पवार का खुला समर्थन बीजेपी को सरकार बनाने के लिये गया क्यों। क्या बीजेपी भी शिवसेना से पल्ला झाड कर हिन्दुत्व टैग से बाहर निकलना चाहती है। या फिर महाराष्ट्र की सियासत में बालासाहेब ठाकरे के वोट बैंक को अब बीजेपी हड़पना चाहती है, जिससे उसे भविष्य में गठबंधन की जरुरत ना पड़े। या फिर एनडीए के दायरे में पवार को लाने से नरेन्द्र मोदी अजेय हो सकते है। और महाराष्ट्र जनादेश के बाद के समीकरण ने जतला दिया है कि भविष्य में पवार और मोदी निकट आयेंगे। यह सारे सवाल मुंब्ई से लेकर दिल्ली तक के राजनीतिक गलियारे को बेचैन किये हुये हैं। क्योंकि कांग्रेस से पल्ला झाड़ कर शरद पवार अब जिस राजनीति को साधने निकले है उसमें शिवसेना तो उलझ सकती है लेकिन क्या बीजेपी भी फंसेगी यह सबसे बड़ा सवाल बनता जा रहा है।
हालांकि आरएसएस कोई सलाह तो नहीं दे रही है लेकिन उसके संकेत गठबंधन तोड़ने के खिलाफ है। यानी शिवसेना से दूरी रखी जा सकती है लेकिन शिवसेना को खारिज नहीं किया जा सकता। संयोग से इन्ही सवालो ने बीजेपी के भीतर मुख्यमंत्री को लेकर उलझन बढ़ा दी है। पंकजा मुंडे शिवसेना की चहेती है। देवेन्द्र फडनवीस एनसीपी की सियासत के खिलाफ भी है और एनसीपी के भ्रष्टाचार की हर अनकही कहानी को विधानसभा से लेकर चुनाव प्रचार में उठाकर नायक भी बने रहे है। इस कतार में विनोड तावडे हो या मुगंटीवार या खडसे कोई भी महाराष्ट्र की कारपोरेट सियासत को साध पाने में सक्षम नहीं है। ऐसे में एक नाम नितिन गडकरी का निकलता है जिनके रिश्ते शरद पवार से खासे करीबी है। लेकिन महाराष्ट्र के सीएम की कुर्सी पर नरेन्द्र मोदी बैठे यह मोदी और अमितशाह क्यो चाहेंगे यह अपने आप में सवाल है।
क्योंकि गडकरी सीएम बनते है तो उनकी राजनीति का विस्तार होगा और दिल्ली की सियासत ऐसा चाहेगी नहीं। लेकिन दिलचस्प यह है कि शरद पवार ने बीजेपी को खुला ऑफर देकर तीन सवाल खड़े कर दिये हैं। पहला शिवसेना नरम हो जाये। दूसरा सत्ता में आने के बाद बीजेपी बदला लेने के हालात पैदा ना करे। यानी एनसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपो को बीजेपी रेड कारपेट तले दबा दे। और तीसरा भविष्य में बीजेपी के खिलाफ तमाम मोदी विरोधी नेता एकजुट ना हो । यानी पवार के गठबंधन को बांधने की ताकत को नरेन्द्र मोदी बीजेपी के भविष्य के लिये भी मान्यता दे दे।
जाहिर है पवार के कदम का पहला असर शिवसेना पर पड़ने भी लगा है। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय बोर्ड में बदलाव के संकेत भी आने लगे। सामना की भाषा ने प्रधानमंत्री को सीधे निशाने पहले सामना पर लिखे हर शब्द से पल्ला झाड़ा अब संजय राउत की जगह सुभाष देसाई और लीलाधर ढोके को संपादकीय की अगुवाई करने के संकेत भी दे दिये। पवार के कदम का दूसरा असर देवेन्द्र फडनवीस पर भी मुंबई पहुंचते ही पड़ा। शाम होते होते देवेन्द्र जिस तेवर से एनसीपी का विरोध करते रहे उसमें नरमी आ गयी। और पवार के कदम का तीसरा असर बीजेपी के विस्तार के लिये एकला चलो के नारे को पीछे कर गठबंधन को विस्तार का आधार बनाने पर संसदीय बोर्ड में भी चर्चा होने लगी । यानी बीजेपी के नफे के लिये तमाम विपक्षी राजनीति को भी अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है यह नयी समझ भी विकसित हुई।
यानी गठबंधन की जरुरत कैसे सत्ता के लिये विरोधी दलो की है यह मैसेज जाना चाहिये। यानी जो स्थिति कभी काग्रेस की थी उस जगह पर बीजेपी आ चुकी है। और क्षत्रपों की राजनीति मुद्दों के आधार पर नहीं बल्कि बीजेपी विरोध पर टिक गयी है। यानी “सबका साथ सबका विकास ” का नारा राजनीतिक तौर पर कैसे बीजेपी को पूरे देश में विस्तार दे सकता है, इसके लिये महाराष्ट्र के समीकरण को ही साधकर सफलता भी पायी जा सकती है। यानी बिहार में तमाम राजनीति दलो की एकजुटता या फिर यूपी में मायावती के चुनाव ना लड़ने से मुलायम को उपचुनाव में होने वाले लाभ की राजनीति की हवा निकालने के लिये बीजेपी पहली बार महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिये होने वाले गठबंधन को महाप्रयोग के तौर पर आजमा चाह रही है। जिससे अगली खेप में झरखंड को भी पहले से ही साधा जा सके। और भविष्य में बिहार यूपी में विपक्ष की गठबंधन राजनीति को साधने में शरद पवार ही ढाल भी बने और हथियार भी। यानी जो पवार कभी हथेली और आस्तीन के दांव में हर किसी को फांसते रहे वही हथेली और आस्तीन को इस बार बीजेपी आजमा सकती है।
:-पुण्य प्रसून बाजपेयी
लेखक परिचय :- पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।