जैसी की आशंका पहले से व्यक्त की जा रही थी कि चीन ने आखिरकार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता हासिल करने के भारतीय प्रयासों को पलीता लगा ही दिया। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के अमेरिका प्रवास के दौरान जब वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का खुला समर्थन करने की घोषणा की थी तभी चीन सरकार ने भारत को एनएसजी का सदस्य बनाए जाने के प्रति अपना विरोध व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं किया था। चीन ने पाकिस्तान को भी नएनएसजी की सदस्यता देने की जो शर्त रखी थी उसके बाद तो यह तय ही लगने लगा था कि अब भारत को एनएसजी की सदस्यता हासिल करने के लिए अभी और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। फिर भी चीन को मनाने की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारपूर कोशिश की और भारत को एनएसजी सदस्यता के लिए अपना समर्थन प्रदान करने की अपील भी कि परंतु चीन से तो हमें निराशा ही हाथ लगना थी।
उसने अपने रूख में तनिक भी परिवर्तन न करते हुए सिओल में आयोजित एनएसजी की बैठक में ऐसा खेल खेला कि एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत के आवेदन पर फैसला अगली बैठक तक के लिए टाल दिया गया। चीन के अलावा 6 अन्य देशों ने भी समूह की सदस्यता के लिए भारत के आवेदन का विरोध किया परंतु भारत विरोधी 6 देशों की अगुआई चीन ने ही की। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शंघाई सहयोग संगठन की ताशकंद में आयोजित बैठक में भाग लेने के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात के दौरान यह अपील की थी कि वह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में प्रवेश के लिए भारत के आवेदन पर सकारात्मक रूख अपनाए। परन्तु प्रधानमंत्री मोदी की यह अपील बेअसर रही और दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में आयोजित बैठक में चीन ने अपना विरोध व्यक्त करने से कोई संकोच नहीं किया। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने बाद में बताया कि एनएसजी में भारत को शामिल करने के मुद्दे पर एक खास देश की ओर से प्रक्रियात्मक बाधाओं की चर्चा जोरशोर से की गई। यह समझना कठिन नहीं है कि विकास स्वरूप जिस खास देश का जिक्र कर रहे थे वह खास देश चीन ही था। यह भी कम अचरज वाली बात नहीं है कि एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का विरोध करने वाले देशों में स्विटरजरलैण्ड भी शामिल था जबकि उसने कुछ ही दिनों पूर्व प्रधानमंत्री मोदी की स्विस यात्रा के दौरान उन्हें यह भरोसा दिलाया था कि व एनएसजी की सदस्यता भारत को भी दिए जाने का पक्षधर है। इसी तरह ब्राजील द्वारा भी भारत का विरोध किया जाना भारत के लिए कम अचरज की बात नहीं है क्योंकि भारत ब्रिक्स देशों में शामिल है जिसके सदस्य देश ब्राजील, रूस, भारत, द. अफ्रीका और चीन है। गौरतलब है कि भारत ब्रिक्स बैंक का संस्थापक अध्यक्ष भी है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी ने सिओल में एनएसजी की बैठक की समाप्ति के कुछ ही घण्टों के बाद यह उम्मीद जताई है कि भारत को इस समूह की सदस्यता दिलाने के लिए नए सिरे से विचार हो सकता है और इसी साल के अन्त तक भारत को समूह में शामिल करने का कोई नया रास्ता निकल सकता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या अगले कुछ महीनों के अंदर चीन के रूख में कुछ सकारात्क परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। फिलहाल तो इस प्रश्न का उत्तर ना में ही निकल सकता है। चीन इस शर्त पर भारत को एनएसजी की सदस्यता दिलाने के लिए राजी हो सकता है कि पाकिस्तान को भी इसमें शामिल किया जाए लेकिन पाकिस्तान के ट्रेक रिकार्ड को देखते हुए यह संभव प्रतीत नहीं होता। एनएसजी के कुछ सदस्य पाकिस्तान को समूह की सदस्यता प्रदान किए जाने के विरोधी है। ऐसी स्थिति में यही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत को समूह की सदस्यता हासिल करने के लिए नए सिरे से प्रयास करने होंगे और अब यह निश्चित तौर पर कहना मुश्किल है कि उसे अपने इन प्रयासों में कब सफलता मिलेगी।
