23.1 C
Indore
Friday, November 22, 2024

जिसे दिल्ली का ठग कहा वह दिल्ली का सुल्तान निकला !

Narendra-Modi-Vs-Arvind-Kejriwal-दिल्ली जीत ने राजनीतिक संघर्ष की नयी लकीर खिंची तो दिल्ली हार ने पूंजी और प्रबंधन की बिसात को खोखला साबित कर दिया। तो क्या भारतीय राजनीति का नया मंत्र वोटरों को ही राजनेता बनाकर सत्ता उनके हाथ में थमाना है। या फिर इस एहसास को जगाना है कि चुनाव दो राजनीतिक दलो के बीच कोई ऐसा मुकाबला नहीं है जहा एक खुद को ताकतवर मान लें और दूसरा उसके सामने संगठन और पैसे की ताकत से कमजोर दिखायी दें। यानी वोटर को सिर्फ वोटर रहने दें और पार्टी यह मान कर चल निकले की वह सत्ता की लड़ाई लड़ रही है और उसके वादे उसकी पहुंच पकड़ जब उसे सत्ता दिला देगी तो फिर वह जनता को दिये वादे निभाने लगेगी।

वहीं दूसरी तरफ वोटर को लगने लगे की उसकी भागेदारी चुनाव में सिर्फ सत्ता के लिये लडते दो या तीन राजनीतिक दलों में से किसी एक को चुनने भर की है या चुनने के दौर से लेकर सरकार चलाने में भागेदारी की। भारतीय राजनीति में ऐसा बदलाव क्या संभव है। क्या वाकई दिल्ली एक ऐसी राजनीतिक प्रयोगशाला की तौर पर उभरी है जिसने राजनेताओं के कलेवर को बदल दिया है। यह सवाल चाहे बीजेपी की भीतर अभी ना आये लेकिन 18 से 35 बरस तक के वोटर के जहन में यह सवाल जागने लगा है कि राजनेता हाथ हिला कर वादे करते हुये निकल जाये यह अब संभव नहीं है। संवाद और जनता के बीच दो दो हाथ करने की स्थिति में सत्ता संघर्ष करते नेताओं को आना होगा। यानी बीजेपी दिल्ली में क्यों हारी और अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में क्यों जीते।

अगर पारंपरिक राजनीति के नजरिये से समझें तो बीजेपी के विरोध के वोट आम आदमी पार्टी की झोली में गिरते चले गये। यानी नकारात्मक वोट ज्यादा पड़े । और बीजेपी ने गलतियां कितनी कहां कीं। यह तो झोला भरकर बीजेपी के भीतर का भी कोई नेता आज कह सकता है क्योंकि सिर्फ तीन सीट जीतने का मतलब ही है कि बीजेपी का सारे चुनावी हथियार फेल हो गये। लेकिन दिल्ली को लेकर अगर केजरीवाल के कामकाज के तौर तरीके से चुनाव में सत्तर में से 67 सीटों पर जीत का आकलन करें तो बनारस चुनाव में हार के बाद से केजरीवाल का दिल्ली को लेकर कामकाज करने का तरीका और बनारस की जीत के बाद नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनकर उम्मीद और आस को आसमान तक ले जाने वाले हालातों से दो दो हाथ करना ही होगा। जीत नकारात्मक वोट से हुई हो या सकारात्मक वोट से यह समझना जरुरी है कि दिल्ली में 26 मई से पहले और बाद में दिल्ली के वोटर का नजरिया नरेन्द्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल को लेकर था क्या।

