भारत में उदारवादी अर्थव्यवस्था के चलन में आने के बाद देश की सूरत बदली है लोगों का जीवन स्तर भी सुधरा है और कृषि क्षेत्र में भी विकास की किरण दिखाई दे रही है। औद्योगिक उत्पादन, बाजार और विज्ञान के क्षेत्र में विकास के नये द्वार खुले हैं।
विश्व बाजार से जुडऩे के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने अच्छी खासी तरक्की की है और इसका प्रभाव देश के सामाजिक आर्थिक परिदृश्य में देखने को बखूबी मिल रहा है।
आजादी के 69 वर्षों बाद तक देश से गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और अन्य सामाजिक विषमताओं का कायम रहना हमारी शासन प्रणाली और तंत्र की जड़ता को यथावत होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है।
असमान विकास का खामियाजा हमारे शहर भुगत रहे हैं जहां बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं के बगल में झुगिगयों का जमघट भी लगा हुआ है। यह हमारे देश की गरीबी का मानक बने हुए हैं।
शिक्षा के व्यवसायीकरण के बाद देश में शिक्षा के स्तर में जो गिरावट दर्ज की गई हैं उससे उबरना होगा। आज की तारीख में भले ही डिग्री और डिप्लोमा हासिल करना आसान हो गया हो लेकिन ये डिग्रियां नौकरी दिलाने में सक्षम नहीं हैं।
रोजगार में हर साल गिरावट दर्ज की जा रही है जो बेरोजगारों के हर साल 10-15 प्रतिशत तक बढ़ोतरी का कारण बन रहा है। यह भारत सरकार का सरकारी आंकड़ा है जो वार्षिक रपटों में लिखित विभिन्न मंत्रालयों में मौजूद है।
आजादी के बाद के 40 साल और उदारीकरण के 25 वर्ष दोनों का तुलनात्मक अध्ययन यह बताता है कि किसानों की हालत में उदारीकरण के कारण वह सुधार या परिवर्तन नहीं आए हैं
जो महानगरों और साइबर शहरों में देखा जाता है। महाजनों से कर्ज लेकर खेती करना और फसल चौपट होने पर आत्महत्या करना यह देश के किसानों का मर्म हो गया है। सभी सरकारों के साथ किसानों के हित एक समान ही दिखते हैं।
इसलिए देश के किसानों के लिए उदारीकरण की बयार अभी भी ठंडी ही है क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था पर असरकारक नहीं हो पाया है।
जहां तक भारतीय मीडिया खासकर टीवी मीडिया की बात की जाए तो यह अपनी साख और गरिमा दोनों गंवा चुकी है। अखबारों में भी कमोबेश यही स्थिति है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और निडर पत्रकारिता का जमाना बहुत पहले लद चुका है। मीडिया के विश£ेषणों और खबरों में व्यवसायिकता का वर्चस्व है।
इससे भी बढक़र पत्रकारों के नाम पर कुछ लोगों द्वारा घटिया स्तर की पत्रकारिता करने के पीछे भी व्यवसायिकता को दोषी ठहराया जा रहा है। सबसे खतरनाक स्थिति पत्रकार-कॉरपोरेट-राजनीतिज्ञों के गठजोड़ ने मीडिया शब्द को ही घृणा का पात्र बना दिया है।
इस गठजोड़ में कुछ बड़े नाम वाले पत्रकारों ने देश की पत्रकारिता की लुटिया डूबोने का कार्य किया है और कर भी रहे हैं। जब पत्रकार मीडिया संस्थान का मालिक बन जाएगा तो वह पत्रकार रह ही नहीं जाता वह तो मुनाफा और पेड न्यूज का उद्योगपति बन जाता है यही आज की तारीख में हो रहा है।
यही कारण है कि खबरों से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। सोशल मीडिया के आने के बाद यह पता लगने लगा है कि टीवी पर आने वाली खबरों को लेकर लोगों की क्या प्रतिक्रियाएं हैं? इसी प्रतिक्रिया ने देश को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि जिस मुगालते में मीडिया वाले रहते थे वह घड़ा सोशल मीडिया ने फोड़ डाला है।
