16 दिसंबर को पेशावर के एक सैनिक स्कूल पर हुए आतंकी हमले में मारे गए लगभग 150 बच्चों व अध्यापकों जैसे दिल दहला देने वाले हादसे के बाद पाकिस्तान में आतंकवाद के विरुद्ध पहली बार कुछ रचनात्मक किए जाने की ललक दिखाई दे रही है। इस हादसे के बाद से लेकर अब तक जेल में मौत की सज़ा पाए कई आतंकियों को फांसी पर भी लटकाया जा चुका है। यहां तक कि सरकार ने आतंकवाद से संबंधित प्रमुख मामलों को निपटाने के लिए सैन्य अदालतों का सहारा लिए जाने की बात भी कही है। पाकिस्तान के राजनैतिक दलों में भी पेशावर की घटना के बाद आम लोगों के गम और गुस्से को भांपते हुए आतंकवाद के विरुद्ध सख्त कार्रवाई किए जाने को लेकर एकजुटता दिखाई दे रही है।
परंतु आतंकवाद के विरुद्ध सरकार,सेना व आम जनता के मध्य पाकिस्तान में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर एक राय बनने के बावजूद क्या पाकिस्तान आतंकवाद,आतंकवादी शक्तियों,इनके स्त्रोतों तथा खासतौर पर आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली विचाराधारा व इससे जुड़े संस्थानों व संस्थाओं पर भी नियंत्रण कर सकेगा? और इससे भी ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह है कि पाकिस्तान की सेना जोकि पेशावर हादसे के बाद सबसे अधिक गुस्से में तथा गंभीर दिखाई दी थी वह सेना पाकिस्तान में अपनी जड़ें गहरी कर चुके आतंकवाद से निपटने के साथ-साथ भारतीय मोर्चों पर भी टकराव की स्थिति पैदा करने के परिणामस्वरूप क्या अपने देश के आतंकवाद विरोधी मोर्चों पर फतेह पा सकेगी?
यह ठीक है कि पेशावर घटना के बाद से लेकर अब तक पाक सेना ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए तहरीक-ए-तालिबान के विरुद्ध कई बड़ी कार्रवाईयां कर डाली हैं। इनमें सैकड़ों आतंकियों को मार गिराए जाने के भी समाचार हैं। फांसी की सज़ा भी बहाल कर दी गई है और लगभग एक दर्जन आतंकियों को फांसी पर भी लटकाया जा चुका है। परंतु इस पूरे घटनाक्रम अर्थात् पेशावर हादसा तथा तहरीक-ए-तालिबान के विरुद्ध हो रही कार्रवाई के मध्य क्या हम इस्लामाबाद की लाल मस्जिद की तरफ से उठाए गए कदम को इतनी आसानी से नज़र अंदाज़ कर सकते हैं? पाकिस्तान में हालांकि पहले भी बहुत बड़े-बड़े दिल दहला देने वाले हादसे हो चुके हैं। क्वेटा में शिया समुदाय के लोगों का सामूहिक नरसंहार किया गया। देश के कई सैन्य ठिकानों यहां तक कि वायुसेना ठिकाने पर भी हमला किया गया। पाक सेना के जवानों का अपहरण किए जाने जैसा समाचार प्राप्त हुआ। तहरीक-ए-तालिबान द्वारा पाक सैनिकों का सर कलम किए जाने की घटना का वीडियो तक इन मानवता के दुश्मनों द्वारा जारी किया गया।
