देश में मोहभंग का वातावरण जितनी तेज़ी से अब बढ़ता जा रहा है,उतनी तेज़ी से कभी नहीं बढ़ा। इंदिरा गाँधी से मोहभंग होने में जनता को 8-9 साल लगे,राजीव गाँधी के बोफोर्स का पिटारा ढाई साल बाद खुला और मनमोहन सिंह को इस बिंदु तक पहुँचने में 6-7 साल लगे लेकिन हमारे “प्रधान–सेवक” का क्या हाल है? प्रचंड बहुमत से जीतनेवाले जन—नायक का क्या हाल है? उसका नशा तो दिल्ली की हार ने एक झटके में ही उतार दिया था,और अब वसुंधरा राजे की रोचक कथाओं और सुषमा स्वराज की भूल ने सम्पूर्ण भाजपा नेतृत्व और संघ परिवार को भी कटघरे में ला खड़ा किया है। अब जो भी वसुंधरा या सुषमा के पक्ष में बोलता है, वह लोगों को ललित मोदी का वकील मालूम पड़ता है। और जो नहीं बोलता है, उसके मौन की दहाड़ सारा देश सुन रहा है। हमारे प्रधान—सेवक का योग-दिवस (21 जून) अभी से शुरू हो गया है। नाक, कान, आँख और मुँह सब एक साथ बंद हो गए हैं। मोटे मोदी पर छोटा मोदी भारी पड़ रहा है। 56 इंच का सीना पता नहीं सिकुड़कर कितना इंच रह गया है?
मोदी सरकार की प्रतिष्ठा पैंदे में बैठ गई है। मोटे मोदी को छोटा मोदी ले बैठा। देश के सामने दूसरा विकल्प उभरा था—अरविन्द केजरीवाल का, वह भी नौटंकी में बदल गया है।जन—आंदोलनों के लिए देश फिर तैयार हो गया है। ऐसी स्थिति में आपात्काल के बादलों का घिरना शुरू हो गया है। आडवाणी जी को बधाई कि उनको ये घिरते हुए बादल अभी से दिखाई पड़ने लगे हैं।”
(‘नया इंडिया’ में प्रकाशित वेदप्रताप वैदिक के लेख का एक अंश)