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Friday, November 22, 2024

मुहर्रम पर विशेष: क़यामत तक प्रासंगिक रहेगी,दास्तान-ए-करबला

पूरे विश्व में प्रत्येक वर्ष की भांति इन दिनों भी मुहर्रम माह में हज़रत इमाम हुसैन की शहादत और दास्तान-ए-करबला को याद किया जा रहा है। वास्तव में करबला में हुई जंग धर्म या जाति आधारित जंग नहीं बल्कि सिद्धांतों,सच्चाई व हक़ पर अडिग रहने की एक ऐसी मिसाल थी जो करबला में 10 मुहर्रम 61 हिजरी अर्थात 10 अक्टूबर 680 ईस्वी से पहले और बाद में गोया आज तक कहीं भी नहीं देखी या सुनी गयी । करबला की लड़ाई को इतिहासकारों व लेखकों द्वारा हालांकि अलग अलग तरीक़े से वर्णित किया जाता है। कोई इसे दो मुस्लिम शासकों की जंग कहता है तो कहीं इसे शिया-सुन्नी समुदाय के बीच हुई जंग बताया जाता है।

कोई इसे सत्ता की लड़ाई कहता है तो कोई इसे यज़ीदी आतंकवाद का उदाहरण बताता है। परन्तु जिन इतिहासकारों ने पूरी ईमानदारी के साथ करबला की इस घटना के कारणों पर प्रकाश डाला है उन्होंने साफ़ लिखा है कि यह लड़ाई सत्य व असत्य के मध्य हुई लड़ाई थी,यह ज़ुल्म और सब्र की इन्तेहा का एक अभूतपूर्व उदाहरण था,करबला का वाक़्या पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद की विरासत अर्थात इस्लाम धर्म को यज़ीद जैसे क्रूर ज़ालिम के चंगुल से बचाने की एक सफल कोशिश थी। करबला की घटना ज़ालिम ताक़तवर के आगे सच्चाई व धर्म के मार्ग पर चलने वाले कम शक्तिशाली पक्ष के घुटने न टेकने की एक अभूतपूर्व मिसाल थी। दुनिया के अनेक महापुरुष, गणमान्य नेता व शासक,बुद्धिजीवी,विचारक चाहे उनका सम्बन्ध इस्लाम से हो या न हो,हज़रत इमाम हुसैन की क़ुर्बानी तथा करबला की घटना से प्रेरणा लेते रहे हैं।

हज़रत इमाम हुसैन की अज़ीम शहादत के केवल मुसलमान या शिया समुदाय के लोग ही क़ाएल नहीं हैं बल्कि दुनिया के हर धर्मों का हर वह व्यक्ति जो दास्तान-ए-करबला से वाक़िफ़ है तथा सत्य-असत्य,ज़ुल्म और सब्र तथा बलिदान के भेद व इसके मर्म को समझता है,हज़रत इमाम हुसैन को दिल की गहराईयों से सम्मान देता है। इतना ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक महापुरुष हज़रत इमाम हुसैन की क़ुर्बानी से प्रेरणा हासिल करते रहे हैं।राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तो हज़रत इमाम हुसैन की क़ुरबानी के इतने क़ाएल थे कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध नमक सत्याग्रह के समय डांडी मार्च में उन्होंने करबला में हुसैन के क़ाफ़िले से ही प्रेरित होकर अपने साथ हर उम्र,वर्ग व लिंग के 72 लोगों को अपना हमसफ़र बनाया था ।

गाँधी जी ने यह भी कहा कहा था कि “शहीद के रूप में इमाम हुसैन के महान बलिदान का मैं सम्मान करता हूँ,क्योंकि उन्होंने अपने लिए,अपने बच्चों के लिए तथा अपने पूरे परिवार के लिए प्यास की यातना तथा शहादत का मार्ग स्वीकार किया लेकिन अन्यायपूर्ण शक्तियों के आगे नहीं झुके “।इसी प्रकार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इन शब्दों में करबला व हज़रत इमाम हुसैन को याद किया। नेहरू जी ने फ़रमाया था कि-‘ करबला की शहादत में एक सार्वभौमिक अपील है।

इमाम हुसैन ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया, लेकिन उन्होंने एक अत्याचारी शासक के आगे झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने इस बात की फ़िक्र नहीं की कि उनकी शक्ति दुश्मन की तुलना में कहीं कम थी। उनके लिए उनका विश्वास ही सबसे बड़ी ताक़त थी। यह बलिदान प्रत्येक समुदाय और प्रत्येक राष्ट्र के लिए मार्गदर्शक है”।

भारत की प्रथम महिला राज्यपाल सरोजनी नायडू ने हज़रत इमाम हुसैन के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि “हज़रत इमाम हुसैन ने लगभग तेरह सौ साल पहले दुनिया को एक संदेश और जीवन का तरीक़ा दिया था जो अद्वितीय और परिपूर्ण था और जिसकी स्मृति हम मनाते हैं । मेरे पास शब्द नहीं हैं और न ही दुनिया की किसी भाषा में वह वाक्पटुता व समझ है, जो श्रद्धा की भावना के लिए अभिव्यक्ति के वाहन के रूप में काम कर सकती हो।