परंतु पाक अवाम में इस प्रकार के गम और गुस्से की लहर पहले कभी नहीं देखी गई। क्योंकि पाकिस्तान की जनता ने कभी क्वेटा हादसे को यह सोचकर नज़र अंदाज़ कर दिया कि यह जाति आधारित लक्षित हिंसा की घटना है तो कभी सैन्य ठिकानों पर हुए आतंकी हमलों या सैनिकों के विरुद्ध की गई हिंसा को पाक अवाम ने एक-दूसरे के विरुद्ध की जा रही बदले की कार्रवाई का हिस्सा कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया। परंतु पेशावर हादसे ने तो पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर सिर्फ इसीलिए खींचा कि इसमें मासूम बच्चों को बड़े पैमाने पर निशाना बनाने जैसा घृणित,अमानवीय अपराध किया गया था। दुनिया का कोई भी धर्म व कोई भी शिक्षा ऐसी घटना को कभी भी न्यायसंगत नहीं ठहरा सकती।
परंतु पाकिस्तान में दो ही स्वर ऐसे उठते दिखाई दिए जो साफतौर पर पेशावर हमले को जायज़ ठहराने वाले तथा इसके समर्थन में उठते स्वर नज़र आए। एक तो स्वयं तहरीक-ए-तालिबान द्वारा इन हमलों की जि़म्मेदारी लेते हुए ऐसे हमले भविष्य में भी करने की धमकी दी गई और दूसरे इस्लामाबाद की विवादित लाल मस्जिद के इमाम मौलवी अब्दुल अज़ीज़ द्वारा पेशावर की घटना की निंदा करने से इंकार तो किया ही गया साथ-साथ तहरीक-ए-तालिबान की गतिविधियों को जायज़ ठहराने की कोशिश भी की गई। परिणामस्वरूप हज़ारों लोग पेशावर घटना के अगले ही दिन लाल मस्जिद के बाहर धरने पर बैठ गए।
क्या यह सवाल उचित नहीं कि जब तक पाकिस्तान में लाल मस्जिद जैसे शिक्षण संस्थान मौलवी अब्दुल अज़ीज़ जैसे दुष्ट एवं राक्षसी सोच रखने वाले कथित इमाम जि़ंदा व सलामत हैं तब तक पाकिस्तान से आतंकवाद का जड़ से सफाया करना एक टेढ़ी खीर के समान है? क्या पाकिस्तान का इतिहास इस बात को झुठला सकता है कि 2007 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने जिस लाल मस्जिद की आतंकवादी गतिविधियों से दु:खी होकर वहां एक बड़ा सैन्य आप्रेशन किया था उसी लाल मस्जिद को पूरी सरपरसती देने तथा उसकी शक्ति के विस्तार में भी पाकिस्तान के पूर्व जनरल जि़या-उल-हक का पूरा योगदान रहा है। जिस लाल मस्जिद में मुजाहिदीन की भर्ती करने जैसा काम सरेआम अंजाम दिया जा चुका हो तथा अफगानिस्तान में अफगान मुजाहिदीनों को भरपूर मदद देने जैसा बड़ा काम अंजाम दिया गया हो उस कथित धार्मिक संस्थान पर काबू पाना क्या आसान काम है?
यह वही लाल मस्जिद है जो 2008 में जब जनरल मुशर्रफ द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई की पहली बरसी मना रही थी उस समय एक आत्मघाती हमलावर ने मस्जिद के बाहर स्वयं को धमाके से उड़ाते हुए 12 पुलिसकर्मियों की भी जान ले ली थी। गोया यह कहना गलत नहीं होगा कि लाल मस्जिद भले ही सुनने में मस्जिद प्रतीत होती हो तथा मुशर्रफ द्वारा कार्रवाई के समय औरतों का नकाब ओढक़र अपनी जान बचाकर मस्जिद से भागने वाला अब्दुल अज़ीज़ भी शक्ल-सूरत से मुसलमान अथवा मौलवी क्यों न नज़र आता हो। परंतु हकीकत में लाल मस्जिद की आड़ में यहां केवल आतंकवादियों की भर्ती की जाती है तथा आत्मघाती हमलावर बनने के बदले में जन्नत हासिल करने जैसी शिक्षा भी यहीं दी जाती है।
