भारतीय लोकतंत्र वैसे तो पहले भी अपने जनमत के द्वारा कई बार अनेक चौंकाने वाले परिणाम दे चुका है। परंतु गत् दस फरवरी को दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजों ने तो एक नया ही इतिहास लिख डाला। 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में दिल्ली के मतदाताओं ने 15 वर्ष की कांग्रेस सरकार के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुख अपनाकर त्रिशुंक विधानसभा का गठन किया था। परंतु दिल्लीवासियों ने इस बार तो मात्र 8 महीने की केंद्र सरकार के विरुद्ध जिस प्रकार अपना रोष व्यक्त किया तथा आम आदमी पार्टी के प्रति अपना गहन विश्वास जताया उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। देश की किसी भी विधानसभा में 70 में से 67 विधानसभा सीटों के अनुपात से हुई जीत-हार का कोई रिकॅार्ड नहीं मिलता।
इन चुनाव परिणामों ने जहां भारतीय जनता पार्टी के अहंकारी नेताओं को आईना दिखाया है वहीं अरविंद केजरीवाल व उनकी आम आदमी पार्टी के प्रति अपने अथाह स्नेह का इज़हार कर यह भी साबित कर दिया है कि जनता अब फुज़ूल की भावनात्मक बातों में आने के बजाए केवल जनता से जुड़े मुद्दों पर ही विमर्श चाहती है तथा जनसमस्याओं का समाधान चाहती है। राजनीति में दिखावा,अभिनय,गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले लोग,धर्म के नाम पर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग,ऐशपरस्ती,झूठे वादे,जुमलेबाज़ी तथा फतवागीरी आदि को दिल्ली के मतदाताओं ने ठुकरा कर यह साबित कर दिया कि आम आदमी को केवल उसकी अपनी समस्याओं के समाधान से ही लेना-देना है फुज़ूल की बातों से नहीं?
भारतीय चुनावों में धर्म व जाति आधारित फतवागीरी अथवा धर्मगुरुओं के मतदान संबंधी दिशानिर्देशों का हमेशा से ही बड़ा महत्व रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि धर्म व जाति आधारित मतों की इसी लालच ने देश के तमाम पाखंडी व अपराधी किस्म के तथाकथित धर्मगुरुओं के ‘भाव’ भी आसमान पर चढ़ा दिए हैं। विभिन्न धर्म-जाति तथा वर्ग आधारित समूहों के मतों को हासिल करने के लिए अक्सर नेतागण इनके डेरों,आश्रमों , दरगाहों तथा इनके समागम आदि में जाते दिखाई देते हैं। इसका केवल एक ही मकसद होता है ताकि नेता इन कथित धर्मगुरुओं के अनुयाईयों को यह दिखा सकें कि वह उस वर्ग अथवा समुदाय विशेष का ‘हितैषी’ है।
परंतु अब देश की जनता इस विषय पर काफी सचेत दिखाई दे रही है। इस प्रकार के राजनैतिक धर्मगुरुओं के फतवे अब बेअसर साबित हो रहे हैं। ऐसे कथित धर्मगुरुओं के बारे में जनता यहां तक कि उनके अपने अनुयायी भी अब यह समझने लगे हैं कि किसी दल विशेष के समर्थन में दिया जा रहा उसके ‘गुरू’ अथवा इमाम या किसी धर्माचार्य का फतवा दरअसल उसके अपने निजी स्वार्थ अथवा उसके नफे-नुकसान से जुड़ा हुआ विषय है। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि धर्म-जाति व समुदाय आधरित किसी धर्मगुरु के फतवे अथवा किसी के पक्ष अथवा विपक्ष में मतदान करने के उसके निर्देशों से समाज में विद्वेष व विघटन का वातावरण बना है। ज़ाहिर है इसके लिए उन धर्मगुरुओं या इमामों के फतवे ही जि़म्मेदार हैं।