एनएसजी में भारत के प्रवेश को रोकने के लिए चीन द्वारा यह तर्क भी पेश किया जा रहा है कि भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर अब तक हस्ताक्षर नहीं किए है। एनएसजी की बैठक में यह बात भी उभर कर सामने आ गई कि भारत को इस मामले में कोई रियायत नहीं दी जा सकती लेकिन बैठक के बाद जारी एनएसजी के इस बयान से भारत अभी भी समूह की सदस्यता के प्रति आशान्वित हो सकता है कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह उन देशों की भागीदारी पर विचार जारी रखेगा जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए है। भारत ने एनएसजी में प्रवेश के लिए परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर की पूर्व शर्त वाले तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा है कि 2008 में खुद एनएसजी ने इस मुद्दे का समाधान कर दिया था और परमाणु अप्रसार संधि तथा परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के प्रति भारत की प्रतिबद्धता में कोई विरोधाभास नहीं हैं।
भारत को इब इस समूह की सदस्यता हासिल करने के लिए नए सिरे से प्रयास करने होंगे और इसके साथ ही स्विटजरलैण्ड को अपने पक्ष में करने के प्रयास करने होंगे। सियोल में संपन्न बैठक में भारत का विरोध करने वाले देशों में स्विटजरलैण्ड आश्चर्य जनक तरीके से शामिल हो गया था जबकि मोदी की स्विस यात्रा के दौरान उसने इस मुद्दे पर भारत का समर्थन करने का आश्वासन दिया था। 2017 से 2018 तक एनएसजी की कमान चूकि स्टिजरलैण्ड के हाथों में रहने वाली है इसलिए अब स्विटजरलैण्ड को अपने पक्ष में करना भी भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है। भारत ने एनएसजी की सदस्यता हासिल करने के लिए हमेशा यह दलील पेश की है कि परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण इस्तेमाल करने के लिए वह हमेशा से प्रतिबद्ध रहा है। एनएसजी की सदस्यता हासिल हो जाने से उसे यह लाभ होगा कि वह परमाणु प्रौद्योगिकी और इससे संबंधित अन्य साजों समान के वैश्विक व्यापार में खुलकर हिस्सेदारी कर सकेगा।
एनएसजी में प्रवेश के लिए भारत ने इस बार जितने सक्रिय कूटनीतिक प्रयास किए उसे देखते हुए यह उम्मीद की जा रही थी कि अब एनएसजी में भारत के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त हो चुका है और भारत इसका 48वां सदस्य देश बन जाएगा परन्तु ऐन मौके पर चीन सहित कुछ छोटे देशों ने ही अड़ंगा लगाकर भारत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। देश के विरोधी दलों को अब मोदी सरकार की आलोचना करने का नया बहाना हाथ लग गया है परन्तु आखिर इस बात के लिए तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सराहना की जानी चाहिए कि उनके हाथों में केन्द्र सरकार की कमान आने के बाद से अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत की साख बढ़ी हैं। एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी को जिस तरह अमेरिका, ब्रिटेन तथा फ्रांस जैसे बड़े देशों ने अपना खुला समर्थन प्रदान किया उससे यह संदेश तो मिलता है कि विश्व के बड़े देश भी अब भारत की अहमियत को स्वीकार कर रहे हैं। देश के विरोधी दल आखिर इस हकीकत को कैसे नजर अंदाज कर सकते हैं कि जिस पड़ोसी देश चीन ने एनएसजी में हमारे प्र्रवेश के रास्ते में व्यवधान पैदा किया है उसका रवैया अचानक ही नहीं बदला है। चीन तो उस समय भी पूर्वाग्रही रवैया अख्तियार किया हुआ था जब केन्द्र में संप्रग सरकार थी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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