भावनात्मक तौर पर राष्ट्रवाद जगाते मोदी के लोकसभा चुनाव के भाषणों के एक एक शब्द को सुन लीजिये। आपके रोंगटे खड़े होगें । राजनीति को लेकर बदलता नजरिया खुले तौर पर मोदी ने रखा इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । सीधे सत्ता और कारपोरेट के गठजोड़ पर हमला। गांधी परिवार की रईसी पर हमला । साठ बरस तक काग्रेसी सत्ता तले आम आदमी को गुलाम बनाने की मानसिकता पर सीधी चोट। सीमा के प्रहरी से लेकर देश के लिये पीढियों से अन्न उपजाते किसान की गरीबी और बेहाली का रोना। यानी जो आवाज देश के आम जनता के दिल में गूंजती थी उसे चुनावी मंचो से कोई जुंबा दे रहा था तो वह नरेन्द्र मोदी ही थे। गजब का आकर्षण मोदी ने राजनीतिक तौर पर दिल्ली की चकाचौंध के बीच संघर्ष और पसीना बहाने वालों के लिये बनायी। वाकई 26 मई से पहले के नरेन्द्र मोदी हिन्दुस्तान की राजनीति में एक से नेता के तौर पर उभर रहे थे जो लुटियन्स की दिल्ली को तार तार करना चाहता था। जो वीवीआईपी बने ताकतवर लोगों को जन की भाषा में सिखा रहा था कि सत्ता में आते ही सियासत के रंग ढंग बदल जायेंगे।

कारपोरेट पूंजी को राजनीतिक सत्ता के आगे नतमस्तक होना पड़ेगा। जो राजनीति राडिया टेप से निकल कर देश की खनिज संपदा तक को दलालों को हाथ में बेचकर सुकुन से रेशमी नगर दिल्ली में सुकुन की सांस ले रही है, उसकी खैर नहीं। मोदी की साफगोई का असर समूचे देश में हो रहा था इसे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दिल्ली का असर देश के दूसरे राज्यो से अलग इसलिये था क्योंकि दिल्ली वाकई मिनी इंडिया की तर्ज 26 मई के बाद पीएम मोदी को सबसे करीब और पैनी नजर से भी देख रहा था और उसके बाद सरकार का चुनाव जीतने के कारखाने में बदलने की नीयत को भी बारीकी से महसूस कर रहा था। महाराष्ट्र हो या हरियाणा या झारखंड या जम्मू कश्मीर हर जगह पीएम मोदी का जादू चला। या लोकसभा चुनाव की जीत की आगोश में कांग्रेस या उससे सटे दल समाते चले गये।

देश में मौजूदा राजनीतिक सत्ता को लेकर गुस्सा नरेन्द्र मोदी ने जगाया। हर राज्य में वोटर का गुस्सा और चुनाव प्रबंधन जीत दिलाता गया। लेकिन दिल्ली इस सवाल से वाकिफ हमेशा रही कि सत्ता में आने से पहले और सत्ता में आने के बाद के बोल एक नहीं हो सकते। अगर सत्ता में रहते हुये गुस्सा है तो फिर सत्ता में आने से पहले का गुस्सा भी कही ढोंग तो नहीं था। यह सवाल दिल्ली ने कब कैसे पकड़ा। केजरीवाल कब इस सवाल के साये में चुनावी प्रचार में उतर गये और नरेन्द्र मोदी ने कैसे 10 जनवरी को रामलीला मैदान में गुस्से की राजनीति में खुद को ही थकते हांफते देखा। यह सारे सवाल दिल्ली चुनाव में एकजूट इसलिये हुये क्योकि दिल्ली हर राजनीतिक परिवर्तन का गवाह हमेशा से रहा है और राजनीति के हर प्रयोग में उसकी भागेदारी रही है। जरा दिल्ली की महीन राजनीतिक समझ को परखें। अन्ना जो सवाल उठा रहे थे। अन्ना के साथ केजरीवाल जिस आंदोलन से राजनीतिक हवा दे रहे थे ।

