शहज़ादी को गूलर से बहुत प्यार था. उनके बंगले के पीछे तीन बड़े-बड़े गूलर के पेड़ थे. वे इतने घने थे कि उसकी शाखें दूर-दूर तक फैली थी. स्कूल से आकर वह अपने छोटे भाइयों और अपनी सहेलियों के साथ गूलर के पेड़ के नीचे घंटों खेलती. उसकी दादी उसे डांटते हुए कहतीं, भरी दोपहरी में पेड़ के नीचे नहीं खेलते. पेड़ पर असरात (जिन्नात) होते हैं और वह बच्चों को गूलर के पेड़ पर असरात होने की तरह-तरह की कहानियां सुनाया करतीं. लेकिन बच्चे थे कि लाख ख़ौफ़नाक कहानियां सुनने के बाद भी डरने का नाम नहीं लेते थे. दोपहरी में जैसे ही दादी जान ज़ुहर (दोपहर) की नमाज़ पढ़ कर सो जातीं, बच्चे गूलर के पेड़ के नीचे इकट्ठे हो जाते और फिर घंटों खेलते रहते. उनकी देखा-देखी आस-पड़ौस के बच्चे भी आ जाते.
जब गूलर का मौसम आता और गूलर के पेड़ लाल फलों से लद जाते तो, शहज़ादी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. स्कूल में वह सबको बताती कि उनके गूलर के पेड़ फलों से भर गए हैं और वह सबको घर आकर गूलर खाने की दावत देती. उसकी सहेलियां घर आतीं और बच्चे गूलर के पेड़ पर चढ़कर गूलर तोड़ते. दादी जान देख लेतीं, तो खू़ब डांटती और कहतीं, गूलर की लकड़ी कमज़ोर होती है. ज़रा से बोझ से टूट जाती है. ख़ैर, बच्चों ने पेड़ पर चढ़ना छोड़ दिया. चढ़ते भी तो नीचे तने के पास मोटी शाख़ों पर ही रहते. कोई भी ज़्यादा ऊपर नहीं चढ़ता. एक बार शहज़ादी का भाई गूलर पर चलने की कोशिश कर रहा था, और दादी आ गईं. डर की वजह से वह घबरा गया और नीचे गिर गया. उसके हाथ की एक हड्डी पर चोट आई. महीनों प्लास्तर चढ़ा रहा. इस हादसे के बाद बच्चों ने गूलर पर चढ़ना छोड़ दिया. बच्चे एक पतले बांस की मदद से गूलर तोड़ने लगे.
वक़्त बदलता रहा और एक दिन उसके घर वालों ने वह बंगला बेच दिया. शहज़ादी जब कभी उस तरफ़ से गुज़रती, तो गूलर के पेड़ को नज़र भर के देख लेती. कुछ दिन बाद बंगले के नये मालिक ने गूलर के तीनों पेड़ कटवा दिए. शहज़ादी को पता चला, तो उसे बहुत दुख हुआ. उसे लगा मानो बचपन के साथी बिछड़ गए. बरसों तक या यूं कहें कि गूलर के पेड़ उसकी यादों में बस गए थे. शहज़ादी बड़ी हुई और दिल्ली में नौकरी करने लगी. एक दिन वह हज़रत शाह फ़रहाद के मज़ार पर गई. वहां उसने गूलर का पेड़ देखा. यह गूलर का पेड़ उतना घना नहीं था, जितने घने उसके बंगले में लगे पेड़ थे. पेड़ की शाख़ें काट दी गई थीं, शायद इसलिए क्योंकि आसपास बहुत से घर थे. पेड़ पर पके गूलर लगे थे और ज़मीन पर कुएं के पास भी कुछ गूलर पड़े थे. शहज़ादी ने गूलर उठाया, उसे धोया और खा लिया.
मानो ये गूलर न होकर जन्नत की कोई नेमत हों. वह अकसर जुमेरात को दरगाह पर जाती और गूलर को देख कर ख़ुश होती. इस बार काफ़ी दिनों बाद उसका मज़ार पर जाना हुआ, लेकिन इस बार उसे गूलर का पेड़ नहीं मिला, क्योंकि उसे काट दिया गया था. शहज़ादी को बहुत दुख हुआ. अब वह उस मज़ार पर नहीं जाती, क्योंकि उसे गूलर याद आ जाता. किसी पेड़ का कटना उसे बहुत तकलीफ़ देता है. वह सोचती है कि काश कभी उसके पास एक ऐसा घर हो, जिसमें बड़ा सा आंगन हो और वह उसमें गूलर का पेड़ लगाए. उसका अपना गूलर का पेड़. उसे उम्मीद है कि कभी तो वह वक़्त आएगा, जब उसकी यादों में बसे गूलर के पेड़ उसके आंगन में मुस्कराएंगे.
–फ़िरदौस ख़ान
फ़िरदौस ख़ान एक पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं। वह कई भाषाओं की जानकार हैं। उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं। उन्होंने अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का संपादन भी किया।