देश की संसद तथा विधानसभाएं देश तथा राज्य की विकास संबंधी योजनाओं का निर्धारण करती हैं। देश तथा राज्य की नीति निर्धारित करती हैं, आम जनता के विकास तथा देश के समग्र विकास के बारे में विमर्श करती हैं। देश के प्रत्येक नागरिक का यह फजऱ् है कि वह अपनी इच्छानुसार पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने तथा अपने क्षेत्र व देश के विकास के संबंध में भली-भांति सोच-विचार कर किसी दल अथवा प्रत्याशी के पक्ष अथवा विपक्ष में मतदान करे। ऐसे में किसी धर्मगुरु या इमाम द्वारा किसी प्रत्याशी अथवा दल विशेष के पक्ष में फतवा जारी करने का आखिर औचित्य ही क्या है? यह तो एक छड़ी से भेड़ व बकरियों के झुंड को किसी एक दिशा में चलाये जाने जैसी बात है।अब मतदाताओं की समझ में भी यह बात आने लगी है कि उनके कथित धर्मगुरु अब अपने अनुयाईयों का इस्तेमाल अपने निजी राजनैतिक नफे-नुकसान के लिए करने लगे हैं।
दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनावों के दाौरान धर्मगुरुओं की यह फतवा रणनीति दम तोड़ती दिखाई दी। दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अहमद बुखारी जोकि गत् कई दशकों से विभिन्न राजनैतिक दलों के पक्ष अथवा विपक्ष में मतदान किए जाने का फतवा जारी करने के लिए ‘कुख्यात’ रहे हैं। उन्हें इस फतवाबाज़ी को लेकर जितना अपमानित होना पड़ा वह देश के ‘फतवागीरी’ के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया। शाही इमाम मौलाना बुखारी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से मात्र दो दिन पूर्व आम आदमी पार्टी के पक्ष में मतदान किए जाने का फतवा जारी किया और उधर आम आदमी पार्टी की ओर से बिना समय गंवाए हुए बुखारी के फतवे से असहमति दर्ज करा दी गई। आप नेताओं ने बुखारी के फतवे को ठुकराते हुए कहा कि उन्हें मौलाना के फतवे की कोई आवश्यकता नहीं है। सोचने का विषय है कि जिन बुखारी के पास अपने पक्ष में फतवा जारी करने की गुज़ारिश लेकर विभिन्न दलों के राजनेता हमेशा पहुंचते रहे हों उस इमाम ने बिना मांगे आम आदमी पार्टी के पक्ष में फतवा दिया और उस पार्टी ने उस फतवा रूपी समर्थन को ठुकरा दिया? मौलाना बुखारी के लिए इससे अधिक असहज व अपमानजनक स्थिति और क्या हो सकती है?
इसी प्रकार दिल्ली विधानसभा चुनावों में ही डेरा सच्चा सौदा के राम-रहीम गुरमीत सिंह द्वारा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में अपने अनुयाईयों को मतदान करने का फतवा दिया गया। भाजपा के पक्ष में उनकी फतवा सेवाएं लेने हेतु भाजपा नेता शााहनवाज़ हुसैन ने उनसे व्यक्तिगत् रूप से मुलाकात की थी तथा दोनों की मौजूदगी में बाबा द्वारा मीडिया के समक्ष दिल्ली के मतदाताओं से भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अपील की गई। जिसका नतीजा यह निकला कि भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली में अपना मुंह छुपाते नहीं बन रहा है। दिल्ली चुनाव परिणामों ने फतवा राजनीति को साफतौर पर ठेंगा दिखाते हुए यह साबित कर दिया कि मतदाता न तो किसी धर्म,समुदाय के इमाम के राजनैतिक नफे-नुकसान के मद्देनज़र मतदान करते हैं न ही किसी धर्मसंसद के निर्देश पर।
