विधानसभा चुनाव 2013 के चुनावों के बाद से जारी भारतीय जनता पार्टी की जीत का रथ आज आए रतलाम लोकसभा चुनाव के परिणामों ने रोक दिया। लोकसभा की 27 नगरीय निकायों की 80 प्रतिशत सीटों की जीत के साथ ही पंचायत चुनावों में भी भाजपा ने धामाकेदार जीत दर्ज की थी। भाजपा नेता प्रदेश को कांग्रेस मुक्त करने की बात लम्बे समय से कहते आए है और हर जीत के बाद पार्टी ने जीत का सारा श्रेय प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को दिया है।
श्रेय देना लाजमी है क्योंंकि हर चुनावों में पार्टी ने प्रत्याशी से ज्यादा मुख्यमंत्री का चेहरा सामने रख कर चुनाव लड़ा। प्रदेश में व्यापमं की व्यापकता के बाद यह पहला बड़ा चुनाव था जिसमें शिवराज की अग्नि परीक्षा थी। झाबुआ जो व्यापम से प्रभावित सबसे बड़ा क्षेत्र था वहीं पेटलावद में शासन प्रशासन की लापरवाही से हुई अग्नि ब्लास्ट दुर्घटना में मारे गए लोगों की चिता की राख अभी तक ठण्डी नहीं हो पाई है, ऐसे में भाजपा को करारी हार मिली। देश भर में आसमान छू रही महंगाई के असर को कम करने भाजपा ने अपने विकास पुरुष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि को भुनाने का प्रयास किया था। शिवराज ने चुनाव पूर्व और चुनाव के दौरान कुल 40 से ज्यादा सभाएं इस क्षेत्र में की थी, इतना ही नहीं शिवराज ने झाबुआ संसदीय सीट क्षेत्र में विकास की गंगा बहाने की बात कही थी। सारी सरकार के प्रयासों के बाद भी जो करारी हार का सामना करना पड़ा पार्टी को वह भाजपा के लिए आत्म मंथन का विषय है।
भाजपा की जीत का अश्वमेध रथ आज रुक ही गया। इस जीत के रथ पर ब्रेक रतलाम लोकसभा उप चुनाव के परिणामों ने लगा दिया। प्रदेश को कांगेस मुक्त करने का संकल्प लेकर चल रहे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को जबरदस्त झटका लगा है। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली में संपन्न भाजपा संसदीय दल की बैठक में शिवराज सिंह चौहान ने यह भरोसा केन्द्रीय नेतृत्व को दिलवाया था कि बिहार चुनाव परिणामों का कोई असर हमारे यहां होने वाले उपचुनावों में नहीं पड़ेगा। हम दोनों सीटों पर ही अपने संकल्प ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे के सहारे जीत दर्ज कराएंगे, लेकिन रतलाम लोकसभा चुनाव के परिणामों ने आत्म चिंतन के लिए मजबूर कर दिया है कि प्रदेश में उनके द्वारा बुना गया जादूई तिलीस्म अब टूटने लगा है।
रतलाम लोकसभा सीट पर भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हर चुनाव की तरह अपने विकास पुरुष की छवि को सामने रखकर चुनाव लड़ा था। शिवराज केबिनेट के सारे सहयोगी मंत्री भी शिवराज की प्रतिष्ठा को बचाने चुनाव अभियान पर लगे हुए थे। पूरी की पूरी सरकार रतलाम-झाबुआ लोकसभा चुनावों में लगी थी। इतना ही नहीं 100 से अधिक विधायक और भाजपा महिला मोर्चा, किसान मोर्चा, युवा मोर्चा, अनुसूचित जाति मोर्चा और अनुसूचित जनजाति मोर्चा के हजारों कार्यकर्ता इस अश्वमेध यज्ञ में आहुति डालने में लगे हुए थे। बहारी कार्यकताओं के इस मेले में स्थानीय कार्यकर्ता कहीं खो गया था। हर एक मतदाताओं पर पैनी नजर और पकड़ रखने वाले कार्यकर्ता की पूछ परख न होने की वजह से वह अपने घर से बाहर नहीं निकला और निकला भी तो बगैर उत्साह के। चुनाव कार्यकताओं के लिए महा उतसव से कम नहीं होता।
हर कार्यकर्ता इस महा उत्सव में अपना बेहतर परफार्मेंस दिखकर राजनीति के अगले पायदान में पहुंचने को आतुर रहता है, लेकिन उसे इस सुअवसर से भी वंचित रखा जाए तो परिणाम पार्टी के विरोध में होना लाजमी है। बिहार, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव परिणाम भी काफी हद तक बाहरी कार्यकर्ताओं की वजह से प्रभावित हुए थे। दिल्ली और बिहार के चुनावों में भाजपा को अपनी बाहरी कार्यकर्ता की वहज से काफी नुकसान झेलना पड़ा था। पार्टी ने इन सब बातों से सबक लेने की बजाय झाबुआ में भी यही प्रयोग किया और परिणाम सबके सामने है।
