देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में २०१३ की केदारनाथ त्रासदी को प्नकृति से खिलवाड़ का नतीजा तो बताया गया था लेकिन सरकार ने उस भयावह हादसे से कोई सबक लेने की आवश्यकता महसूस नहीं की और प्रकृति से खिलवाड़ का वह सिलसिला निरंतर चलता रहा । इसलिए २०१३ जैसे हादसे की पुनरावृत्ति की आशंका से हम कभी मुक्त नहीं हो पाए और विगत ७फरवरी को राज्य के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने के कारण मची तबाही ने उस आशंका को सच साबित कर दिया।
अब हम यह सोचकर राहत की सांस नहीं ले सकते कि इस बार के हादसे में बहुत कम मानव क्षति हुई है। हमें तो इस बात का पछतावा होना चाहिए कि अगर हमने २०१३ में घटित केदारनाथ त्रासदी से सबक लेने की आवश्यकता को महसूस कर अपनी सुरक्षात्मक तैयारियों को पुख्ता कर लिया होता तो उन मजदूरों को असमय मृत्यु का शिकार होने से बचाया जा सकता था जो तबाही का शिकार बने पावर प्रोजेक्ट्स के निर्माण कार्यों में लगे हुए थे।
इस हादसे के कारण लगभग दो सौ मजदूर अभी भी लापता बताए जा रहे हैं जिनकी खोज के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं। इस भयावह हादसे ने पूरे देश को झकझोर दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हुए कहा है कि पूरा देश उत्तराखंड के साथ खड़ा है।इस हादसे के बाद पूर्व केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने अपने एक बयान में कहा है कि जब केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की बागडोर उनके पास थी तब उनके मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में यह हलफनामा भी दाखिल किया था कि उत्तराखंड में नदियों पर किसी नए बांध या विद्युत परियोजना का निर्माण कार्य खतरनाक
साबित हो सकता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस मामले में केंद्रीय उर्जा और पर्यावरण मंत्रालय की राय जल संसाधन मंत्रालय से अलग थी जिसने उत्तराखंड की नदियों पर नए बांध और नई विद्युत परियोजनाओं के निर्माण कार्य को निरापद बताया थ ।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि अतीत में पर्यावरणविद भी उत्तराखंड की नदियों पर बांध निर्माण से पैदा होने वाले खतरों के प्रति सरकार को आगाह करते रहे हैं परंतु पर्यावरण और उर्जा मंत्रालय ने उनकी सलाह को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया जिसका दुष्परिणाम प्रकृति के प्रकोप के रूप में जब तब सामने आता रहा लेकिन यह सवाल हमेशा अनुत्तरित ही रहा कि त्वरित विकास की लालसा के वशीभूत होकर हम प्रकृति से खिलवाड़ के भयावह नतीजों की आशंकाओं की आखिर कब तक उपेक्षा करते रहेंगे।
यह आश्चर्य का विषय है कि चमोली में हुए इस नए हादसे के बाद भी सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं दिख रही है कि उत्तराखंड में बिजली उत्पादन के लिए नदियों पर बांध निर्माण शुरू करने के पूर्व उसे पर्यावरणविदों की सलाह पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए था।विगत ७ हुए फरवरी को हुए हादसे के बाद फिर यही सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर केदारनाथ त्रासदी से हमने कोई सबक क्यों नहीं लिया। गौरतलब है कि केदारनाथ त्रासदी के बाद उत्तराखंड में नए बांधों के निर्माण पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जब याचिका दायर कर की गई तो सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड की पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक एवं पर्यावरण विद रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जिसे यह बताना था कि उत्तराखंड में नए बांधों के निर्माण हेतु क्या मानदंड तय किए जाने चाहिए।
रवि चोपड़ा कहते हैं कि उन्होंने सुप्नीम कोर्ट को सौंपी अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि जिन घाटियों का तल २००मीटर से ज्यादा गहरा वहां बांधों का निर्माण करने से खतरा हो सकता है। इनमें तपोवन घाटी को भी शामिल किया गया था। उक्त समिति ने २३ बांधों के निर्माण पर रोक का सुझाव दिया था। रवि चोपड़ा का मानना है कि अगर उनका सुझाव मान लिया जाता तो ७ फरवरी की त्रासदी से बचा जा सकता था। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने २०१४ में उत्तराखंड की ३९ में से २४ बिजली परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी।
इस संबंध में अभी भी सुप्रीम कोर्ट में मामला चल रहा है। देहरादून स्थित वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी आठ माह अपने इस क्षेत्र में अपने शोध के नतीजों के आधार यह कहा था कि हिमालय क्षेत्र में जो १४६ ग्लेशियर पिघल कर रहे हैं इसलिए वहां ऐहतियाती उपाय किए जाना अत्यंत आवश्यक है। ग्लेशियर टूटने की घटना को ग्लोबल वार्मिंग से भी जोड़कर देखा जा रहा है। यूरोप से आने वाली जहरीली गैसों और हिमालय क्षेत्र में हर साल लगातार कम होने वाली बर्फ बारी को भी गलेशियर टूटने की वजह माना जा रहा है। सर्दी के मौसम में ग्लेशियर टूटने की घटना निःसंदेह अचरज का विषय है इसलिए वैग्यानिक भी इसका कोई निश्चित कारण तय नहीं कर पा रहे है।
यह सब बातें अपनी जगह सही हो सकती हैं परंतु इस कड़वी हकीकत से कैसे इंकार किया जा सकता है कि बड़े बड़े पर्यावरण विदों,भू वैग्यानिकों की बार बार की चेतावनी और क्षेत्रीय जनता जनता के विरोध के बावजूद उत्तराखंड में नदियों के ऊपर और आसपास किए गए निर्माण कार्यों ने ही हमें प्रकृति का कोपभाजन बनने के मजबूर किया। अफसोस की बात तो यही है कि २०१३ की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी हम नही चेते । और फिर एक हादसा हो गया।इस हादसे के बाद भी यह तर्क दिया जा सकता है कि ग्लेशियर टूटने के फलस्वरूप ॠषिगंगा परियोजना की तबाही एक ऐसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा थी जिस पर किसी का कोई जोर नहीं था।
इस संभावना को भी नहीं नकारा जा सकता कि इस हादसे से भी कोई सबक न लेते हुए पुरानी गलतियों को दोहराने का सिलसिला फिर शुरू हो जाए। यह सही है कि प्रकृति पर हमारा कोई जोर नहीं है परंतु हमें यह तो मानना ही होगा कि प्रकृति को चुनौती देने की मानसिकता का परित्याग तो हम कर ही सकते हैं।
कृष्णमोहन झा