उसके मर्म को 2013 के दिल्ली चुनाव में अगर केजरीवाल ने उठाया तो 14 फरवरी 2014 के बाद मोदी की टीम ने बेहद बारिकी से अन्ना केजरीवाल के मुद्दों को सीधे राजनीतिक जुबान दे दी। जो अन्ना कह रहे थे। जो केजरीवाल कह रहे थे वही शब्द मुख्यधारा के राजनेता नरेन्द्र मोदी कह रहे थे । मोदी के लिये लोकसभा चुनाव के वक्त जरुरी था कि केजरीवाल राजनीतिक तौर पर खारिज हों। और आंदोलन की भाषा राजनीति भाषा बन गयी । लेकिन इस राजनीतिक तौर पर नरेन्द्र मोदी भी मौजूदा व्यवस्था के उस मर्म को समझ नहीं पाये कि अन्ना से लेकर लोकसभा चुनाव तक लोगो के जहन में पहली बार यह सवाल सीधे टकरा रहा था कि देश वाकई दो हिस्सो में बंट चुका है। एक तरफ गरीब तो दूसरी तरफ सुविधाओं से लैस समाज खडा है । यानी जो राजनीति अभी तक धर्म – संप्रदाय में उलझा कर सत्ता साधती रही उसी राजनीति ने जाति-धर्म की राजनीतिक थ्योरी को खारिज कर सत्ता के लिये नारा तो विकास का लगाया लेकिन उम्मीद गरीब तबके में जगी ।

और प्रधानमंत्री मोदी इस सच से दूर हो गये कि विकास का नारा अगर चकाचौंध की विरासत को ही मजबूत करेगा तो फिर विकास को लेकर गरीब से लेकर युवा तबके की समझ और मिडिल क्लास से लेकर नौकरी पेशे में उलझा तबके के निशाने पर और कोई नहीं होगा बल्कि वही शख्स होगा जिसने आस जगायी। इसलिये दिल्ली की सडको पर 26 मई के बाद पहली बार केजरीवाल ने चुनाव की तैयारी करते हुये कोई रैली 10 दिसबंर तक की ही नहीं। सिर्फ मोदी के गुस्से को ही हवा देते रहे। यानी जो सवाल दिल्ली के वोटरो के सामने देश को लेकर हो या दिल्ली को लेकर उस तरफ केन्द्र सरकार अगर ध्यान भी देती तो भी नई दिल्ली चुनाव के वक्त नरेन्द्र मोदी दिल्ली में नायक हो गये होते। लेकिन 26 मई को पीएम बनने के बाद या कहे केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद पहले दिन से दिल्ली को उस अंधेरे में गुम किया गया कि दिल्ली चुनाव ही हर मर्ज की दवा है।

यानी दिल्ली को लेकर केन्द्र की समूची कवायद चुनाव को ध्यान में रखकर ही की गयी। उप राज्यपाल का कोई भी निर्णय हो। गृहमंत्री का कोई भी निर्देश हो। बीजेपी में नये प्रदेश अध्यक्ष का एलान हो। ई रिक्शा पर फैसला हो । 84 के दंगों पर मुआवजे का मलहम हो। झुग्गी झोपडी को लेकर कोई कानूनी निर्णय हो। बिजली देने का वादा हो । हर पहल दिल्ली के लिये नही बल्कि दिल्ली चुनाव को ध्यान में रखकर की जा रही है यह मैसेज खुले तौर पर मोदी सरकार भी देती रही और जनता भी समझती रही। यानी सत्ता के लिये चुनाव प्रबंधन की अनकही स्क्रिप्ट लगातार 26 मई के बाद से दिल्ली चुनाव को लेकर केन्द्र सरकार लिखती रही । लिखती रही और उसी स्क्रिप्ट को केजरीवाल दिल्ली के वोटरों से संवाद बनाते हुये पढ़ते पढ़ाते रहे। युवा तबके के भीतर के सवालो का जबाब कोई देने वाला नहीं था। महंगाई, कालाधन और भ्रष्टाचार तो दूर की बात रही युवा के सपनो को सहेजने वाला कोई नहीं था।

