्णय लेना चाहिए एवं इस आरक्षण की नीति को बंद करना चाहिए नहीं तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसे बड़ी सर्जरी की जरूरत है क्योंकि जिन बातों को सोचकर इन्हें आरक्षण दिया गया था वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वह दिशाहीन हो गया है। कहीं ऐसा न हो कि आरक्षण के नाम पर हमारा प्रतिभाशाली युवा पीढ़ी का गला घोंट दिया जाए।

दलित, आदिवासी और पिछड़ों को बराबरी का अधिकार देने के लिए सरकार ने आरक्षण लागू करने की बात की, लेकिन इससे निजी क्षेत्रों का पूरी तरह बाहर कर दिया गया है, जबकि रोजगार निजी क्षेत्र में ही बचा है।

पिछले बीस वर्षों में सरकार की निजी वजह से देश में एक ऐसे मध्यम वर्ग का उदय हुआ है जिसके मन में गरीबों और वंचितों के लिए किसी प्रकार की सहिष्णुता और सहानुभूति नहीं रह गई है और सरकार के आरक्षण नीति के चलते देश का पूरा मध्यम वर्ग इन तबकों को अपना जानी-दुश्मन समझ रहा है।

एक समय था जब हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया कहा जाता था। दुनिया को विज्ञान से लेकर चिकित्सा तक का ज्ञान हमने कराया, लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू की कई बातें ऐसी हैं, जो भारत की सुनहरी तस्वीर को बदरंग करती है। आज भी हम एक तरह से निरक्षरता, साम्प्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, अंधविश्वास और टालू रवैया के गुलाम है।

विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार भारत जैसे अल्पविकसित देशों में निर्धनता रेखा एक अमरीकी डाॅलर प्रतिदिन या 365 अमरीकी डाॅलर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति है। इस परिभाषा से संभवतः 75 प्रतिशत से भी अधिक भारतीय निर्धनता रेखा के नीचे हैं।

देश में उच्च शिक्षा की तस्वीर सुखद नहीं है। इस क्षेत्र में मूलभूत संरचना की काफी कमी है। एक आध विश्वविद्यालय को छोड़ दिया जाय तो कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है जहां शोध के नाम पर कुछ सार्थक हो पा रहा है। बेहतर शिक्षक की लगातार कमी हर जगह दिखाई पड़ रही है।

पूरी दुनिया में भारत की शिक्षा के क्षेत्र में अगर कोई पहचान है तो यह मात्र आईआईटी है लेकिन यह जानकर किसी को आश्चर्य हो सकता है कि देश आईआईटी में 50 फीसदी से ज्यादा शिक्षकों की कमी है।

टाइम्स हायर एजुकेशन द्वारा तैयार विश्वविद्यालयों की साल 2015-16 की वैश्विक सूची में शीर्ष के 200 में हमारे यहां का कोई संस्थान नहीं है। शीर्ष 400 में भी हमारे सिर्फ दो इंस्टीट्यूट हैं- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (बेंगलुरु) और आईआईटी, बॉम्बे।

401 से 600 तक की रैंकिंग में हमारे पांच अन्य आईआईटी हैं, जबकि 601 से 800 की रैंकिंग में सिर्फ छह विश्वविद्यालय हैं। जाहिर है, हमारे विश्वविद्यालयों को वैश्विक मानकों पर खरा उतरने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है। फिर दूसरी संस्थाओं के बारे में बात करने की जरूरत कहां रह जाती है?
आजादी के पहले आम लोगों को लगता था कि जब आजादी मिलेगी तो वे देश के बराबर के नागरिक होंगे और उनके पास वे सारे अधिकार होंगे जो अमीरों के पास है।

लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। आम लोगों को वोट डालने का अधिकार तो मिल गया लेकिन आर्थिक लाभ बिल्कुल नहीं मिला। जबकि वोट डालने में यही गरीब वर्ग पीछे नहीं रहता है।

हमारे लोकतंत्र की परेशानी यह रही कि शासक वर्गों ने समाज के बढ़ी हुई खाई को पाटने के लिए बहुत कुछ नहीं किया हैं परिणामस्वरूप शहर और गांव की खाई बढ़ती ही गई है। देश में सुविधा के नाम पर जो कुछ भी किया गया है, उसका सबसे बड़ा हिस्सा शहरों में चला गया है। गांव के लोग अभी भी वंचित और पीड़ित हैं।
आज देश के निर्वाचित सांसद/विधायक में 40-45 प्रतिशत करोड़पति हैं जो कि उनके द्वारा घोषणा पत्र से मालूम होता है जबकि अघोषित संपत्ति कहीं इससे अधिक है। हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ॰ राजेन्द्र प्रसाद जब राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत हुए तो न तो उन्हें अपना मकान दिल्ली में था और न ही पटना में।

इसी कारण वे पटना में सदाकत आश्रम में रहे। आज महापुरुषों के आदर्श की बात सिर्फ बोलने के काम ही आ रही है उसे अपने जीवन में कोई अपना नहीं रहा है। गांधीजी, लालबहादुर शास्त्री, डा. अम्बेदकर जैसे महापुरुषों के बारे में शब्द बाण बोले जा रहे हैं। न तो कोई आज गांधी तरह लंगोटी बांधने को तैयार है, न ही कोई शास्त्रीजी जैसे सादगी अपनाने को तैयार है एवं न ही अम्बेदकर की तरह कोई हरिजन एवं दलितों के लिए सच्चे अर्थों में कार्य करने को तैयार है।

सभी अपने को वोट बैंक की फसल तैयार करने में लगे हैं कि कौन सा फर्टिलाइजर एवं कैमिकल्स का प्रयोग किया जाए जिससे ज्यादा से ज्यादा मत का धु्रवीकरण उनके एवं उनके पार्टियों के पक्ष में हो, सच्चे अर्थों में हकीकत में इससे किसी को भी कुछ लेना देना नहीं है।

बेशक देश में लोकतंत्र है और लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत भी हुई है, लेकिन सत्ता वर्ग ने बड़ी चतुराई से लोकतंत्र का अपहरण कर लिया है। लोकतंत्र की प्रहरी संस्थाएं न्यायपालिका और मीडिया भी उन लोगों के साथ खड़ी दिखाई देती है जो सत्ता वर्ग के हैं या रसूखवाले हैं। गरीबी, विषमता, विस्थापन, बीमारी, बेरोजगारी आदि के प्रश्नों को राष्ट्रीय संवाद में जगह नहीं मिलती। इन समस्याओं की कहीं सुनवाई नहीं होती। इससे हो यह रहा है कि बाहर से मजबूत देश अंदर से कमजोर हो रहा है।

आज भी देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं के लिए लोग परेशन हैं। हर काम को करने के लिए आंदोलन करने पर रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। लोगों के कल्याण के लिए बनी योजनाएं समय से पूरी नहीं हो पा रही है। उनको सही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में लोगों में कुंठा की भावना उत्पन्न होती है। सही मायनों में देश में व्यापत नक्सलवाद और आंतकवाद को भी इन्हीं समस्याओं के कारण बढ़ावा मिला है। वर्तमान परिस्थितियों को देखकर हर वर्ग की जरूरत को ध्यान में रखकर उनके कल्याण के लिए नीति बनाने की जरूरत है।
(बरुण कुमार सिंह)
ए-56/ए, प्रथम तल, लाजपत नगर-2
नई दिल्ली-110024
मो. 9968126797
ई-मेल: barun@live.in




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