2019 के लोकसभा चुनाव का समय जैसे-जैसे करीब आता जा रहा है अवसरवादी नेताओं द्वारा अपने ‘सुरक्षित राजनैतिक भविष्य’ की तलाश करने की खबरें भी आने लगी हैं। अनेक नेताओं द्वारा दलबदल किए जाने के समाचार आ रहे हैं। सत्ता विरोधी रुझान देखकर अवसरवादी नेताओं का एक दल से दूसरे दल में पलायन भारतीय राजनीति की एक त्रासदी बनकर रह गई है। कुर्सी व सत्ता के भूखे ऐसे नेताओं का न कोई सिद्धांत होता है न ही कोई विचारधारा। याद कीजिए 2014 में जिस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के विरुद्ध बड़े ही सुनियोजित ढंग से दुष्प्रचार किया गया था और देश में जान-बूझ कर एक ऐसा माहौल खड़ा किया गया गोया 2009-14 जैसी भ्रष्ट,असहाय तथा कमज़ोर सरकार पहले कभी देश में बनी ही न हो। अन्ना हज़ारे को विपक्षियों द्वारा अपनी ढाल बनाकर एक बुज़ुर्ग गांधीवादी नेता के चेहरे को भुनाने की सफल कोशिश की गई। उस समय भी पूरे देश में अनेक स्वार्थी व सत्ता के भूखे कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं द्वारा अपनी पार्टियां छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शरण ली गई थी। आज उनमें से अनेक सिद्धांतविहीन व अवसरवादी नेता मंत्री,सांसद,विधायक आदि बन चुके हैं।
अब एक बार फिर जब देश निकट भविष्य में लोकसभा चुनाव 2019 का सामना करने जा रहा है पुन: इसी प्रकार के ‘थाली के बैंगनों’ से संबंधित समाचार आने शुरु हो चुके हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था वाली राजनीति में हालांकि सिद्धांतों अथवा वैचारिक मतभेद को लेकर दलबदल करना या अपना नया दल बना लेना कोई आपत्तिजनक अथवा गैरकानूनी बात नहीं है। परंतु हमारे देश में दलबदल करने का जो पैमाना नेताओं द्वारा निर्धारित किया गया है उसकी पृष्ठभूमि प्राय: केवल यही होती है कि वे या तो इसलिए अपनी पहली पार्टी छोड़ते हैं क्योंकि पार्टी ने आगामी चुनावों में उन्हें अपनी पार्टी की ओर से प्रत्याशी बनाए जाने से इंकार कर दिया है। या फिर उस सांसद या विधायक को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया।
कई अवसरवादी दलबदलुओं को तो मात्र इसी बात से तकलीफ होती है कि उन्हें मंत्री तो बनाया गया परंतु कोई मलाईदार व धनवर्षा करने वाला विभाग क्यों नहीं दिया गया। कई नेताओं की नाराज़गी इस बात को लेकर भी होती है कि उनके पुत्र-पत्नी अथवा भाई को पार्टी का चुनावी टिकट क्यों नहीं दिया गया। भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ही कोई नाम ऐसा सुनाई दे जिसने किसी पार्टी से इसलिए नाता तोड़ लिया हो क्योंकि उसके निर्वाचन क्षेत्र की जनता से चुनाव पूर्व किए गए उसके वादे पूरे नहीं किए जा सके। देश में शायद ही कोई नाम ऐसा मिलेगा जिसने दलबदल करने से पूर्व अपने क्षेत्र के मतदाताओं से सलाह-मशविरा किया हो।
इसके विपरीत पार्टी ने यदि चुनाव लडऩे हेतु अधिकृत प्रत्याशी नहीं बनाया तो कल का कांग्रेसी आज दक्षिण पंथी भारतीय जनता पार्टी में शरण ले सकता है। या कोई सांप्रदायिकतावादी कभी भी धर्मनिरपेक्षता का आवरण लपेट सकता है। ज़रा सोचिए कि भाजपा व कांग्रेस दोनों ही धुर विरोधी विचारधारा रखने वाली पार्टियां होने के बावजूद किस प्रकार एक-दूसरे दलों के लोग इस समय दोनों ही पार्टियों में सत्ता का स्वाद चख रहे हैं। 2014 के चुनाव से पूर्व भी जब कांग्रेस के नेता दल बदल कर भारतीय जनता पार्टी में प्रवेश कर रहे थे उस समय भारतीय मीडिया में प्रकाशित हो रहा था कि-‘जब जहाज़ डूबने लगता है उस समय डर के मारे चूहे जहाज़ से कूदकर भागने लगते हैं’। कुछ ऐसा ही दृश्य 2019 लोकसभा चुनाव से पूर्व भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भी दिखाई देने लगा है।
