नई दिल्ली – लेफ्टिनेंट कर्नल मिताली मधुमिता ने फरवरी 2010 में काबुल की इंडियन एंबेसी में हुए आतंकी हमले में 19 लोगों की जान बचाई थी। अदम्य साहस का परिचय देने के लिए उन्हें कभी सेना मेडल दिया गया था। मगर, अब सेना में सेवा देने के लिए वह सरकार के साथ सुप्रीम कोर्ट में अलग ही जंग लड़ रही हैं।
शॉर्ट सर्विस कमीशन के जरिये मिताली सेना से जुड़ी थीं, जिसके तहत पांच से 15 वर्ष तक अधिकारी अपनी सेवाएं सेना को दे सकते हैं। उन्होंने लंबे समय तक सेना में सेवा देने के लिए सितंबर 2010 में पर्मानेंट कमीशन दिया गया था, जिसे निजी कारणों से उन्होंने लेने से इंकार कर दिया था।
मगर, अफगानिस्तान से भारत लौटने के बाद उनका विचार बदल गया और वह सेना में अधिक समय तक सेवा देने के लिए तैयार हो गईं। उन्होंने सैन्य अधिकारियों से गुजारिश की कि उन्हें पर्मानेंट कमीशन दे दिया जाए। वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से की गई अनुशंसाओं के बावजूद रक्षा मंत्रालय ने 2000 बैच की अधिकारी के अनुरोध को स्वीकार करने से इंकार कर दिया।
इसके विरोध में मिताली ने आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल के सामने मार्च 2014 में अपील की। इस वर्ष फरवरी में ट्रिब्यूनल ने रक्षा मंत्रालय को निर्देश दिया कि मिताली को कम से कम एक मौका दिया जाना चाहिए। हालांकि, महिलाओं के सशक्तीकरण की बात करने वाली सरकार ने ट्रिब्यूनल के फैसले को बदलते हुए मिताली को शीर्ष कोर्ट में घसीट लिया।
सशस्त्र बलों में महिलाओं की भर्ती वर्ष 1990 के दशक से एसएससी के जरिये शुरू हुई थी। इसके बाद में सरकार ने महिलाओं को चुनिंदा सशस्त्र सेनाओं की सेवाओं में पर्मानेंट कमीशन देना शुरू कर दिया था। वर्तमान में सशस्त्र बलों में 3,250 महिलाएं सेवा दे रही हैं, जिनमें से 1,436 सेना में अपनी सेवाएं दे रही हैं।