राजनीतिक व्यवस्था को लेकर मोदी का गुस्सा अंतराष्ट्रीय तौर पर मान्यता पाकर छवि गढ़ने का ऐसा मंत्र था जो देश के दूसरे हिस्सो में तो कुछ दिन सहेजा भी जा सकता था लेकिन दिल्ली जैसे जगह में वहीं युवा केजरीवाल के प्रचार में साथ खड़ा हो गया जो कल तक केजरीवाल को मोदी के रास्ते की रुकावट मान कर तिरस्कार करने से नहीं चूक रहा था। अमेरिका, आस्ट्रलिया , चीन , रुस सरीखे महाशक्तियों के साथ मोदी की गलबहिया देखने में तो अच्छी थी लेकिन पढा लिखा युवा इसके भीतर के खोखलेपन को बाखूबी समझ रहा था । इसलिये जो बीजेपी जिस चकाचौंध को जिस युवा तबके के लिये मोदी मंत्र के नाम पर बना रही थी उसी मंत्र के खोखलेपन को वही युवा सोशल मिडिया से लेकर अपने दायरे में हर किसी को बता रहा था। उस पर अमित शाह का समूचा तंत्र ही सिर्फ प्रबंधन के जरीये चुनाव जीतने की मंशा बनाने में लगा था। टिकट उसे दें जो पैसे वाला हो। प्रचार में उसे उतारे जो सत्ता की मलाई के रुतबे से जुड़ा हो। विज्ञापन आखरी मौके तक इस तरह परोसे जिससे देखने वालो को लगे कि बीजेपी कितनी रईस पार्टी है। जब प्रचार में इतना खर्च कर सकती है तो फिर सत्ता में आने के बाद कितना लुटायेगी। यह ऐसी मानसिकता थी जिसे बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठकर समझने वाले और सडक पर चलने वालों के बीच कोई तारतम्य था ही नहीं।

इसके लिये केजरीवाल कोई राजनीतिक प्रयास नहीं कर रहे थे बल्कि खुद ब खुद स्थितिया मोदी सरकार के खिलाफ जा रही थी। बीजेपी हेडक्वार्टर से पूंजी लूटाकर चुनाव प्रचार के लिये प्रोफेशनल्स को काम पर लगाया जा रहा था और वही प्रोफेशनल्स तो स्वयंसेवक बनकर केजरीवाल के लिये प्रचार करने उतर आये। यानी संवाद बनाने के माहिर नरेन्द्र मोदी का कोई संवाद दिल्ली से था ही नहीं और केजरीवाल सिर्फ संवाद बना रहे थे । यानी जो राजनीतिक कसमसाहट दिल्ली में पहली बार चुनाव लड़ने के प्रबंधन और पैसा लूटाने वालो पर भारी पडी वह गरीबों को साफ दिखायी देने वाली लकीर थी । जिसने करवट लेनी शुरु की तो बैनर, पोस्टर, मिडिया का शोर, कैबिनेट का प्रचार या तक की संघ परिवार का जुडाव भी सतही हो गया। लेकिन सवाल है कि क्या वाकई जीत के बाद बीजेपी में कोई असर दिखायी देगा । तो कोई राजनीति का ककहरा पढने वाला भी इसका जबाब यही कहकर देगा कि बीजेपी नहीं नरेन्द्र मोदी कहिये। और जो असर मोदी में होगा वहीं बीजेपी में दिखायी देगा ।

तो मोदी पर पड़े हार के असर को समझे तो लारजर दैन लाईफ बने मोदी अब खुद को जमीन पर ला रहे हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव की स्क्रिप्ट में लारजर दैन लाइफ बने नोदी का संकट बदलने में भी दोहरा है। एक तो उन्हें खुद को सामान्य राजनेता बताना होगा और दूसरा चकाचौंध कारपोरेट की राजनीति को त्याग कर स्वदेशी जमीन पर लौटना होगा। दोनों परिस्थितियां गलती करायेंगी। क्योंकि मोदी का कद इन्हीं हालातों को खारिज कर कुछ नया देने की उम्मीद पर टिका है । शरद पवार और अजित पवार के साथ बारामती जाकर सार्वजनिक समारोह में शामिल होना । जिन्हे लोकसभा चुनाव में कटघरे में खड़ा करते हुये महाराष्ट्र चुनाव तक में चाचा भतीजा कहकर पुकारा। मुलायम-लालू यादव के पारिवारिक विवाह समारोह में शरीक होने के लिये जाना। जिन्हे मोदी ने ही भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा किया ।