राजनीति के ‘मौसम वैज्ञानिक’ एक बार फिर अपने राजनैतिक भविष्य को बेहतर व सुरक्षित बनाने की गरज़ से दल बदल करने लगे हैं। नेता ही नहीं बल्कि छोटे सहयोगी दल भी घाटा-मुनाफा भांप कर गठबंधन के नए रिश्ते बनाने में व्यस्त हो चुके हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इन अवसरवादी दलबदलुओं खासतौर पर स्वयं को कल का कांग्रेसी या धर्मनिरपेक्ष कहने वाले नेता यदि अपने ‘सुरक्षित एवं उज्जवल राजनैतिक भविष्य’ हेतु अपना राजनैतिक ईमान न बदलते तो 2014-19 के मध्य देश के सामाजिक ताने-बाने में आई कमी एवं देश में सांप्रदायिक सद्भाव बिगडऩे जैसी स्थिति न बनी होती।
अब एक बार फिर ऐसे ही अवसरवादी व दलबदलू नेता जिनकी अपनी कोई वैचारिक सोच नहीं है वे पुन: न केवल राजनैतिक बल्कि वैचारिक दलबदल भी करने लगे हैं। इन राजनैतिक ‘मौसम वैज्ञानिकों’ को इस बात का एहसास हो गया है कि आने वाले दिन भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार के लिए अच्छे नहीं हैं। लिहाज़ा चुनाव पूर्व सुरक्षित ठिकाने पर पहुंच जाना चाहिए। अर्थात् जहां टिकट की जुगत बैठे या मंत्रिमंडल में स्थान मिलने की संभावना नज़र आए उस दल का दामन थाम लेना चाहिए। कभी-कभी हमारे देश के उत्साही युवा भारत की तुलना अमेरिका व यूरोप से करने लगते हैं।
इस प्रकार की तुलना करने से पहले भारत से उन देशों की राजनैतिक व्यवस्था की तुलना भी करनी चाहिए। अमेरिका में कभी भी कोई नेता वैचारिक दलबदल नहीं करता। पार्टी का प्रत्याशी न बनाए जाने के विरुद्ध कोई विरोध या दल छोडऩे जैसी स्थिति पैदा नहीं करता। इन देशों में राजनैतिक कुर्सी को कोई अपने बाप की जागीर नहीं समझता। खासतौर पर अमेरिका में वैचारिक रूप से जो डेमोक्रट है वह डेमोक्रेटिक पार्टी में ही रहता है और जो रिपब्लिकन पार्टी का नेता है वह सैदव रिपब्लिकन पार्टी का ही सदस्य रहता है। परंतु ठीक इसके विपरीत भारत में कब कौन सा नेता चुनावों में किस पार्टी का प्रत्याशी है यह अनिश्चित रहता है।
हमारे देश में जैसा राजा वैसा प्रजा की कहावत शताब्दियों से प्रसिद्ध है। आज यदि आप दूसरे विकसित देशों अथवा प्रगतिशील देशों में जाएं तो वहां भारतीय राजनीति की इस स्वार्थपूर्ण, दलबदलू व विचारविहीन राजनैतिक व्यवस्था का मज़ा$क उड़ाया जाता है। पूरी दुनिया इस बात को भलीभांति जानती है कि हमारे देश के राजनेताओं की प्रथम राजनैतिक इच्छा मंत्री बनना व चुनाव में प्रत्याशी बनना ही होती है। इस बात से देश के अधिकांश राजनेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कब दक्षिणपंथी हैं तो कब धर्मनिरपेक्ष बन बैठें। आज भी यदि आप भारतीय जनता पार्टी के सांसदों व विधायकों की ओर देखें तो इनमें अनेक ऐसे चेहरे मिल जाएंगे जिनके पूर्वज न केवल धर्मनिरपेक्ष थे बल्कि इनमें से कई के पूर्वज तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी यहां तक कि कांग्रेस पार्टी के संस्थापक सदस्य तक थे। परंतु ऐसे अवसरवादी नेताओं पर जो भगवा रंग चढ़ा है वह भाजपाईयों के रंग से भी गाढ़ा दिखाई देने लगा है।
अब एक बार फिर जब ‘डूबते जहाज़ से चूहों के कूदकर भागने’ का सिलसिला शुरु हो चुका है ऐसे में देश की जनता व मतदाताओं का यह परम कर्तव्य है कि इस प्रकार के विचारविहीन व सिद्धांतविहीन दलबदलुओं को उनका बहिष्कार कर माकूल सबक सिखाएं। ऐसे नेताओं से यह ज़रूर पूछें कि वे बिना अपने मतदाताओं को विश्वास में लिए हुए कैसे वैचारिक व राजनैतिक दलबदल करने की हि मत जुटा पाते हैं? देश के मतदाताओं को इन से ज़रूर पूछना चाहिए कि ज़मीर फरोशी का इतना बड़ा हौसला वे कहां से पैदा कर पाते हैं? दूसरी ओर इन दलबदलुओं द्वारा जिस नई पार्टी का दामन थामा जा रहा हो उस दल के मु िाया को भी यही चाहिए कि भले ही उन्हें पार्टी टिकट अथवा मंत्रिपद की लालच में अपनी ओर बुला क्यों न ले परंतु बाद में ऐसे धोखेबाज़ों को टिकट अथवा किसी भी पद से वंचित रखा जाना चाहिए। सिद्धांतविहीन,अवसरवादी दलबदलुओं से देश को बचाने का यही उपयुक्त उपाय होगा।
:- निर्मल रानी
Nirmal Rani (Writer)
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