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Friday, November 22, 2024

मध्यप्रदेश के पर्यटन स्थल : कान्हा किसली

Kanha Kisli National Park

भारत के हृदय स्थल मध्यप्रदेश में पर्यटन के ऐसे बहुत से स्थल है जहां देश विदेश के असंख्य सैलानी इन्हें देखने आते हैं। धार्मिक महत्व के अलावा पुरातात्विक महत्व के इन स्थलों में कान्हा किसली, महेष्वर खजुराहो, भोजपुर, ओंकारेश्वर, सांची, पचमढ़ी, भीमबेटका, चित्रकूट, मैहर, भोपाल, बांधवगढ़, उज्जैन, आदि उल्लेखनीय स्थल हैं।

 कान्हा किसली: 940 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विकसित कान्हा टाइगर रिजर्व राष्ट्रीय उद्यान हैं।  इसे देखने के लिए किराये पर जीप, टाइगर ट्रेकिग के लिए हाथी पर सवार होकर उद्यान को देख सकते हैं।  कान्हा में वन्यप्रणियों की 22 प्रजातियों के अलावा 200 पक्षियों की प्रजातिया है। यहां बामनी दादर एक सनसेट प्वाइंट है। यहां से सांभर और हिरण जैसे वन्यप्रणियों को आसानी से देख जा सकता है। लोमड़ी और चिंकारा जैसे वन्यप्राणी कम ही देखने को मिलते हैं। कान्हा जबलपुर, बिलासपुर और बालाघाट से सड़क माग से पहुंचा जा सकता है। नजदीकी विमातल जबलपुर में हैं।

Madhya Pradesh Tourism

  इतिहास 

मंडला से प्रसिद्घ कान्हा-किसली राष्ट्रीय उद्यान के कुछ आगे बसा है नैनपुर गांव। 19वीं शताब्दी में उमरिया, निवारी और नैनपुर गांव आबाद हुए थे। अंग्रेजों ने यहां के पायली, पारेदा, डेहला, अलीपुर आदि 84 गांवों को मालगुजारों को बेच दिया था जिनमें से चौधरियों ने 400 रुपए में घुघरी गांव खरीदा था। और कमला ने 900 रुपए में नैनपुर। उस जमाने में ब्राह्मण बहुल इस इलाके को इसी कारण से ‘चौरासी इलाकाÓ भी कहा जाता था। गोंडवाने के ज्यादातर शहरों की तरह यहां भी देशभर से लोग रेलवे और दूसरे कामधंधों की खातिर आए और फिर इसे ही अपना घर बना लिया। 1899 तक यहां कुल दो-ढाई सौ की आबादी थी और चकोर नाले की दूसरी तरफ बस्ती निवारी मुख्य गांव तथा बाजार हुआ करता था। तब बस्ती में न तो स्कूल थे और न ही पुलिस थाना।

1903 में गोंदिया से नैनपुर तक की छोटी लाइन डाली गई और तब नैनपुर बस्ती का भी विकास होना शुरू हुआ। उस जमाने में नैनपुर में दो तरह की आबादी रहा करती थी, एक रेलवे के पक्के और विशाल मकानों-बंगलों में रहने वाले अंग्रेज अधिकारी-कर्मचारी और दूसरे मजदूरी तथा छोटे-मोटे रोजगार धंधों के कारण यहां आकर बसे हिंदुस्तानी। शुरुआत में बने रेलवे के तीन बंगलों के पत्थर के काम के लिए आगरा से मिस्त्री बुलवाए गए थे, बाद में ऐसे ही छह और बंगले बने थे। कस्बे के बुजुर्ग बताते हैं कि बचपन में किस तरह वे छिप-छिपकर अंग्रेज साहबों-मेमों का रहन-सहन, बंगले, नाच आदि देखा करते थे। लेकिन इन्हीं लोगों ने 1929-30 में समाज सेवा के लिए ‘सेवा समिति बनाई और फिर आजादी की लड़ाई के लिए ‘युवा मंडल का गठन किया। तब ये लोग चौराहे पर देशभर की संघर्ष की खबरें ब्लैकबोर्डों पर लिखा करते थे और गुप्त बैठकें करके आजादी की लड़ाई में मंसूबे बनाया करते थे।