भाजपा ने अपने पूर्व सांसद दिलीप सिंह भूरिया के निधन के बाद उनकी पुत्री निर्मला भूरिया को अपना प्रत्याशी बनाया था, लेकिन पार्टी इस क्षेत्र में सहानुभूति वोट लेने पर ही सफल नहीं हो सकी। निर्मला भूरिया जो पेटलावद से विधायक है अपने क्षेत्र में ही वे लगभग 15000 वोटों से पिछड़ गई। कांग्रेस के प्रत्याशी कांतिलाल भूरिया इस लोकसभा के उपचुनाव में जीत दर्ज करा कर 2014 में लोकसभा चुनाव में मिली हार का हिसाब किताब पूर्ण करने में सफल हुए है। वे लोकसभा की सभी 8 सीटों में बढ़त हासिल करने में भी सफल रहे है।
29 नवंबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का 10 वर्षीय मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल पूर्ण होने जा रहा है और दिसंबर माह में पार्टी अपने शासन के बारह वर्षों का कार्यकाल भी पूर्ण करने जा रही है ऐसे में ये चुनाव परिणाम पार्टी के लिए परेशानी का सबस बनेगा। इस चुनाव परिणाम के तुरंत बाद भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार चौहान ने अपनी हार स्वीकारते हुए कमजोर संगठन की वजह से हार की वजह बताई है। ऐसे समय में मुझे फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा बिहार चुनाव के बाद दिए गए बयान की याद आ रही है कि ताली कप्तान को तो गाली भी कप्तान को। यह जुमला यहां भी सटीक बैठता है। आज तक पार्टी ने जीत की वजह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बताया है तो हार की जिम्मेदारी भी शिवराज को देनी चाहिए।
इस चुनाव परिणाम से एक बात तो यह स्पष्ट हो गई है कि यह हार केवल और केवल कार्यकर्ता की उपेक्षा का है। 2013 के विधानसभा चुनावों में अपने अथक मेहनत से भारतीय जनता पार्टी को तीसरी बार सत्ता की दहलीज में पहुंचाने वाला कार्यकर्ता जीत के बाद बड़ी उम्मीदें संजोये हुए था। जैसे ही पार्टी ने तीसरी बार प्रदेश की बागडोर संभाली सबसे पहले सरकार ने सारे निगम मंडल भंग कर दिए। यह कह कर निगम मंडल भंग किए गए थे कि जल्द ही इसमें नई राजनीतिक नियुक्तियां होंगी। लम्बे समय से अपनी मेहनत के पारिश्रमिक के तौर पर निगम मंडल और अन्य राजनीतिक नियुक्तियों पर आस लगाए कार्यकर्ता पार्टी मुख्यालय के चक्कर लगाता मिला। अपने समर्थकों के साथ पार्टी मुख्यालय पहुंचे कार्यकर्ता को आश्वासन तो दूर हमेशा पार्टी पदाधिकारियों की लताड़ झेलनी पड़ी।
हमेशा संगठन के नए-नए कार्य सौंपने के बाद भी पार्टी नेताओं ने कभी भी अपने जमीनी कार्यकर्ता को दुलारने का कार्य नहीं किया। बीते दो वर्षों से रिक्त पड़े निगम मंडल के 100 से भी ज्यादा स्थानों पर कार्यकर्ता अपना कार्यकाल पूर्ण करता होता और दूसरे कार्यकर्ता के लिए नए अवसर छोड़ता। भाजपा प्रदेश कार्यालय के चक्कर लगागर थक चुके कार्यकर्ताओं ने नेताओं के व्यवहार की वजह से अपने आपको दूर करना प्रारंभ कर दिया है, जिसके दुष्परिणाम अब धीरे-धीरे सामने आने लगे है। सत्ता और संगठन दोनों पर ही अपनी गहरी पकड़ बनाने के प्रयास में शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश में द्वितीय पंक्ति के नेताओं को कोई अवसर नहीं दिया।
इतना ही नहीं भाजपा प्रदेशाध्यक्ष पद पर अपने चहेते नंदकुमार चौहान को बैठाकर अपरोक्ष रूप से अध्यक्ष पद पर अपना नियंत्रण कर लिया। प्रदेश के संगठन महामंत्री और मुख्यमंत्री के बीच पुराने आत्मीय संबंधों की वजह से भी पार्टी पर मुख्यमंत्री का पूरा नियंत्रण था। व्यापम मामले के बाद से ही प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर विपक्ष इस्तीफे की मांग कर रहा था, लेकिन इस हार के बाद यह मांग जोर पकड़ लेगी। शिवराज सिंह चौहान का कद राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने में भी थोड़ा कम होगा। प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरणों से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
लेखक – कृष्णमोहन झा
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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