तो क्या नरेन्द्र मोदी को लगने लगा कि उन्हें क्षत्रपों के साथ खड़ा होना होगा । या फिर कांग्रेस के सफाये के लिये मोदी अब किसी भी क्षत्रप के साथ जाने को तैयार है। वैसे यहां यह समझना भी जरुरी है कि अमित शाह का चुनाव प्रबंधन नरेन्द्र मोदी को ही केन्द्र में रखकर हमेशा बनता रहा है। फिर गुजरात की राजनीति की सीधी लकीर और बिहार–यूपी की राजनीतिक परिस्थितियों की जटिलता बिलकुल अलग है। और उसे भेद पाने में चुनावी प्रबंधन से जज्यादा राजनीति समझ होनी चाहिये जो हिन्दी बैल्ट में बच्चा बच्चा समझता है। और इसे संघ परिवार के वह संगठन भी समझ रहे हैं जिन्हे सरसंघचालक के कहने पर चुनाव मैदान में सक्रियता दिखानी पड़ती है। लेकिन किसान, आदिवासियो से लेकर स्वदेशी और मजदूर संघ में काम करने वालों के सामने राजनीतिक रास्ता बचेगा क्या। जब उन्हे अपना काम करते हुये जिन रास्ते पर चलना है और चुनाव में सक्रियता जिस विचार के लिये बढ़ानी है हर वह समाज के दो छोर हो।

वैसे प्रधानमंत्री मोदी में दिल्ली हार का असर निजी तौर पर भी है। सांप्रदायिक सद्भाव का जिक्र हो या अमेरिकी राष्ट्रपति को बराक कहकर संबोधन। यानी संघ की देसी जमीन से दूर प्रधानमंत्री मोदी देश को लेकर कौन सा रास्ता बनाना चाहते हैं। यह उलझन वोटरो को ही नहीं संघ परिवार के भीतर भी रही । और संघ ने चुनावी बिसात की सीख देने के लिये जो मंथन किया उस,में खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर ना रखकर राजनीतिक तौर पर रखकर फिर गलती की । संघ के तर्क को समझे दिल्ली में बीजेपी के वोट बैंक में कोई सेंध नहीं लगी। वही कमोवेश 31 से 33 फीसदी का वोट बैंक बीजेपी के साथ इसलिये रहा क्योंकि संघ की चुनावी सक्रियता दिल्ली में थी। यानी जो 28 लाख 90 हजार वोट बीजेपी को मिले वह संघ परिवार की सक्रियता थी। लेकिन इसके उलट केजरीवाल को 53 फिसदी वोट कैसे मिल गये और उसके वोटो में बीस फिसदी से ज्यादा की बढोतरी कैसे हो गयी। सबका जबाब संघ बीजेपी को कटघरे में खडाकर अपनी राजनीतिक उपयोगिता बरकरार रखते हुये देना चाहती है। यानी सच कोई भी कहने को तैयार नहीं है ।

हर कोई अपने विस्तार और अपनी मान्यता को ही देख रहा है । लेकिन समझना अब यह होगा कि राजनीति की दो धारायें जब आमने सामने दिल्ली में होगी तो होगा क्या। क्योंकि मोदी का कारपोरेट प्रेम और केजरीवाल का कारपोरेट विरोध विकास की नीतियों तले टकरायेगा ही। और केजरीवाल कभी नहीं चाहेंगे की प्रधानमंत्री मोदी से उनकी निकटता दिखायी दे। कारपोरेट को लेकर टकराव के बीच में वहीं नीतियां खड़ी होंगी, जिन्हें 1991 से भारत ने अपनाया और संघ परिवार बाजार अर्थव्यवस्था का खुला विरोध करता रहा। यानी बीते ढाई दशक के दौर में किसी पीएम या किसी राजनेता ने जब वैकल्पिक अर्थनीति का कोई खाका रखा ही नहीं तो फिर दिल्ली चुनाव परिणाम क्या राजनीतिक तौर पर वैक्लिपक राजनीति के साथ वैक्लिपक अर्थनीति भी देश के सामने ले आयेगा। यह सवाल इसलिये बडा है क्योकि दिल्ली चुनाव न्यूनतम की जरुरत की जमीन पर हुआ। और दिल्ली ही ऐसी जगह है जहा राज्य किसी भी न्यूनतम जरुरत लेने के जिम्मेदारी में नहीं है। यानी पीने का पानी हो या शिक्षा ।

