बैतूल- श्रमिक आदिवासी संगठन की याचिका (15115/2011) पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री टी. एस. ठाकुर एवं आर. भानुमति तथा उदय उमेश ललित की खंडपीठ ने म. प्र. सरकार से कोर्ट के 13 अगस्त 2012 के एक आदेश के तहत – बैतूल, हरदा, खंडवा जिले में गठित ‘शिकायत निवारण प्राधिकरण” के कामकाज पर एक माह में स्टेटस रिपोर्ट पेश करने को कहा|
इसी मामले में 29 मार्च को हुई सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने कोर्ट को बताया कि हरदा जिले में तो आज-तक इस प्राधिकरण का गठन नहीं हुआ; और जिन दो जिलों – बैतूल और खंडवा में गठन हुआ है, वहां सरकार के असहयोग के चलते वो ठीक से काम नहीं कर पा रहे है| संगठन के अनुराग मोदी ने बताया कि इस प्राधिकरण का गठन आधिकारियों व्दारा अपने अधिकारों का दरुपयोग कर आम लोगों और विशेषकर आदिवासीयों की प्रताड़ना पर अंकुश लगाने के लिए किया गया था; इस प्रयोग के इन तीन जिलों में सफलता के आधार प्र इसे पूरे देश में लागू किया जा सकने की जो संभावना है सरकार उसे खत्म करना चाहती है|
भूषण ने कोर्ट को बताया कि ‘शिकायत निवारण प्राधिकरण’ आदिवासीयों पर अत्याचार रोकने के अपने उद्देश्य में विफल रहा है; आज भी इन जिलों में आदिवासीयों के घर और बस्ती अधिकारीयों व्दारा जला दी और जमीनदोस्त कर दी जाती है; और आज भी उन्हें झूठे केस में फंसाया जाता है | और ना ही इन जिलों में आजतक कोर्ट के आदेश के तहत गिरफ्तारी के बाद किसी भी आदिवासी समुदाय के व्यक्ति को प्राधिकरण ने मुफ्त कानूनी सलाह उपलब्ध कराई| प्राधिकरण की नियमित बैठके नहीं होती है; जिसके चलते दो-दो साल तक शिकायतों पर आदेश पारित नहीं होते| उदाहरण के लिए अकेले बैतूल प्राधिकरण में अकेले श्रमिक आदिवासी संगठन की आधा दर्जन शिकायत लंबित है| शिकायतों पर आजतक सुनवाई नहीं हुई|
उल्लेखनीय है कि हरदा और बैतूल और खंडवा जिले में कार्यरत श्रमिक आदिवासी संगठन ने एक जनहित याचिका के तहत 2004 में जबलपुर हाईकोर्ट और फिर 2011 में सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बात रखी थी कि जो आदिवासी और उनके साथ काम करने वाले कार्यकर्ता जंगल पर अपना हक़ मांगते है और वन विभाग और पुलिस के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आवाज उठाते है, उन्हें वन विभाग और पुलिस छूटे मामलों में फंसाती है; ऐसे में आदिवासीयों के लिए कोर्ट में आपराधिक मामले में पेशी आन-जान बहुत खर्चीला होता है| इसमें आदिवासीयों की शिकायत पर एफ आई आर दर्ज नहीं करने की बात भी थी |
संगठन की इस दलील को मानते हुए न्यायालय ने संगठन के कर्यछेत्र के जिलों हरदा और बैतूल और खंडवा में एक शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन कर उस पर निम्न जवाबदारी डाली-
प्राधिकरण की ज़िम्मेदारियां मोटे तौर पर निम्नलिखित होंगी-
1. उपरोक्त ज़िलों में झूठी शिकायत या मामला दर्ज करने या एफआईआर दर्ज करने से इंकार करने या किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी (पुलिस समेत) द्वारा अपने अधिकार का दुरुपयोग करने की सूचना प्राप्त करना। फिलहाल के लिए, सूचना मिलने के एक वर्ष पहले तक घटी घटनाओं की सूचना पर विचार किया जाएगा !
2. ऐसी कोई भी सूचना प्राप्त होने पर उसकी जांच की जाएगी और सही पाए जाने पर प्राधिकरण ज़िला न्यायाधीश,राज्य विधिक सेवा और मुख्य सचिव को अपनी सिफारिशों के साथ रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे जिसमें अनुशासनात्मक कार्रवाई सम्बंधी सिफारिशें भी शामिल होंगी। प्राधिकरण अपनी सिफारिशों पर अमल का फॉलो-अप करेगा।
3. सूचना की सत्यता पता करने के लिए किसी भी गैर सरकारी संगठन या रिटायर्ड अधिकारी की मदद लेना। इसके लिए प्राधिकरण गैर सरकारी संगठन अथवा रिटायर्ड अधिकारी को उनकी सेवाओं के लिए उपयुक्त मानदेय देने की सिफारिश करेगा !
4. उपरोक्त ज़िम्मेदारियों से जुड़ा कोई अन्य कार्य हाथ में लेना।
इतना ही नहीं
यदि उपरोक्त तीन ज़िलों का कोई भी आदिवासी गिरफ्तार किया जाता है, तो गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी द्वारा इसकी लिखित सूचना प्राधिकरण के अध्यक्ष तथा ज़िला विधिक सेवा के सचिव को गिरफ्तारी के 24 घंटों के अंदर दी जाएगी। ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण का सचिव ऐसे किसी भी व्यक्ति को मुफ्त कानूनी सहायता देने को बाध्य होगा।
@अनुराग मोदी