देश में हिंदू-मुस्लिम ऊर्ध्व विभाजन का यह नया ‘फूड एंगल’ है। मकसद इस विभाजन रेखा को माइक्रो लेवल तक ले जाने का है। मंशा यह संदेश देने की है कि ‘ सच्चे’ हिंदू को मुस्लिम और मुसलमान के हाथों सर्व या डिलीवर किया खाना भी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि इसे ‘धर्म भ्रष्ट’ होता है। यह महज एक ‘खाद्य संयोग’ नहीं है कि देश की जानी-मानी आन लाइन डिलीवरी एवं रेस्टोरेंट डिस्कवरी चेन जोमाटो के खाने के एक ऑर्डर को सिर्फ इसलिए कैंसल किया गया कि उसकी डिलीवरी देने वाला कोई मुसलमान था।
और ऑर्डर करने वाला इसे नहीं चाहता था। इस मामले में जोमाटो की तारीफ की जानी चाहिए कि उसके मालिक ने ऑर्डर कैंसल करने वाले कस्टमर को करारा जवाब दिया कि खाने का कोई धर्म नहीं होता। सिर्फ इस कारण से हमे कोई ग्राहक गंवाना पड़े तो हमे वो भी मंजूर है। इसके बाद तो ट्विटर पर ‘हैशटेग जोमाटो’ जमकर ट्रेंड होने लगा।
ज्यादातर यूजर्स ने जोमाटो के स्टैंड को सपोर्ट किया तो ऑर्डर कैंसल करने वाले पं. अमित शुक्ल के समर्थन में भी कई ट्वीट हुए। इस बहस को हवा मिली कि क्या अब खाने को भी हिंदू-मुसलमान में बांटा जा रहा है? क्या ऐसा करना जायज है?
पहले जोमाटो के बारे में। नाम से विदेशी लगने वाली इस फूड डिस्कवरी चेन के मालिक दो भारतीय दीपेंदर गोयल और पंकज चड्ढा हैं। इसकी स्थापना दोनो ने स्टार्ट अप के रूप में 2008 में की थी।
आज यह भारत सहित 24 देशों में संचालित हो रही है। जोमाटो खाने के आन लाइन ऑर्डर लेकर खाना डिलीवर कराती है। साथ ही विभिन्न रेस्तरांओ के तमाम खानों और व्यंजनों के बारे में आन लाइन फोटो सहित विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराती है। इस कारण से यह विवादों में भी रही है। बहरहाल, जिन सज्जन के कारण यह विवाद खड़ा हुआ, उनका नाम पं. अमित शुक्ल है। शुक्लजी जबलपुर के हैं और ‘नमो सरकार’ नाम से उनका ट्विटर आईडी है।
वे व्यवसायी हैं और संघ से सम्बद्ध संगठन लघु उद्योग भारती से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। उन्होने 30 जुलाई को जोमाटो पर कुछ ऑर्डर किया था, जिसे बाद में कैंसल कर जोमाटो एप भी अनइंस्टाल कर दिया। हालांकि यह उनका निजी मामला था फिर भी दुनिया को अमित ने इसकी जानकारी ट्वीटर पर यह कहकर दी कि वे ( जोमाटो) एक गैर-हिंदू राइडर को खाना पहुंचाने मेरे पास भेज रहे थे। उन्होंने कहा कि वे राइडर चेंज नहीं कर सकते और ऑर्डर कैंसल करने पर रिफंड भी नहीं करेंगे। मैंने कहा कि आप मुझे डिलीवरी लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। मैं रिफंड नहीं चाहता हूं, बस ऑर्डर कैंसल कर दीजिए।’
इसके जवाब में जोमाटो के मालिक दीपेंदर गोयल ने ट्वीट किया कि ‘खाने का कोई धर्म नहीं होता। भोजन अपने आप में एक धर्म है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर ऐसे ग्राहक हमें छोड़कर जाते हैं तो जाएं। हमें हमारे मूल्यों के रास्ते में आड़े आने वाला बिजनस खोने पर कोई दुख नहीं है। भारत की विविधता पर पर ऐसे कई बिजनेस न्योछावर।‘
यहां दो सवाल उठते हैं। पहला तो यह कि क्या खाने में भी हिंदू और मुसलमान होता है? क्या दोनो की खाद्य संस्कृतियां अलग-अलग हैं? भारत जैसे विशाल खाद्य विविधता वाले देश में व्यंजनों की प्रांतीय या क्षेत्रीय विशिष्टताएं हैं। लेकिन फलां खाना हिंदू या मुस्लिम है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता।
