“जीवन एक ‘प्रवाह’ है, थम जाना मृत्यु है । जो आपको इस सृष्टि ने दिया है उसे वापस इस सृष्टि को लौटाने से ही आप आगे बढ़ सकते हैं या विकास की सीढ़ी पर ऊपर उठ सकते हैं, ये न भूलें की दूषित से दूषित जल प्रवाहित होने से स्वच्छ हो जाता है और विशुद्ध जल भी प्रवाहहीन होने पर दूषित हो जाता है। इसलिए, जो मिला है उसे आगे बाँटे…“
योग ही प्रकृति है तथा प्रकृति ही योग है। यदि आप प्रकृति के विरुद्ध जाएँगे तो वह भी आपके विरुद्ध होगी फिर भला दोनों के बीच तारतम्य या सामंजस्य कैसे होगा ?
उदाहरण के तौर पर, आपने नवजात शिशुओं को देखा होगा कि कैसे श्वास लेने पर उनका पेट फैलता है और श्वास छोड़ने पर सिकुड़ता है किन्तु जब हम बड़े हो जाते हैं तो हमें सिखाया जाता है कि सीना बाहर और पेट अंदर अर्थात जब हम श्वास भरते हैं तो पेट सिकुड़ता है और श्वास छोड़ने पर फैलता है। परिणामस्वरूप, प्राकृतिक रूप से साँस न लेने के कारण हमारे शरीर में असंतुलन आ जाता है।
कर्म ही सृष्टि का आधार है तथा कर्म विधान ही इसे नियंत्रित करता है, आप जो भी देंगे वह कई गुना होकर आपके पास लौट आएगा। योग के प्रारम्भ में आप स्वयं को जानने का प्रयास करते हैं। आपके स्वयं के लक्षण प्रकट होने लगते हैं और जब आप योग में आगे बढ़ने लगते हैं तो आसपास के लोगों के प्रति संवेदनशील होने लगते हैं।
यदि आप किसी पर पत्थर फेँकते हैं,किसी के साथ छल करते हैं, किसी पर हँसते हैं तो यकीन कीजिए आपके साथ भी ऐसा ही होगा, उससे बचने का कोई विकल्प नहीं है। जब आप किसी को चोट पहुँचाते हैं तो एक प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा इस सृष्टि में उन्मुक्त हो जाती हैं, बदले में इस ऊर्जा की एक विपरीत प्रतिक्रिया हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप आपको कोई चोट पहुँचाता है या पीड़ा देता है। जिसके साथ आपने गलत किया है यदि वह एक साधारण आत्मा है तो आपके दुष्कर्म का विपरीत प्रभाव आप पर थोड़ा कम होगा किन्तु वह मनुष्य यदि कोई पवित्र आत्मा है तो आपके द्वारा किये गए गलत कर्म का परिणाम आप पर कई हज़ार गुना होगा, जो बड़ा कष्टदायक होगा।
प्रत्येक सुख या भोग के रूप में आप इस सृष्टि से कुछ लेते है, भोग गलत नहीं है किन्तु उसके बदले में आपको भी कुछ देना पड़ता है। जो शक्ति इस सृष्टि का सञ्चालन कर रही है वह एक सुपर-कंप्यूटर की तरह है। उसके पास हर किसी का और हर चीज़ का लेखा – जोखा है। अपनी जरूरत से अधिक लेते ही हमें वह वापस चुकाना पड़ता है। यदि आपको किसी वस्तु की आवश्यकता है तो उसको आगे बाटें। यदि आप सौ लोगों का हित करते हैं उसका हज़ार गुना अच्छा आपके साथ होगा।
यदि आप भूखे – गरीब लोगों को भोजन खिलाते हैं तो आपका बैंक बैलेंस कभी कम नहीं होगा, अगर आप बीमारों की सहायता करते हैं तो स्वयं आप कभी बीमार नहीं होंगे, यदि आप लोगों को शिक्षा देते हैं तो आपके पास विद्या की कभी कमी नहीं होगी। आप जो देंगे वह कई गुना आपको प्राप्त होगा। यही नियम हमारे जीवन को पूरी तरह से नियंत्रित करते हैं, यही विधि का विधान है।
योगी अश्विनी