जहां तक सामाजिक स्तर पर बदलाव का सवाल है हमारी सभ्यता में रचे बसे मानवीय मूल्यों के कारण देश की एकता और अनेकता में कोई खलल नहीं पडऩे वाला यह तथ्य है जिसे विदेशी भी अच्छी तरह समझते हैं।
कुछ मामलों के सामने आने के बाद दलितों और अल्पसंख्यकों के मन में थोड़ा दुराव का प्रभाव देखने को मिल रहा है लेकिन यह हमारे सामाजिक संरचना का ही असर है कि वृहद स्तर पर यहां लंबे समय तक कुछ भी नहीं टिक पाता सिवाय भाईचारा और प्रेम के।
कुछ मामलों में पक्षपात और नकारे जाने का प्रभाव देखा जा सकता है इसके कारण सामाजिक आर्थिक संरचना के बिगडऩे का डर बना हुआ है। अब सरकार को यह तय करना होगा कि भारत के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार मिले और वह भी बिना किसी धार्मिक या अन्य भेदभावों को दरकिनार करते हुए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आए तो उन्होंने चुनाव में जनता से विकास, विकास और केवल विकास को ही मुद्दा बनाकर जनता से वोट लिये थे। इसके अलावा भ्रष्टाचार मुक्त शासन प्रशासन पहली प्राथमिकता थी। सरकार में आने के बाद मोदी जी से लोगों की अपेक्षाएं और ज्याद बढ़ गई हैं।
लोगों को अच्छे दिन का बेसब्री से इंतजार था। देश का विकास हो रहा है, अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है लेकिन यह विकास अभी रोजगार विहीन है इससे युवाओं को अपने सपने अधूरे दिख रहे हैं। प्रशासन के स्तर पर अभी भ्रष्टाचार दीमक की तरह खाए जा रहा है।
पारदर्शिता का अभाव वैसे ही है जैसे पूर्व की सरकारों में था ऐसे में यहां की नौकरशाही के रवैये में परिवर्तन की अपेक्षा रखना थोड़ी जल्दबाजी होगी।
नौकरशाही आज भी स्वघोषित और स्वपोषित नजरिए से हठी बनी हुई है। भ्रष्टाचार अपने स्तर पर है, जनसेवा और जनहित शब्द इनके लिए कोई मायने नहीं रखते। पुलिस थाने से लेकर कोर्ट तक जनता ठगी जा रही है। कार्यालयों में दलालों का राज आज भी चल रहा है।
न्यायालयों में वकीलों और बेंच के बीच मिलीभगत से न्याय महंगा और कोसों दूर है। ऐसे में आम नागरिक के लिए कोई दूसरा रास्ता दिख नहीं रहा है। यह अंतर इसलिए भी ज्यादा दिखाई दे रहा है क्योंकि जो सरकार सत्ता में है उसने हवाई वादे किए थे लेकिन जमीनी स्तर पर वह सुधार देखने को नहीं मिल रहा है।
पटवारी से लेकर ऊपर तक के बड़े अफसर एक ही कार्य में लिप्त हैं ऐसे में आम नागरिक को उसके अधिकार दिलाने के लिए कुछ संवैधानिक कदम उठाने ही पड़ेंगे ताकि जनता को निश्चित अवधि में उसके सभी कार्य संपन्न करने की जिम्मेदारी अधिकारियों की अनिवार्य सेवा हो सके।
जहां तक नागरिकों के मौलिक अधिकार का सवाल है उसके शिकायत पत्रों पर तो त्वरित कार्रवाई हो ही नहीं पाती। सरकारी तंत्र में लोगों की शिकायतें सुनने वाला विभाग ही बहरा है। सरकारी नियमों और प्रक्रियाओं के तहत गुजरते गुजरते वह शिकायत पता नहीं कहां गायब हो जाती है किसी नागरिक को पता भी नहीं चल पाता।
हालांकि हाल ही में प्रधानमंत्री ने सभी शिकायतों का निपटारा हर हाल में 60 दिनों में करने का आदेश दिया था लेकिन इसका क्रियान्वयन कितना हुआ है इसे कौन मोनिटर करेगा? यही सवाल आकर हर जगह खड़ा हो जाता है क्योंकि हमारे तंत्र का मुखौटा ही रोगों का शिकार है तो उसके अन्य अंगों के बारे में क्या कहा जाए?
