लखनऊ का भूगोल बदला। नवाबी तबियत बदली। और बदली नई पीढ़ी की तरबियत। बाकी इतिहास बदलने को सियासतदां काफी हैं। तसल्ली इत्ती सी कि कबाब औ शवाब के साथ आज भी बिरजू महराज के पांवों में बंधे घुंघरूओं का अदब से आदाब बजा लाना जारी है। औ मियां एक और खुशी ने पिछले दिनों लखनऊ के आंगन में आहिस्ता से अपना पांव धरा। ये और बात है कि मिलावटी लखनउवों ने उसका इस्तकबाल नहीं किया। जी हां! लखनऊ के लख्तेजिगर जानेआलम नवाब वाजिद अली शाह की पर-पर पोती मंजि़लात बेगम कोलकात से लखनऊ तशरीफ लाईं थीं। लखनऊ की बेटी खाने-पकाने के मेले में अपना हुनर दिखाने आई थी।
मंजि़लात बेगम को उनके घरवाले और करीबी दोस्त मांज़ी जैसे छोटे नाम से पुकारते हैं। वे नवाब वाजिद अली शाह के बड़े साहबजादे ब्रिजिस क़दर के पोते मो0 कोकब की बेटी हैं। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से कानून की तालीमयाफ्ता हैं, कोलकाता में अपने खाविंद और दो बच्चों के साथ रहती हैं। वे शाही दस्तरख्वान पर चुने जा चुके लज़ीज खानों को आम आदमी की रसोइ्र तक पहुंचाने के काम को मेलों-हाट और ‘फूड फन’ के जरिये सरअंजाम दे रही हैं। इसी सिलसिले में लखनऊ आईं बेगम साहिबा अपनी पर-पर दादी बेगम हजरतमहल के नक्शेकदम पर चलते हुए लज्जतदार शाही खाना पकाने का हुनर दिखा गईं। बिरसे में मिली पाक कला में बिरयानी और रसेला (मीठा गोश्त) के लिए कोलकाता में उन्हें खासी शोहरत हासिल है। उनका कहना है, ‘अवधी दस्तरख्वान पूरी दुनिया में मशहूर है, लेकिन लोगों में लखनवी खाने की निस्बत भ्रम है कि वह बेहद गरिष्ठ होता है। जबकि ऐसा नहीं है, रूमाली रोटी, कोरमा, चपाती-सालन, बिरयानी, कबाब अपनी नफासत के साथ अपने चुनिंदा मसालों और पकाने की खूबियों की वजह से जल्दी पचते हैं।’
वहीं हैदराबादी बिरयानी काफी गरिष्ठ होती है। लखनऊ और कोलकाता की बिरयानी के फर्क के पीछे एक तकलीफदेह किस्सा बयान करते हुए कह गयीं, ‘बेशक कोलकाता की बिरयानी लखनऊ की नकल है, लेकिन उसमें आलू पड़ता है। दरअसल जब नवाब वाजिद अली शाह यानी मेरे पर-पर दादा हुजूर को देश निकाला देकर अवध से कोलकाता लाया गया और उन्हें मटियाबुर्ज में रखा गया, तब अंग्रेज हुक्मरानों ने उनके लिये हर महीने खर्च की एक निश्चित रकम तय कर दी। पेंशन में मिलनेवाली रकम इतनी कम थी कि उससे मय नौकर-चाकर के गुजारा बमुश्किल हो पाता था। इसलिए खानसामा ने महंगे गोश्त की जगह बिरयानी में आलू डालना शुरू किया। उस दौर में आलू से लोगों की नई-नई पहचान हुई थी और उसे सब्जी में इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह नवाब साहब की इज्जत बरकरार रही और बिरयानी की लज्जत भी।’
मंजिलात का कहना था, ‘जो तरकीब और तरतीब लखनऊ में खाना पकाने की रही है उसमें धीमी आंच को तरजीह दी जाती है। बिरयानी, कबाब, गलावटी कबाब, नाहरी, या सादे चावल ही क्यों न हो, चूल्हे की धीमी आंच पर बेहद स्वादिष्ट पकते हैं।’ उन्होंने खाना पकाना अपनी कमसिन उम्र में ही अपनी दादी व मां से सीखा था। विरासत में मिले हुनर को उन्होंने अपनी बहू के हाथों का कमाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
नवाब वाजिद अली शाह के साथ जब अयाश, स्त्री प्रेमी, नचनिया जैसे आरोप जोड़े जाते हैं तो उन्हें बेहद बुरा लगता है। पर-पर दादा हुजूर कला और संस्कृति प्रेमी थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत व नृत्य को खासा बढ़ावा और महत्व दिया। वे अवध के और नवाबों से कहीं अधिक उदार व धर्म निरपेक्ष थे।
उनको बदनाम करने की गरज से अंग्रेजों ने उनके बरखिलाफ तमाम अफवाहें फैलाई थीं, मगर आज लोग असलियत से वाकिफ हैं। मेरे दादा ने नवाब साहब के अवाम के तईं फिक्रमंद होने का एक सच्चा किस्सा मुझे बचपन में सुनाया था, ‘एक बार दसवीं मोहर्रम और होली एक ही दिन पड़ गये। नवाब साहब ताजिया दफनाने शहर में निकले तो उन्होंने देखा लखनऊ के वाशिन्दे होली का रंग न उड़ाकर ताजियादारी के शोक में डूबे हैं। उन्होंने हालात के बारे में पता लगाया और जब उन्हें पता लगा कि होली क्यों नहीं खेली जा रही है, तो वे ताजिया दफनाकर अपनी अवाम के बीच लौटे और सबके साथ होली खेली। उनका अपनी अवाम से लगाव और लोगों को उनसे मोहब्बत की मिसाल में आज भी लखनऊ मगन है।
‘मगर बेटी बचाओं का नारा-जयकारा लगाने वालों ने लखनऊ की बेटी को सर-आंखों पे बिठाना तो दूर… भर नजर देखना भी गंवारा नहीं किया।’ ये रवायत तो लखनऊ की कभी नहीं थी। गोया लखनऊ की तहजीब गर्दिश में है! ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है, अमां मियां ये लखनऊ हैगा…!
लेखक :- -राम प्रकाश वरमा