जो इस महान शहीद के लिए मेरे मन में बसी हुई है। हज़रत इमाम हुसैन केवल मुसलमानों के ही नहीं हैं, बल्कि वे सर्वशक्तिमान ईश्वर के सभी जीवों के लिए एक खज़ाना हैं। मैं मुसलमानों को बधाई देती हूं कि उनके बीच एक ऐसा व्यक्तित्व रहा है, जो दुनिया के सभी समुदायों द्वारा समान रूप से स्वीकार किया जाता है और सभी के द्वारा उसका सम्मान किया जाता है। ”

पश्चिमी देशों के भी अनेक दार्शनिक,इतिहासकार,लेखक कवि व बुद्धिजीवी भी हज़रत इमाम हुसैन की अभूतपूर्व शहादत को दिल से स्वीकार करते रहे हैं। विक्टोरियन युग के सबसे लोकप्रिय अंग्रेज़ी उपन्यासकार तथा एक सशक्त सामाजिक आंदोलन के सदस्य चार्ल्स डिकेंस ने हज़रत इमाम हुसैन की क़ुरबानी को इन शब्दों में बयान किया- “अगर हुसैन अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए लड़े, तो मुझे समझ नहीं आता कि उनकी बहनें, बीवी और बच्चे उनके साथ क्यों थे। यह इस बात का प्रमाण है कि उनका बलिदान विशुद्ध रूप से इस्लाम के लिए था।

इसी प्रकार प्रसिद्ध अमेरिकी लघु कथाकार, निबंधकार, जीवनी लेखक, इतिहासकार व राजनयिक वाशिंगटन इरविंग के अनुसार- “हुसैन के लिए यह संभव था कि वे ख़ुद को यज़ीद के सुपुर्द कर अपनी जान बचा सकते थे, लेकिन एक ज़िम्मेदार सुधारक के रूप में उन्होंने यज़ीद के ख़िलाफ़त को स्वीकार करने से मना कर दिया। इसलिए उन्होंने इस्लाम को उमैय्या के चंगुल से निकालने के लिए हर तरह की असुविधा और कष्ट को गले से लगाया। धधकती हुई धूप में, सूखी ज़मीन पर और अरब की तेज़ गर्मी में, अजेय हुसैन खड़े थे”।

ब्रिटिश इतिहासकार व ब्रिटिश पार्लमेन्ट के सदस्य रहे एडवर्ड गिबन ने दास्तान-ए-करबला पर अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये-“इस्लाम के इतिहास में, विशेष रूप से इमाम हुसैन का जीवन अनूठा और बेमिसाल है। उनकी शहादत के बिना, इस्लाम का अंत बहुत पहले ही हो गया होता। वह इस्लाम के उद्धारकर्ता थे और यह उनकी शहादत का ही कारण था कि इस्लाम ने इतनी गहरी जड़ें जमा लीं, जिसे नष्ट करने की कल्पना करना भी अब संभव नहीं है।”

स्कॉटलैण्ड के प्रतिष्ठित दार्शनिक, इतिहासकार, व्यंगकार, निबन्धकार तथा समालोचक टामस कार्लायल की नज़रों में- “कर्बला की त्रासदी से जो सबसे अच्छा सबक़ हमें मिलता है, वह यह है कि हुसैन और उनके अनुयायियों को ईश्वर में पूर्ण विश्वास था। उन्होंने उदाहरण दिया कि जब सत्य और असत्य की बात आती है तो संख्या बल मायने नहीं रखता। अल्पसंख्यक होने के बावजूद हुसैन की जीत ने मुझे चौंका दिया।”इसी प्रकार अनगिनत महापुरुषों व बुद्धिजीवियों ने हज़रत इमाम हुसैन की करबला में दी गई अज़ीम क़ुरबानी पर अपने अपने विचार कुछ ऐसे ही अंदाज़ में पेश किये हैं।

आज भी दुनिया के ज़्यादातर हिस्से हिंसा,अत्याचार,अहंकार,सत्ता शक्ति के दुरूपयोग,साम्प्रदायिकता,जातिवाद,सत्ता में बने रहने के लिए अपनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के अनैतिक हथकंडे,बहुसंख्यवाद,ग़रीबों के शोषण जैसी त्रासदी का शिकार हैं। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना एक बड़ी चुनौती बन चुका है।

परन्तु जिस प्रकार लगभग 1400 वर्ष पूर्व हज़रत इमाम हुसैन ने अपने मात्र 72 परिजनों व साथियों के साथ मिलकर सीरिया के तत्कालीन क्रूर तानाशाह यज़ीद के उस समय की विश्व की सबसे बड़ी समझी जाने वाली सेना के समक्ष झुकने से इंकार कर दिया और शहादत को गले लगाने को प्राथमिकता दी उसी प्रकार आज भी जगह जगह “करबालाओं” की ज़रुरत महसूस की जा रही है। 72 साथियों की शहादत पेश करते हुए असत्य के विरुद्ध सत्य का परचम फहराने वाले हज़रात इमाम हुसैन की शहादत की याद दिलाने वाली दास्तान-ए-करबला कल भी प्रासंगिक थी और रहती दुनिया तक प्रासंगिक रहेगी। प्रसिद्ध भारतीय शायर व वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक अधिकारी कुंवर महेंद्र सिंह बेदी”सहर” हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को इन शब्दों में याद करते हैं –
ज़िंदा इस्लाम को किया तूने
हक़्क़-ो-बातिल दिखा दिया तूने
जी के मरना तो सब को आता है
मर के जीना सिखा दिया तूने।।

तनवीर जाफ़री

Tanveer Jafri ( columnist),
1885/2, Ranjit Nagar
Ambala City.  134002
Haryana
phones
098962-19228
0171-2535628

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