कहते हैं कि बंगाल-नागपुर रेलवे कंपनी की यह छोटी लाइन इलाके के एक ठंडे और प्रसिद्घ वन क्षेत्र शिकारा और कान्हा-किसली में छुट्टियां बिताने के लिए आने वाले अंग्रेज पर्यटकों के लिए डाली गई थी। यहां घने और कीमती जंगल थे और अंग्रेजों के फर्नीचर, विश्वयुद्घ के लिए जहाजों तथा रेलवे के स्लीपर बनाने के लिए लकड़ी की ढुलाई करके इलाहाबाद ले जाने की खातिर भी रेल लाइन बिछाने का काम किया गया था। इसके अलावा नैनपुर से लगे हुए ‘हवेली क्षेत्र में होने वाली धान, मटर, गेहं आदि फसलों को ले जाने के लिए भी रेलवे की जरूरत पैदा हुई थी। कहते हैं कि रामगढ़ की लोधी रानी अवंतीबाई के विद्रोह, गोंडों के संभावित विद्रोह से निपटने तथा पिंडारियों को दबाने-रोकने के लिए फौजों की आवाजाही आसान करने के लिए भी रेलगाडिय़ां चली थीं।

रेलवे लाइन, स्टेशन, कर्मचारियों का कॉलोनी आदि के लिए नैनपुर, उमरिया, निवारी आदि गांवों की जमीनों को मालगुजारों से खरीदा गया था। रेलवे के पहले सड़क ही आवागमन का एकमात्र तरीका था। यह सड़क घने जंगलों से होकर गुजरती थी और कहावत मशहूर थी कि ‘घाट पिपरिया, रायचूर धूमा, इनसे बचकर आओ तो महतारी ले चूमा। हालांकि पिंडारियों के बारे में इतिहासकारों की राय पक्की नहीं है कि वे सत्ताधारियों को चुनौती देने वाले बहादुर थे या फिर मामुली ठग। लेकिन कहते हैं कि घाट पिपरिया, रायचूर और धूमा जमाने के घने जंगलों और पिंडारियों के डर वाले इलाके हुआ करते थे।

इनके बीच से भी बंजारों की व्यापारिक यात्राएं हुआ करती थीं और झूरपुर गांव में बंजारों ने एक बावड़ी भी बनवाई थी जो बाद में थॉवर बांध में डूब गई थी। जबलपुर-नागपुर मार्ग पर इन्हीं पिंडारियों ने पिंडारिया गांव बसाया था और वहीं से होकर आम लोग इन बंजारों की टोलियों के साथ यात्रा करते थे। बाद में मंडला से तांगा करके आने का भी चलन शुरू हुआ। पेयजल के लिए नैनपुर, चकोर नदी के किनारों पर हर साल बनने वाली सैकड़ों झिरियों से काम चलाता था। इन झिरियों को जामुन की लकड़ी या बांस की टटिया से पाटा जाता था। कहते हैं कि जामुन की लकड़ी ढाई-तीन सौ साल तक पानी में बनी रहती है। बाद में तो प्लास्टिक की टंकी की तली को काटकर उससे पाटने का चलन शुरू हो गया था। हर गर्मी में बनने वाली इन झिरियों को बीच-बीच में साफ किया जाता था।
ये झिरिएं ब्राह्मण, साहू आदि हर जाति की अलग-अलग हुआ करती थीं। यहां का पठारी इलाका आमतौर पर मुरम का ही है और इसमें मिट्टी की परत कम ही मिलती है। इस वजह से भू-गर्भीय जल की हमेशा कमी बनी रहती थी और नतीजे में खेती भी कमजोर होती थी। इस क्षेत्र में नदियां, नाले और कुएं ही पानी के साधन थे। कुंओं को भी जामुन की लकड़ी से ही पाटा जाता था। उस जमाने से ही पानी के कुछ कुएं बनने लगे थे, जिनका आज भी उपयोग किया जाता है। रेलवे परिसर में बना खैरमाई का कुआं, गेस्ट हाउस का कुआं, धर्मशाला का कुआं, टॉकीज के अंदर का कुआं और 1922-24 के आसपास खोदा गया गहरा पातालतोड़ कुआं पेयजल के स्रोत थे।

तालाब बनने के पहले हनुमान मंदिर और ट्रॉफिक का कुआं रेलवे कॉलोनी के अलावा अन्य को भी पानी दिया करते थे। हनुमान मंदिर और गायत्री मंदिर के कुएं अब सूख गए हैं। इसी तरह ठेकेदार मोहल्ले में तीन-चार कुएं हैं जिनमें पानी भी है। नैनपुर के वार्ड दो में एक पुरानी बावड़ी भी थी जो अब खत्म हो गई है। बस्ती में जैसे-जैसे घर बनते गए वैसे-वैसे कुएं भी खोदे जाने लगे। लगभग हर घर में मौजूद लबालब भरे कुओं से किफायत से एक-एक गिलास करके पानी निकाला जाता था लेकिन आजकल फ्लश के शौचालय बनने और पानी के दुरुपयोग से इन कुंओं के जलस्तर में कमी आयी है।

वेबसाइट – Kanha Kisli National Park

       Madhya Pradesh Tourism

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