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Saturday, April 20, 2024

सच्चे महात्मा थे अब्दुल सत्तार ईधी

Abdul Sattar Edhi Pakistan Edhi Foundationभारत में जन्में और पाकिस्तान में स्वर्गवासी हुए इस महात्मा का नाम अब्दुल सत्तार ईधी था। वे 92 साल के थे। ईधी पर भारत और पाकिस्तान, दोनों को गर्व होना चाहिए। 1947 में ईधी अपनी मां के साथ गुजरात से कराची गए तो उनके पास कुछ नहीं था। अन्य लाखों शरणार्थियों की तरह वे भी किसी तरह अपना गुजारा करते थे। वे पढ़े-लिखे भी नहीं थे। लेकिन उनकी मां बड़ी दयालु थी। जो भी पैसे उनके पास बचते थे, वे उन्हें ईधी को दे देती थीं और कहती थीं, इन्हें गरीबों में बांट दो। तभी से ईधी समाज-सेवा में जुट गए।


आज अपने पीछे वे लगभग 100 करोड़ रु. का ऐसा संगठन छोड़ गए हैं, जो गरीबों, मरीजों और जरुरतमंदों की सेवा की दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी संस्था है। ईधी की प्रेरणा से सैकड़ों अनाथालय, अस्पताल, मानसिक चिकित्सालय, सुधार गृह आदि चल रहे हैं। 1500 एंबुलेंस कारें निःशुल्क सेवा करती है। इस मानव-सेवा में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। न मजहब का, न जात का। गीता नामक एक भारतीय बच्ची का लालन-पालन जिस उदारता के साथ ईधी ने किया है, वह उच्च कोटि की मनुष्यता है। वह कार्य उन्हें देवत्व की श्रेणी में बिठा देता है।


उन्होंने गीता का लालन-पालन करते हुए किस बात का ध्यान नहीं रखा? उसके भोजन, उसके भजन, उसके रहन-सहन का सारा इंतजाम ऐसा किया, जैसा कि किसी हिंदू आश्रम में हो सकता था। वह बच्ची आजकल इंदौर में है। ईधी साहब ने सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बांग्लादेश, सीरिया, लेबनान और मिश्र जैसे देशों में जब भी कोई प्राकृतिक संकट आया, दौड़कर उनकी मदद की। गुजरात में भूकंप हुआ तो भी वे पीछे नहीं रहे।

ईधी यों तो गुजराती बनिया थे। ठाठ-बाट से रह सकते थे लेकिन उनकी सादगी महात्मा गांधी जैसी थी। फकीर से भी बढ़कर! उनका अपना कोई घर नहीं था। सिर्फ दो जोड़ कपड़े रखते थे। 20 साल से एक ही जूते के जोड़ों से काम चलाते थे। सारे पाकिस्तान में वे अत्यंत लोकप्रिय हो गए थे। उन्हें घमंड छू तक नहीं गया था। वे सड़कों पर बैठकर दान इकट्ठा कर लेते थे। उन्हें राजनीति में आने के लिए कई नेताओं ने मजबूर किया लेकिन उन्होंने अपना सेवा-धर्म नहीं छोड़ा।

1994 में उन्हें कराची छोड़कर लंदन में रहना पड़ा, क्योंकि उन्होंने नेताओं के आगे सिर नहीं झुकाया। वे प्रचार के भी मोहताज नहीं थे। नोबेल प्राइज कई बार उन्हें मिलते-मिलते रह गया। वे दर्जनों नोबेल प्राइजों से भी बड़े थे। उनके निधन पर पाकिस्तान मं राष्ट्रीय शोक मनाया गया। बिल्कुल ठीक किया गया। वे कई राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से अधिक सम्मान के योग्य थे। मियां नवाज लंदन में हैं लेकिन पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सेनापति तथा कई मुख्यमंत्री उन हजारों लोगों में शामिल थे, जो उनके अंतिम संस्कार के लिए आए थे। वे सच्चे महात्मा, जो थे। @डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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