स्वास्थ्य सर्विस हो या रोजगार के अवसर दिल्ली में सबकुछ निजी हाथों में सिमटा हुआ है। और कारपोरेट की तादाद भी सबसे ज्यादा दिल्ली में ही है । प्रति व्यक्ति आय भी दिल्ली में सबसे ज्यादा है। तो अगला सवाल है कि बिजली पानी, शिक्षा-स्वास्थय को उपलब्ध कराने के लिये जैसे ही केजरीवाल गरीब तबके की दिशा में कदम बढायेंगे वैसे ही पहला टकराव कारपोरेट कंपनियों से होगा। और कारपोरेट के हितो को साधने के लिये केन्द्र सरकार को सक्रिय होना ही पड़ेगा। क्योकि मेक इन इंडिया का नारा हो फिर चकाचौंध विकास के लिये विदेशी पूंजी का इंतजार प्रधानमंत्री मोदी को देसी कारपोरेट तक के लिये सेफ पैसेज तो बनाना ही होगा। और दुनिया भर में यह मैसेज तो देना ही होगा कि उनकी विकास की सोच और केजरीवाल की चुनावी जीत में कोई मेल नहीं है। वहीं केजरीवाल की जीत मोदी के चकाचौंध भारत की सोच को ही चुनौती दे रही है इससे पहली बार हर कोई महसूस कर रहा है। यानी टकराव अगर राजनीतिक तौर पर दिल्ली में उभरता है तो फिर बीजेपी को रोकने के लिये समूचे विपक्ष की धुरी केजरीवाल बन जायेंगे। और राजनीति करन के लिये जिस पूंजी और जिस धर्म-जाति के आसरे अभी तक क्षत्रप सियासत साधते आये हैं, उसमें चाहे अनचाहे बदलाव होगा ही।

ऐसे में सबसे बडा सवाल संघ परिवार के सामने भी उभरेगा क्योंकि केजरीवाल की थ्योरी और मोदी की फिलास्फी में से संघ की सोच केजरीवाल की थ्योरी के ज्यादा निकट की है। यह हालात मोदी के लिये खतरे की घंटी भी हो सकती है और बीजेपी को दुबारा राष्ट्रीय जमीन पर खडा होने का ककहरा भी सिखा सकती है। क्योंकि बीजेपी एक बरस तक जिसे दिल्ली का ठग कहती रही वही दिल्ली जीत कर लारजर दैन लाइफ बने नरेन्द्र मोदी को जमीन सूंघा कर सीएम की कुर्सी पर बैठ चुका है।

:-पुण्य प्रसून बाजपेयी

punya-prasun-bajpaiलेखक परिचय :- पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।

Related Articles

इंदौर में बसों हुई हाईजैक, हथियारबंद बदमाश शहर में घुमाते रहे बस, जानिए पूरा मामला

इंदौर: मध्यप्रदेश के सबसे साफ शहर इंदौर में बसों को हाईजैक करने का मामला सामने आया है। बदमाशों के पास हथियार भी थे जिनके...

पूर्व MLA के बेटे भाजपा नेता ने ज्वाइन की कांग्रेस, BJP पर लगाया यह आरोप

भोपाल : मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले ग्वालियर में भाजपा को झटका लगा है। अशोकनगर जिले के मुंगावली के भाजपा नेता यादवेंद्र यादव...

