खंडवा – देश के ख्यात साहित्यकारों द्वारा सम्मान लौटाने की परंपरा को लेखिका व फिल्म निर्देशक सई परांजपे ने लेखकों की अपनी सोच बताया। उन्होंने कहा कि जब सम्मान देने वालों व प्राप्त करने वालों के विचार मेल नहीं खाते,तब ऐसी स्थिति बनती है। हालांकि लेखक सुधींद्र कुलकर्णी पर कालिख पोतने के मामले पर अरूचि जताई। उन्होंने कहा कि इस तरह का विरोध भी जायज नहीं है।
खंडवा में सईं परांजपे किशोरकुमार सम्मान लेने आई थीं। उन्होंने कहा कि मुझे फिल्म निर्देशन से ज्यादा लेखन का शौक है। केवल 8 साल की उम्र में ही मेरी एक पुस्तक छप गई थी। कालेज लेबल पर तो मैंने ऊंचा मकाम साहित्य जगत में हासिल कर लिया था। सई परांजपे ने कहा कि लेखन से दुनिया की मानसिकता बदली जा सकती है। उन्हें जब छोटे लेबल पर झंडे व सम्मान पदक मिलते थे। उनसे वे प्रभावित नहीं होती थीं। वे चाहती थीं कि बड़े लेबल के सम्मान मिलें तो उसकी बात ही और है।
अंतर्राष्ट्रीय कान समारोह में भी उनकी फिल्मों के लेखन व निर्देशन को बेस्ट पुरस्कार मिले। सई परांजपे अब ज्यादा लिखा नहीं जाता। वे खुद को ज्यादा सेंसीटिव मानती हैं। गरीबी,मजबूरी व लाचारी को प्रभावी ढंग से निर्देशित करना उन्हें बखूबी आता है। यह तभी संभव है, जब उन परिस्थितियों को जीया जाए। उनमें रच-बस जाया जा सके।
उनकी फिल्म चश्मे बद्दूर व कथा, स्पर्श के बारे में कहा कि वे नहीं चलीं। इसका मलाल नहीं है। वे समाज में एक अच्छा मैसेज दे सकीं। इसमें सफल रहीं। यह बड़ी बात है। उन्होंने कहा कि मैं वृद्ध जरूर हो गई हूं। लेकिन मेरी सोच देश के अंदरूनी हिस्सों में रचे बसे कामन मैन को खोजने में लगी रहती हैं। पूरी ऊर्जा के साथ आज भी युवाओं जैसी सोच रखती हूँ।
उन्होंने कहा कि किशोरकुमार का एक गीत नसीरउद्दीन शाह पर मेरी फिल्म में लिया था। गीत के समय मैं रिकार्डिंग स्टूडियो नहीं जा सकी। सहायक को भेज दिया था। लेकिन जब मैंने गीत सुना तो किशोरकुमार से फोन पर बात की। उन्हें लाइव गाते न देख पाने का आज भी मलाल दिल में रहता है।