उन्हें इस बात की फिक्र नहीं है कि अपने दुष्कर्मों के कारण कौन सा धर्मगुरु सरकार का कृपापात्र बनकर सीबीआई के शिकंजे से बचना चाह रहा है? सिरसा के डेरा सच्चा सौदा से जिस प्रकार पिछले लोकसभा तथा हरियाणा विधानसभा चुनावों में तथा दिल्ली चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करने का ऐलान किया गया उसी प्रकार यही डेरा कांग्रेस के पक्ष में भी मतदान किए जाने का निर्देश पूर्व में अपने अनुयाईयों को देता रहा है। इस अवसरवादिता के आखिर क्या मायने हैं? इसी प्रकार दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम की ओर से गत् चार दशकों में देश की लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों के पक्ष में मतदान किए जाने के फतवे जारी किए जा चुके हैं। हालांकि पहले कई बार इनके फतवे प्रभावी भी साबित हुए। परंतु अब इनके अनुयायी इनके कहने पर मतदान हरगिज़ नहीं करते।
बजाए इसके कईबार तो ऐसा देखा गया है कि जिनके पक्ष में इन्होंने फतवा जारी किया उस पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। यही वजह है कि अब समझदार नेता तथा जनसमस्याओं के समाधान की नीयत रखने वाली आम आदमी पार्टी जैसे राजनैतिक दल इनका समर्थन लेने से भी तौबा करने लगे हैं। बुखारी का समर्थन ठुकराने के पीछे आम आदमी पार्टी द्वारा जो तर्क रखा गया वह भी बिल्कुल उचित था। मौलाना अहमद बुखारी ने अपने बेटे की दस्तारबंदी में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को आमंत्रित करने का जो फैसला लिया था वह कतई मुनासिब नहीं था। देश के प्रधानमंत्री को उस कार्यक्रम में आमंत्रित न करना तथा पड़ोसी प्रधानमंत्री को उस कार्यक्रम में न बुलाना देश का कोई भी राष्ट्रवादी नागरिक कतर्ह पसंद नहीं कर सकता।
नरेंद्र मोदी की पूर्वाग्रही व संघ द्वारा संस्कारित राजनीति से देश का मुसलमान ही नहीं बल्कि देश का उदारवादी हिंदू समाज सहमत नहीं है। नरेंद्र मोदी को देश के 31 प्रतिशत मतदाताओं ने चुना है। इसका सीधा सा अर्थ है कि देश के 70 प्रतिशत मतदाता मोदी व उनकी पार्टी की विचारधारा से सहमत नहीं है। यदि मौलाना बुख़ारी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसी भी कारण पसंद नहीं करते तो अधिक से अधिक वे उन्हें अपने पुत्र की दस्तारबंदी के कार्यक्रम में आमंत्रित न करते। बेशक यह उनका निजी अधिकार था। परंतु अपने देश के प्रधानमंत्री को न बुलाना और साथ ही उसी आयोजन में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को आमंत्रित करना, उनके इस कदम को भला कौन जायज़ ठहरा सकता है? उन्हें ऐसा हरगिज़ नहीं करना चाहिए।
बहरहाल मतदाताओं ने अपने ऐसे ‘राजनैतिक’ धर्मगुरुओं के फतवों व निर्देशों को ठुकरा कर अपनी मरज़ी से मतदान करने का जो साहस दिखाया है वह यकीनन काबिल-ए-तारीफ है। ऐसे फतवेबाज़ धर्मगुरुओं को अब स्वयं फतवेबाज़ी से बाज़ आना चाहिए ताकि उनकी मान-मर्यादा व सम्मान बचा रहे। निजी नफे-नुकसान या केवल कथित सामुदायिक उत्थान की आड़ में दिया जाने वाला फतवा समाज में विद्वेष को बढ़ावा देता है। मतदाताओं को फतवों व धार्मिक दिशानिर्देशों से मुक्त होकर जनहित में मतदान करने की खुली छूट दी जानी चाहिए। देश की संसद व विधानसभाओं को जनता द्वारा चुना जाना चाहिए न कि किसी इमाम धर्मगुरु अथवा धर्मसंसद के निर्देशों या फतवों के माध्यम से।
:-तनवीर जाफरी
तनवीर जाफरी
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