हां, खाना परोसने या उसे खाने के तौर-तरीकों में अंतर हो सकता है। धर्म की दृष्टि से खाने में अगर कोई बुनियादी अंतर है तो वह मांसाहार को लेकर है, क्योंकि मुसलमान प्राणियों का हलाल (इस्लामिक रीति से वध किया हुआ) और हिंदू झटका मांस ही खाते हैं। जोमाटो पर एक अपुष्ट आरोप यह है कि वह हलाल मांस ही सब को डिलीवर करता है, जो कि हिंदू धार्मिक मान्यताओ के खिलाफ है। (यह बात अलग है कि ज्यादातर नॉन वेज रेस्टारेंटों में मुसलमानो से ज्यादा भीड़ हिंदू और गैर मुसलमानों की होती है)। नॉन वेज छोड़ दें तो शाकाहारी खाने में हिंदू गैर हिंदू विभाजन की ज्यादा गुंजाइश नहीं है।
बहुत से मांसाहारी हिंदू भी श्रावण मास में मांसाहार त्याग देते हैं। लेकिन अमित शुक्ल ने ऑर्डर कैंसल करने का कारण मांसाहार को नहीं, बल्कि फूड पार्सल लाने वाले व्यक्ति के धर्म को बताया है। इस लाइन को सही माना जाए तो हिंदुअों को खाना ही क्यों बहुत सारी दूसरी चीजों को भी छोड़ना पड़ेगा। मसलन हर पूजा के बाद हाथों में बांधा जाने वाला पवित्र कलावा और माता की चुनरी बनाने वाले ज्यादातर मुसलमान ही हैं। ये कलावा नारा प्रयागराज के पास दो गांव आल्हादगंज और खंजानपुर के मुस्लिम परिवार बनाते हैं। कल को कलावा और चुनरी के बारे में भी कहा जा सकता है कि वह मुस्लिम हाथों से निर्मित है, इसलिए इसे बांधना बंद किया जाए या फिर केवल हिंदुओ के हाथों बना कलावा ही बांधा जाए।
दूसरा सवाल कि क्या मुसलमान के हाथों डिलीवर किया खाना हिंदू को अहिंदू बना सकता है? जोमाटो को लेकर जो ट्विटर वाॅर चला और न्यूज साइट्स पर प्रतिक्रियाएं आई, उससे लगता है कि हाल में यूपी के एक मुस्लिम नेता द्वारा मुसलमानों से हिंदू दुकानदारों से सामान न खरीदने के आव्हान की यह प्रतिक्रिया है। लेकिन इस तरह के अभियान तो सोशल मीडिया में पहले भी चल चुके हैं। मकसद यही था कि मुसलमानों को किसी तरह हिंदू घरों तक आने से रोका जाए, क्योंकि इससे लव जिहाद का अंदेशा है।
हालांकि इस अभियान का हश्र भी चीनी सामान के बहिष्कार अभियान की तरह ही हुआ। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अभी यह मुद्दा क्यों उछाला गया है? संदेश साफ है कि मुसलमानों को खाने और खाद्य परिवहन के मुददे पर भी अलग-थलग किया जाए। ट्विटर पर एक ने तो यहां तक लिखा कि खाने के को लेकर सेक्युलरिज्म हिंदुओ पर न थोपा जाए। हो सकता है यह अभियान अभी और जोर पकड़े। क्योंकि यहां जोमाटो तो एक निमित्त भर है। अच्छी बात यह है कि जोमाटो ने इस ‘खाद्य साम्प्रदायिकता’ का सटीक जवाब यह कहकर दिया है कि खाना अपने आप में धर्म है।
अर्थात ऐसा धर्म जो आस्था से कम पेट और जायके से ज्यादा जुड़ा है। धर्म, जो केवल इहलोक और उदर सुख की चिंता करता है। धर्म, जो व्यंजनों के रसास्वादन में ही आत्मिक आनंद को खोज लेता है। धर्म, जो हर भोजनेच्छुक को तृप्त करने में ही ईश्वर की सेवा मानता है, बिना यह देखे कि उसे परोसने वाले हाथ ओम, अल्लाह या गॉड लिखा है।
यही एकमात्र ( रसरंजन को छोड़कर ) धर्म है, जो भोजन के माध्याम से सामाजिक-धार्मिक समरसता और एकात्मता का संदेश देता है। कोई इसे नकारना चाहे तो नकार सकता है, लेकिन खारिज हरगिज नहीं कर सकता। क्योंकि ‘आनंद’ ही इस ‘धर्म’ का एकमात्र साध्य है।
लेखक – अजय बोकिल
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के संपादक है
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