वॉशिंगटन: पूरी दुनिया कोरोना वैक्सीन की ओर टकटकी लगाए देख रही है, वैक्सीन निर्माता भी उम्मीदों को पूरा करने में दिन-रात जुटे हुए हैं। पर इसमें और देर हो सकती है, क्योंकि वैज्ञानिकों को नई समस्या से जूझना पड़ रहा है, और वह है रिसर्च के लिए बंदरों की कमी। रॉकविले स्थित बायोक्वॉल के सीईओ मार्क लुईस पिछले कुछ महीनों से बंदरों की खोज में लगे हैं। पर उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है।
उनकी फर्म पर देश की रिसर्च लैब के अलावा मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन जैसी दवा कंपनियों को बंदर पहुंचाने की जिम्मेदारी है। लुईस बताते हैं कि वैक्सीन बनाने में बंदरों की भूमिका अहम है। पर पिछले साल कोरोना ने जिस तरह अमेरिका को चपेट में लिया, इसके चलते एक खास किस्म के बंदरों की कमी हो गई है।
इनकी कीमत भी दोगुनी हो गई है। 7.25 लाख रुपए में भी एक बंदर नहीं मिल पा रहा है। इसके चलते दर्जनों कंपनियों को एनिमल रिसर्च रोकनी पड़ी है। लुईस कहते हैं कि समय पर सप्लाई न देने के कारण हमें काम रोकना पड़ा है। उधर, अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि बंदर वैक्सीन का परीक्षण करने में उपयोगी होते हैं। उनका डीएनए और प्रतिरक्षा प्रणाली लगभग इंसान के समान होती है।
इन पर टेस्ट के बाद से ही किसी भी वैक्सीन का ह्यूमन ट्रायल शुरू किया जाता है। ऐसे में बंदरों की उपलब्धता न होने से वैक्सीन का ट्रायल प्रभावित हो रहा है। बंदरों की कमी से वैज्ञानिकों ने एड्स और अल्जाइमर्स के इलाज पर रिसर्च रोक दी है। इस कमी नेे अमेरिका में बंदरों के रिजर्व पर फिर चर्चा छेड़ दी है।
ठीक उसी तरह, जैसे सरकार तेल और अनाज के लिए आपातकालीन भंडार रखती है। अमेरिका में 7 प्राइमेट केंद्रों में 25 हजार लैब मंकी हैं। इनमें 600-800 का इस्तेमाल वैक्सीन ट्रायल के लिए किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कोरोना के नए वैरिएंट मिल रहे हैं।
बंदरों के लिए चीन पर निर्भरता, 2019 में अमेरिका को 60% दिए थे
बंदरों की कमी की बड़ी वजह चीन भी है। उसने हाल ही में जंगली जानवरों की बिक्री बैन कर दी है। लैब एनिमल का सबसे बड़ा सप्लायर चीन है। सीडीसी के मुताबिक अमेरिका ने 2019 में 60% बंदर चीन से ही लिए थे। 1978 तक भारत भी बंदर देता था। पर इनका इस्तेमाल सैन्य परीक्षणों में होने की बात सामने आने पर निर्यात रोक दिया गया था।