दोस्तों, एक महिला कवि हैं। नाम सुषमा असुर है। झारखंड की रहने वाली इस असुर महिला की खासियत यह है कि इनकी रचनायें स्थानीय भाषा में होने के बावजुद राष्ट्रीय स्तर पर छाप छोड़ती हैं। सुषमा असुर इकलौता नाम नहीं है जो दलितों और पिछड़ों में आयी सांस्कृतिक जागरुकता के परिचायक हैं।
निश्चित तौर पर यह एक क्रांति है जिसके स्वरुप भले ही अलग-अलग हों, लेकिन लक्ष्य एक ही है। ब्राह्म्णवाद का खात्मा। अब इस सांस्कृतिक जागरुकता को राजनीतिक धार भी मिल चुकी है। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में लड़ाई का एक आधार ब्राह्म्ण बनाम गैर ब्राह्म्ण भी है। खासकर राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने इस बार ब्राह्म्णों के ब्राह्मणत्व को जिस तरीके से चुनौती दी है, वह अतुलनीय है और इस बात का संकेत भी कि अब हालांकि दलितों व पिछड़ों में आयी यह जागरुकता रुकने वाली नहीं है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक जनजागरण का प्रयास जिसे कभी कबीर, रहीम, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, डा भीम राव आंबेडकर, राजित सिंह, ललई सिंह यादव, राम लखन सिंह यादव, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद, आदि महानायकों ने शुरू किया था, वह आज तक पूरा नहीं हो सका। आज भी ब्राह्मणवादी शक्तियां समाज के सभी क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाए रखने में कामयाब हैं।
इसका मूल कारण सिर्फ और सिर्फ विध्वंसकारी मनुवादी व्यवस्था है, जिसके अहम् हिस्से के रूप में हम सभी शूद्र भी शामिल हैं। राजनीतिक स्तर पर धर्म का उपयोग कर हमें विभाजित करने की ब्राह्मणों की कोशिश सफल रही है।
ज़ाहिर तौर पर हमारे ही समाज के बूते ब्रह्मंवादी शक्तियों को अब तक यह सफलता मिली है, जिसका एक स्पष्ट प्रमाण यह है कि हम आज भी अपने ही पूर्वज और श्रम्जीवी महानायक, ‘महिषासुर’ का हर साल तिरस्कार करते हैं, और उसकी आरधना करते हैं, जो तथाकथित देवताओं के पुण्य से उत्पन्न हुई थी। ब्राह्म्ण भी यह स्वीकार करते हैं कि दुर्गा एक अप्सरा और स्वर्ग सुंदरी थी जो देवताओं की रखैल थी।
यह समझने-समझाने की आवश्यकता है कि आखिर मनुवादी शक्तियां, बाबा साहब डा भीम राव आम्बेक्दर के द्वारा बनाए गए संविधान का भी अपमान कर अबतक प्राक्रृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों पर अपना अधिकार बनाए रखने में कामयाब क्यों रहे है। भूमि सुधार यानी जल जंगल और जमीन पर अधिकार का मामला हो, या फिर आरक्षण के प्रावधान को धत्ता बताकर हमारे मौलिक अधिकारों के हनन का मामला।
हमें सचेत होने की आवश्यकता है. महिषासुर महोत्सव मनाने के पीछे हमारी यही सोच है कि हम सभी दलित और पिछरे अपने अधिकारों को जाने समझे और सामूहिक संघर्ष करे. फिर चाहे हम यादव, कोइरी, कुशवाहा, चमार, डोम, धोबी, भड्भुन्ज्वा, कहार, मल्लाह, अंसारी, हलालखोर, धुनिया, धनुक, गड़ेरी, माली, मछुआरा, कसाई या फिर किसी ऐसी जाति के क्यों न हो।
हमें यह विभेद सबसे पहले ख़त्म करना होगा. निश्चित तौर पर हमें मनुवाद के सिद्धान्तों पर आधारित वर्णवादी व्यवस्था को समूल उखाड़ फ़ेंकना होगा. महिषासुर महोत्सव इसी विस्तृत प्रयास की एक कड़ी है। इसके राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक पहलू हैं. हमें ब्रह्मंवादियों के इसी गठजोड़ को समझने की आवश्यकता है। दुर्गा जिसकी प्रतिमा आज भी वेश्याओं के घर से लायी गयी मिटटी से बनायी जाती है क्योंकि उसका जन्म ही उसी कुल में हुआ था।
आज भी ब्राह्मणवादी शक्तियां उसी दुर्गा का भय दिखाकर हम शुद्रो पर राज कर रही हैं। हम श्रम कर पैसे कमाते हैं और वे हमारे पैसे पर अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार जमा लेते है। हमारे समाज के खेत मजदूर मेहनत कर खेतो में सोना उगाते है जिसका मुख्य हिस्सा ब्राह्म्नवादियो के पास चला जाता है। हमें इस प्रक्रिया को रोकना होगा। यह इसलिए भी कि धर्मनिरपेक्षता और ब्राह्म्णवाद दोनों एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं।
