मैसूर के टीपू सुलतान ने अँग्रेज फौजों के खिलाफ रॉकेटों का उपयोग किया था। 1772 और 1799 में श्रीरंगपट्टनम में दो लड़ाइयाँ हुईं। इनमें टीपू के सिपाहियों ने 6 से लेकर 12 पौंड तक के रॉकेट फिरंगियों पर फेंके।
ये रॉकेट लोहे की नलों के बने थे। पटाखों की तरह चाहे जहाँ वे न मुड़ जाएँ, इसके लिए 10 फुट का एक बाँस उनके साथ लगा रहता था। इन रॉकेटों की मार एक डेढ़ मील तक होती थी, जो उस समय काफी आश्चर्यजनक चीज थी।
ये रॉकेट ठीक निशाने पर तो नहीं बैठते थे, लेकिन चूँकि वे भारी संख्या में छोड़े जाते थे, इसलिए अँग्रेजों की फौज परेशान हो जाती थी। टीपू की फौज में 5000 सिपाही रॉकेट बंदूकची ही थे।
कर्नल बेली नामक एक अँग्रेज ने लिखा है, ‘इन रॉकेट वालों से हम इतने तंग आ गए कि बेखटके चलना-फिरना मुश्िकल हो गया। पहले नीली रोशनी चमकती, और फिर रॉकेटों की वर्षा होने लगती, और 20-30 फुट लंबे बाँसों के कारण लोग मरने व जख्मी होने लगते। घुड़सवार फौज के खिलाफ ये रॉकेट अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुए।
रॉकेटों का विकास टीपू के पिता हैदरअली ने किया था। लेकिन रॉकेट कोई एटम बम साबित नहीं हुए। श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई अँग्रेजों ने ही जीती, और टीपू को युद्ध दंड व राज्यभाग अर्पित करने पड़े। उसने अपने दो पुत्र भी अँग्रेजों को शरीर बंधक के रूप में दिए।
लेकिन टीपू के अस्त्रों ने रॉकेटों में यूरोप की रुचि पुनर्जागृत की। हालाँकि रॉकेट का उपयोग चीन से लेकर यूरोप तक में 13वीं शताब्दी से हो रहा था, लेकिन तोप और बंदूक के अचूक निशाने के सामने बेचारा रॉकेट फीका पड़ गया था। टीपू के युद्ध की खबर यूरोप भर में फैली, और विलियम काँग्रीव नामक अँग्रेज कर्नल ने चुपचाप खोज शुरू कर दी। कुछ ही वर्षों में अँग्रेजों ने बहुत अच्छे रॉकेट बना लिए। 1809 में उन्होंने 25,000 रॉकेटों का उपयोग करके पूरा कोपनहेगन नगर जला दिया। डेनझिग और बोलोन पर भी रॉकेट बरसे।
1812 में अमेरिका और इँग्लैंड के युद्ध में भी काँग्रीव रॉकेटों का उपयोग अँग्रेजों ने किया। अमेरिका के राष्ट्रगीत (स्टार स्पैंगल्ड बैनर) में रॉकेट की लाल लौ का जिक्र आता है, जिसका श्रेय हमें टीपू सुलतान को देना चाहिए।
काँग्रीव रॉकेट 25-60 पौंड के होते थे, और उनके पीछे 12-16 फुट की छड़ी होती थी। लाखों रॉकेट उन दिनों बनने लगे। इँग्लैंड से लेकर रूस तक हर फौज में रॉकेट तोपची नियुक्त किए जाने लगे।
लेकिन बारूद वाले इन रॉकेटों का फैशन एक शताब्दी भी नहीं चला। भारी तोपें और बारवाली राइफलें फिर बाजी मार ले गईं।
रॉकेटों का विचार सेनापतियों के दिमाग से निकल गया, लेकिन वह मरा नहीं। एक दंतकथा कहती है कि राष्ट्रपति लिंकन की रॉकेट विकास में बहुत रुचि थी और वॉशिंगटन के पास एक शस्त्र कारखाने में परीक्षण के समय वे मरते-मरते बचे।
रॉकेट इसलिए पिछड़ गया कि वह बारूद के आगे नहीं बढ़ा। लेकिन उन्हीं दिनों वैज्ञानिक हवाई जहाज की खोज की भूमिका बना रहे थे और रॉकेट को वे भूल नहीं सकते थे। कुछ वैज्ञानिकों ने यह भी सपना देखा कि रॉकेट द्वारा इंसान अंतरिक्ष की ओर कूच कर सकेगा।
ऐसे स्वप्न दृष्टाओं में सबसे महत्वपूर्ण नाम रूस के कोनस्टान्टिन सिझोलकोवस्की का है। 1895 और 1903 के बीच उसने गणित के फॉर्मूलों द्वारा पहली बार सिद्ध किया कि रॉकेट अंतरिक्ष में जा सकते हैं। 1903 में प्रकाशित एक पेपर में उसने कहा कि द्रव ऑक्सीजन और द्रव हाइड्रोजन को गर्म करके मिलाने से रॉकेट तेज चल सकेंगे।
इसी नुस्खे को वर्षों बाद अमेरिका ने अपने सेटर्न-5 में इस्तेमाल किया। इस प्रकार चंद्रमा पर उतरने वाले यात्रियों का टीपू सुलतान के साथ एक दूर का रिश्ता है।