सरकार के मंत्रियों के बोल भी अटपटे हो जाते हैं इससे लोगों में गलत संदेश जाता है कि प्रधानमंत्री का मंत्रियों पर कोई कंट्रोल नहीं है।
देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्रशासनिक सुधार के लिए तीन महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे तब जाकर आम नागरिक को अपने अधिकारों की लड़ाई लडऩे के लिए कोर्ट का चक्कर नहीं काटना पड़ेगा?
पहला संविधान संशोधन करके धारा 311 को खत्म किया जाए या इसमें यह सुधार किया जाए कि हरेक सरकारी कर्मी की वार्षिक सीआर रिपोर्ट बनाने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन किया जाए जो उनके साल भर के कार्यों और जनता से मिले फीडबैक के आधार पर तैयार करेगी और उसके बाद उनकी प्रोन्नति या अवनति या फिर बर्खास्तगी की सिफारिश करेगी। इस तरह के प्रयोग होने पर प्रशासनिक स्तर पर कुछ सुधार की गुंजाइश दिखती है।
दूसरे सुधार के तहत अधिकारियों की उपेक्षा से आम जन को बचाने के लिए जरूरी है कि उस अधिकारी को जनता के सभी मौलिक अधिकारों को पूरा करने की जिम्मेदारी दी जाए और यह कार्य उनकी कार्य बाध्यता में शामिल हो ताकि लोगों को कोर्ट और ट्रिब्यूनल का चक्कर नहीं लगाना पड़े।
तीसरे बड़े सुधार के तहत जजों को न्याय प्रदान के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। ऐसा होने से लोगों को सस्ता और वैकल्पिक न्याय उपलब्ध होगा यदि यह रास्ता अपनाया जाए तो संभव है प्रशासनिक स्तर पर अपने आप बदलाव देखने को मिलने लगेगा और यह विस्तृत लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल भी है।
जैसा कि मेरी नजरों में यह स्पष्ट दिख रहा है यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये तीनों सुधार एक साथ लागू कर दें तो वह देश के प्रधानमंत्रियों की श्रेणी में सबसे असरकारक प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज हो जाएंगे।
आज स्वतंत्रता की 69वीं वर्षगांठ उन करोड़ों लोगों को समानता और न्याय का अधिकार प्रदान करने का गवाह बने यह हमारी अपेक्षा है। यदि ये सुधार अमल में नहीं आते हैं तो देश का विकास भी तेजी से होने लगेगा क्योंकि हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी आज न्याय के लिए कार्यालयों और कोर्ट का चक्कर लगा रही है?
सर्वांगीण और समग्र विकास का प्रारूप आपके हाथ में हैं यदि इसे उचित दिशा निर्देशों के साथ लागू कर दिया जाए तो देश में वास्तविक लोकतंत्र समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े उस आम नागरिक तक पहुंचेगा जिसकी कल्पना वह नहीं कर सकता।
यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये सुधार लागू करते हैं तो देश की बहुसंख्यक आबादी उनका हार्दिक आभार लंबे समय तक नहीं चुका सकेगी। यदि ये सुधार अमल में नहीं आते हैं तो यह नरेंद्र मोदी के सुनहरा अवसर चूकने के समान होगा। फिलहाल सबका साथ, सबका विकास का नारा नारा ही रहेगा!
लेखक – एम.वाई. सिद्दीकी, पूर्व प्रवक्ता कानून और रेल मंत्रालय
अंग्रेजी से अनुवाद-शशिकान्त सुशांत, पत्रकार