जहां ब्राह्म्णवाद होगा वहां धर्मनिरपेक्षता मुमकिन ही नहीं है। तथाकथित निरपेक्ष पार्टियां भी समय आने पर इस बात का श्रेय लेने से नहीं हिचकती हैं कि उसीने आयोध्या में रामलला को स्थापित किया। मेरे लिहाज से तरह-तरह के धर्मानुरागियों (मेरे हिसाब से धर्मांधों) वाले भारत देश में दुर्गा और उसकी अवधारणा अनंत काल तक सजीव रहेगी। ऐसी भविष्यवाणी वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में कही जा सकती है।
समय आने पर स्थितियां जरुर बदलेंगी, इसकी कल्पना की जा सकती है लेकिन इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि ब्राह्म्णवाद किसी न किसी रुप में सजीव रहेगा ही और ब्राह्म्णवादियों का वर्चस्व कायम रहेगा। ब्राह्म्णवाद फ़िर चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, इंसानियत के लिए खतरनाक है। भारत की बात करें तो हिन्दू धर्म तो इंसानों का सबसे बड़ा दुश्मन है।
सबसे बड़ा दुश्मन कहने का आशय यह है कि इस धर्म में इंसान की पहली पहचान इंसान न होकर ब्राह्म्ण, राजपूत, भुमिहार या फ़िर यादव, कोईरी , चमार, डोम, भंगी है। इंसानों को बांटकर राज करने की नीति का आरोप भले ही ब्राह्मणवादी अंग्रेजों पर लगते हैं लेकिन सच यह नहीं हैं। असल में भारतीय इतिहास के पन्नों को पलटें तो हम पाते हैं कि आर्यों को छोड़ किसी भी बाहरी शासक ने इंसानों को बांटने की कोशिश नहीं की।
इसकी वजह यह कि जो भी भारत आया राज करने नहीं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि सब ब्राह्म्णवाद का प्रभाव जानते समझते थे। वे समझते थे कि अगर उन्होंने ब्राह्म्णवादियों का साथ नहीं लिया तो फ़िर वे इस विविधता वाले देश में शासन नहीं कर सकते। ब्राह्म्णवाद को चुनौती देने की हिम्मत खुद अकबर में नहीं थी। अलबत्ता उसने हिन्दू धर्म के सामने लगभग घुटने टेकते हुए अबुल फ़जल के द्वारा परिकल्पित “दीन-ए-इलाही” नामक धर्म को लागू करने का प्रयास किया।
नतीजा यह हुआ कि उसके बाद मुगलों का पतन शुरु हो गया। जब इस देश में अंग्रेज आये तब उन्होंने भी अपनी भारत की सामाजिक बुनावट को छेड़ने का प्रयास नहीं किया। उनका उद्देश्य स्पष्ट था। लेकिन जब शुद्रों ने अपने हक और अधिकार की मांग को लेकर व्यापक आंदोलन चलाया और हिन्दुत्व के सिद्धांतों पर ठोस प्रहार किया तब हिन्दूवादी शक्तियां बिलबिला उठीं।
अनेक तथाकथित हिन्दू धर्म सुधारकों का जन्म हुआ और हिन्दुत्व में सुधार की कोशिशें शुरु हुईं ताकि हिन्दुत्व सजीव रहे। इसके बाद ही अंग्रेजों ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप शुरु किया और शिक्षा के मामले में सबको समान भागीदार बनाया। लार्ड मैकाले की नीतियों के कारण शुद्रों को भी सत्ता का सच जानने का अवसर मिला। महात्मा ज्योतिराव फ़ुले, उनकी पत्नी सावित्री बाई फ़ुले, बाबा साहब डा भीम राव आम्बेदकर, बाबू जगजीवन राम जैसे शुद्र अपना प्रभाव साबित कर सके। बिहार में जनेऊ आंदोलन भी हुआ। त्रिवेणी संघ के रुप में शुद्रों ने विरोध का सार्थक पहल शुरु किया।
मूल बात यह है कि आज भारत में जिन शक्तियों का कब्जा है वे अंग्रेजों से अधिक क्रुर और पक्षपाती हैं। ये शक्तियां कभी दुर्गा का रुप धर तो कभी विष्णु के जैसा मनमोहिनी रुप धर आज भी महिषासुर के वंशजों का अधिकार छीनने मेम कामयाब हो रहे हैं। हालांकि इसके लिए अब केवल उन्हें आरोपित नहीं किया जा सकता है। इसमें कुछ शुद्र भी शामिल हैं जो शुद्रों के बूते सत्ता के शिखर तक पहूंचे, लेकिन आज उनके लिए शुद्रों का कोई महत्व नहीं है।
उन्हें लगता है कि शुद्रों के वोट पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जाहिर तौर पर यह स्थिति बदलनी होगी। दुर्गा के नाम पर पाखंड करने वालों को उनके हाल पर छोड़ हम सभी शुद्रों को अपने लिए नयी राह तलाशनी होगी। हां, यह राह उसी बिंदू से आरंभ होगी जहां आज ब्राह्म्णवाद खड़ा है या फ़िर हमारी राह बिल्कुल नयी होनी चाहिए, यह चिंतन और आपसी विचार विमर्श का विषय है।
समय की मांग है कि हम सभी शुद्र मिलकर ब्राह्म्णवाद के पाखंड का मुकाबला करें और देश का लाखों करोड़ रुपए लूटने के बावजूद देवता कहलाने वालों का वध कर अपनी धरती अपना राज का सपना सच करें। वध करने का मतलब उनकी हत्या करना नहीं है। लेकिन देश की आबादी में 80 फ़ीसदी से अधिक हिस्सेदारी रखने वाले शुद्र अगर जागरुक और एक हो गए तो ब्राह्मणवाद का वध निश्चित ही है।
खास बात यह कि इस लड़ाई में सभी धर्मों के शुद्रों को अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी, चाहे वे मुसलमान, ईसाई या फ़िर सिक्ख ही क्यों न हों। महिषासुर ब्राह्म्णवादियों की महज एक कल्पना है या फ़िर वाकई इसका कोई अस्तित्व था। यह एक शोध का विषय है। लेकिन महिषासुर जिनका प्रतिनिधित्व करता था वह समाज आज भी भारत में न केवल जीवित है बल्कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह समाज अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद उत्तरोत्तर विकास करता रहा है।
संभव है कि विकास की यह गति और तेज होती और यह भी संभव था कि आज का भारत बिल्कुल वैसा ही होता जैसा बाबा साहब डा भीम राव आंबेदकर ने संविधान के प्रस्तावना में प्रस्तुत किया है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। इसकी अनेक वजहें तलाशी जा सकती हैं। वजहों पर गहन विचार विमर्श करने की आवश्यकता है। लेकिन एक वजह अभी तक समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों के शोध एवं अध्ययन के परिसीमन से बाहर है। यह वजह सांस्कृतिक और सामाजिक है। असल में महिषासुर का कोई इतिहास मौजूद नहीं है। केवल दंतकथायें मौजूद हैं जो उसे इंसान तक नहीं मानते हैं।
इन दंतकथाओं में तो महिषासुर महज एक राक्षस था जिसने इंद्र और उसके सभी देवताओं को परास्त कर इंद्रलोक पर कब्जा कर लिया था और देवताओं को खदेड़ दिया था। कुछ दंत कथायें कहती हैं कि महिषासुर रंभ नामक एक असुर का का पुत्र था। ब्राह्म्णवादियों के अनुसार सुर-असुर संग्राम के दौरान रंभ की मौत हो गयी थी, जिसका बदला महिषासुर ने लिया था। उसके जन्म की कहानी अगर ब्राह्म्णवादियों के हिसाब से देखें तो वह एक भैंस से उत्पन्न हुआ था। इसे ब्राह्म्णवादी सोच की इंतहां ही कहिए कि वह कथित तौर पर शुद्र राजा जिसने देवलोक पर कब्जा कर लिया था, उसके बारे में यह कहता है।
दंतकथाओं में यह भी कहा गया है कि महिषी उसकी पत्नी थी। उसका पति होने के कारण ही उसे महिषासुर की संज्ञा दी गयी। कुछ दंत कथाओं में यह भी वर्णन है कि इंद्र ने रंभ की बेटी और महिषासुर की बहन रंभा को जबरन अप्सरा बना दिया था। कहने का मतलब यह है कि सभी ब्राह्म्णवादी अपने-अपने हिसाब से महिषासुर की व्याख्या करते रहे हैं। अब यदि महिषासुर के अस्तित्व के संबध में भारतीय ब्राह्म्णवादी सृजनकारों की मानें तो यह स्पष्ट है जिसे देवता राक्षस कहते थे वह भी उनकी ही तरह ब्रम्हा का बहुत बड़ा भक्त था।
ठीक वैसे ही जैसे रावण शंकर का। यह हास्यास्पद ही है कि बड़े देवताओं की भक्ति के बावजूद महिषासुर और रावण आदि को राक्षस ही कहा गया। जबकि अहिल्या जैसी तथाकथित पतिव्रता स्त्री की इज्जत लूटने वाले इंद्र को देवता की श्रेणी में रखा गया। वह रावण आज भी हर साल जलाया जाता है जिसने सीता का अपहरण करने के बावजूद उसके कोमल अंगों का दमन नहीं किया।
हालांकि उसने सीता के सामने प्रणय-निवेदन अवश्य किया था लेकिन उसने अपनी मर्यादा नहीं लांघी थी। जो लोग रावण की आलोचना करते हैं उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि रावण की बहन शुर्पनखा का क्या कसूर था। केवल यही न कि उसने लक्ष्मण को प्रोपोज किया था। फ़िर उसकी नाक काट उसकी सूरत बिगाड़ने वाला लक्ष्मण सजा का हकदार क्यों नहीं था।
लेखक:- नवल कुमार