इसी प्रकार पाकिस्तान आर्मी के समक्ष पाकिस्तान में फैले आतंकवाद से निपटने को लेकर दूसरी बड़ी समस्या पाक सेना द्वारा भारतीय मोर्चों पर गड़बड़ी फैलाने की कोशिश करना भी है। पाकिस्तान में आतंकवाद की जड़ें इतनी गहरी व मज़बूत हो चुकी हैं कि यह आतंकी अब पाकिस्तानी सेना के किसी भी अति सुरक्षित समझे जाने वाले संस्थान को भी निशाना बनाने से नहीं हिचकिचाते। इनकी संख्या भी अब लाखों में पहुंच चुकी है। ऐसे में यह नहीं लगता कि पाकिस्तानी सेना इतनी मज़बूत व समक्ष है कि एक साथ दो मोर्चों पर अर्थात् भीतरी आतंकवाद व साथ-साथ भारतीय सीमाओं पर भी संघर्ष कर सके? परंतु पाक सेना द्वारा ऐसा ही किया जा रहा है। सीमा पर युद्ध विराम का उल्लंघन,आतंकियों द्वारा सीमा पार से घुसपैठ कराने की कोशिश की जा रही है। नशीली वस्तुओं की खेप तथा नकली भारतीय करंसी सीमा पार से भारत में धकेली जा रही है।
अभी पिछले दिनों पोरबंदर के समीप समुद्र में पाकिस्तान की ओर से आ रही विस्फोटकों से भरी एक नौका में आग लगने का मामला प्रकाश में आया। यदि भारतीय तटरक्षक इसे समय पर न रोकते तो न जाने भारत में कोई दूसरा 26/11 अथवा इससे बड़ा हादसा दरपेश आ सकता था। जम्मु-कश्मीर सीमा पर पिछले काफी दिनों से दोनों देशों के सैनिकों के मध्य फायरिंग का सिलसिला जारी है। जिसमें अब तक दोनों देशों के कई जवान मारे जा चुके हैं। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को विशेष रूप से आमंत्रिात कर दोनों देशों के मध्य दोस्ताना संबंध बनाने का संदेश भी दिया था।
परंतु इसके जवाब में पाकिस्तान द्वारा सीमा का उल्लंघन किए जाने जैसी घटनाएं सामने आ रही हैं। क्या पेशावर हादसे के बाद पाक आतंकियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई किए जाने का संकल्प दिखाने वाली पाकिस्तानी सेना यह महसूस नहीं करती कि भारत के विरुद्ध सीमा पर छेड़े गए उसके अभियान का फायदा आख़िरकार इन्हीं आतंकवादियों को ही मिलेगा? पिछले दिनों भी यह खबर सुनाई दी कि जमाअत-उद-दावा का प्रमुख तथा मुबई के 26/11 हादसे का मुख्य आरोपी हाफिज सईद भारत-पाक सीमा पर मंडराता दिखाई दिया। पाक सेना जमाअत-उद-दावा प्रमुख हाफिज सईद तथा लाल मस्जिद के इमाम अबदुल अज़ीज़ के मध्य वैचारिक रूप से आखिर क्या अंतर देखती है? कुल मिलाकर पाक सेना को इस बात पर बड़ी संजीदगी से गौर करना चाहिए कि पाकिस्तान में आतंकवाद का साम्राज्य स्थापित करने वाली तथा बेगुनाह आवाम यहां तक कि मासूम बच्चों का खून बहाने वाली यह सभी वही ताकतें हैं जो अफगानिस्तान के तालिबानों की तजऱ् पर ही पाकिस्तान में भी शरिया कानून स्थापित करना चाहती हैं। अब यह पाक सेना को देखना है कि वह पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में बचाए रखना चाहती है या फिर पेशावर के इन बच्चों व बेगुनाहों के कातिलों के हाथों में देश को सौंपकर वहां शरिया कानून लागू कराने जैसी हिमाक़त करना चाहती है। बहरहाल जो भी हो पेशावर हादसे के बाद पाक सेना व सरकार को मिल रहे आतंकवाद विरोधी भारी जनसमर्थन के बीच निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में आतंकवाद का सफाया यदि अब भी नहीं हो सका तो संभवत: भविष्य में कभी भी नहीं हो सकेगा।
:-तनवीर जाफरी
तनवीर जाफरी
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