वीडियो: गुजरात की तबलीगी जमात के चार लोगों की नर्मदा में डूबने से मौत, 3 के शव बरामद, रेस्क्यू जारी

जानकारी के अनुसार गुजरात के पालनपुर से आए तबलीगी जमात के 11 लोगों में से 4 लोगों की डूबने से मौत हुई है।...

अदाणी मामले पर प्रदर्शन कर रहा विपक्ष,संसद परिसर में धरने पर बैठे राहुल-सोनिया

नई दिल्ली: संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी पहले की तरह धुलने की कगार पर है। एक तरफ सत्ता पक्ष राहुल गांधी...

शिंदे सरकार को झटका: बॉम्बे हाईकोर्ट ने ‘दखलअंदाजी’ बताकर खारिज किया फैसला

मुंबई :सहकारी बैंक में भर्ती पर शिंदे सरकार को कड़ी फटकार लगी है। बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे...

सीएम शिंदे को लिखा पत्र, धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री को लेकर कहा – अंधविश्वास फैलाने वाले व्यक्ति का राज्य में कोई स्थान नहीं

बागेश्वर धाम के कथावाचक पं. धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री का महाराष्ट्र में दो दिवसीय कथा वाचन कार्यक्रम आयोजित होना है, लेकिन इसके पहले ही उनके...

IND vs SL Live Streaming: भारत-श्रीलंका के बीच तीसरा टी20 आज

IND vs SL Live Streaming भारत और श्रीलंका के बीच आज तीन टी20 इंटरनेशनल मैचों की सीरीज का तीसरा व अंतिम मुकाबला खेला जाएगा।...

पिनाराई विजयन सरकार पर फूटा त्रिशूर कैथोलिक चर्च का गुस्सा, कहा- “नए केरल का सपना सिर्फ सपना रह जाएगा”

केरल के कैथोलिक चर्च त्रिशूर सूबा ने केरल सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि उनके फैसले जनता के लिए सिर्फ मुश्कीलें खड़ी...

अभद्र टिप्पणी पर सिद्धारमैया की सफाई, कहा- ‘मेरा इरादा CM बोम्मई का अपमान करना नहीं था’

Karnataka News कर्नाटक में नेता प्रतिपक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि सीएम मुझे तगारू (भेड़) और हुली (बाघ की तरह) कहते हैं...

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Stay Connected

5,577FansLike
13,774,980FollowersFollow
136,000SubscribersSubscribe
- Advertisement -

Latest Articles

इंदौर में बसों हुई हाईजैक, हथियारबंद बदमाश शहर में घुमाते रहे बस, जानिए पूरा मामला

इंदौर: मध्यप्रदेश के सबसे साफ शहर इंदौर में बसों को हाईजैक करने का मामला सामने आया है। बदमाशों के पास हथियार भी थे जिनके...

पूर्व MLA के बेटे भाजपा नेता ने ज्वाइन की कांग्रेस, BJP पर लगाया यह आरोप

भोपाल : मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले ग्वालियर में भाजपा को झटका लगा है। अशोकनगर जिले के मुंगावली के भाजपा नेता यादवेंद्र यादव...

वीडियो: गुजरात की तबलीगी जमात के चार लोगों की नर्मदा में डूबने से मौत, 3 के शव बरामद, रेस्क्यू जारी

जानकारी के अनुसार गुजरात के पालनपुर से आए तबलीगी जमात के 11 लोगों में से 4 लोगों की डूबने से मौत हुई है।...

अदाणी मामले पर प्रदर्शन कर रहा विपक्ष,संसद परिसर में धरने पर बैठे राहुल-सोनिया

नई दिल्ली: संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी पहले की तरह धुलने की कगार पर है। एक तरफ सत्ता पक्ष राहुल गांधी...

शिंदे सरकार को झटका: बॉम्बे हाईकोर्ट ने ‘दखलअंदाजी’ बताकर खारिज किया फैसला

मुंबई :सहकारी बैंक में भर्ती पर शिंदे सरकार को कड़ी फटकार लगी है। बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे...