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Sunday, November 24, 2024

अपनी पहचान खोता ऐतिहासिक शहर मेरठ

meerut

ऐतिहासिक शहर मेरठ। इस शहर को इस बात पर बहुत नाज है कि भारत की जंग-ए-आजादी की पहली चिंगारी इसी शहर से भड़की थी। जंग-ए-आजादी की लड़ाई में शहीद होने वालों की फेहरिसस्त गवाह है इस बात की कि हिंदुस्तान को आजादी दिलाने में 10 मई 1857 से लेकर 15 अगस्त 1947 तक हिंदुओं और मुसलमानों ने बराबर की कुरबानियां दी थीं। मेरठ के लोगों को इस पर नाज है कि हमने ही सबसे पहले देश को आजाद कराने के लिए लड़ाई शुरू की थी। नाज तो इस पर भी है कि हम दुनियाभर में खेलों का सामना भेजते हैं। बेहतरीन कपड़ा बुनते हैं। पूरी दुनिया हमारी रेवड़ी और गजक की दीवानी है। कैंचियां भी मेरठ शहर की पसंद की जाती हैं। इतराते तो इस बात पर भी हैं कि हफीज मेरठी इसी सरजमीं पर पैदा हुए थे, तो कवि हरिओम पवार का नाम भी मेरठ शहर से ही जुड़ा है। न जाने कितनी हस्तियां इस शहर से वाबस्ता रहीं, जिनके नाम से मेरठ को पहचाना जाता है।

अगर इन बातों पर गर्व है, तो मेरठ को इस बात पर भी शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए कि दुनियाभर में इसी शहर के लोगों ने इस शहर को ‘दंगों का शहर’ के लिए भी कुख्यात किया है। किसी दूसरे शहर में जब कोई यह बताता है कि मेरठ से ताल्लुक रखता हूं, सामने से जवाब आता है कि वहां सांप्रदायिक दंगे बहुत होते हैं। इससे ज्यादा शर्मसार करने वाली बात क्या होगी कि जिस सुबह मेरठ 10 मई 1857 के शहीदों को याद कर रहा था, दोपहर तक सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस गया। मेरठ अपने माथे पर एक और दंगे का दाग लगवा बैठा। इस शहर ने छोटे-मोटे दंगों से लेकर 1982 और 1987 के खूंखार दंगे भी देखे हैं। ‘दंगों का शहर’ का कलंक मेरठ कभी नहीं धो पाया। कभी-कभी लगता है कि इस शहर के लोग इतने परिपक्व हो गए हैं कि यह कलंक धुल जाएगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। 1987 के खूंखार दंगों के निशां अभी पूरी तरह से मिटे नहीं हैं। वे लोग उन दिनों को याद करते हुए कांप उठते हैं, जिन्होंने उन दंगों को झेला और जिसकी आग में कितनों के अपने जल मरे। हां, इतना शऊर तो आया है कि अब दंगा शहर के दूसरे इलाकों तक नहीं पहुंचता।

कहते हैं कि मेरठ नए मिजाज का शहर है। वाकई ऐसा ही है। यहां किस बात पर कब दंगा भड़क जाएगा, कहना मुश्किल है। इसी शहर के बारे में कहा जाता है कि यहां अंडा फूटने पर भी दंगा हो जाता है। यह बात यूं ही नहीं कही जाती। 1993 में मात्र अंडा फूटने पर दंगा भड़क उठा था। दरअसल, सियासत ने मेरठ में कुछ इस तरह की साजिशें रची हैं कि उनसे पार पाना मुश्किल लग रहा है। इंसानों को हिंदू-मुसलमान में बांट दिया गया। आबादियां बांट दी गर्इं। यहां तक कि दिलों का बंटवारा करने की नापाक कोशिशें भी की जाती हैं। जब-जब यह लगता है कि अब मेरठ के लोग छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, तब-तब सियासत ऐसी चाल चलती है कि हिंदुओं और मुसलमानों को आमने-सामने कर दिया जाता है। 10 मई को जिस तीरगरान इलाके में प्याऊ को लेकर भारी बवाल हुआ, उस पर पहले से ही विवाद है। विवाद भी नया नहीं, बहुत पुराना है। 1952 से मामला कोर्ट में है और कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने के आदेश दे रखे हैं। यह सवाल मौजूं है कि विवादित जगह पर किसी भी तरह का निर्माण किया ही क्यों जा रहा था? बेहतर तो यह होता कि दूसरे पक्ष की सहमति से कोई निर्णय लिया जाता। यह ठीक है कि पानी की प्याऊ की का निर्माण किया जा रहा था। इसके बावजूद भी दूसरे पक्ष की सहमति लेनी जरूरी तो थी ही। यदि निर्माण हो भी रहा था, तो दूसरे पक्ष को कानून का सहारा लेकर उसे रुकवाना चाहिए था। आखिर देश में कानून नाम की भी कोई चीज है या नहीं? खुद ही फैसला करने की जिद का नतीजा बड़े बवाल के रूप में सामने आया है। गलती दोनों तरफ से हुई। नतीजा भयंकर बवाल हुआ और एक ऐसा युवक जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह नौ बहनों का इकलौता भाई है। विवादित स्थल अपनी जगह कायम रहेगा। लेकिन यदि उस नौजवान को कुछ हो गया तो उसकी भरपाई जिंदगीभर नहीं पाएगी।

एक दो दिन में शहर अपनी गति पकड़ लेगा। लेकिन इम्तहान के दिन खत्म नहीं हुए हैं। खुफिया एजेंसियां आशंका जता चुकी हैं कि लोकसभा चुनाव के परिणामों के दिन यानी 16 मई को खुराफाती तत्व ऐसा कुछ कर सकते हैं, जिससे शहर में बदअमनी फैल जाए। शांति बनाए रखने की कसौटी पर न केवल मेरठ है, बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहर शामिल हैं। मुजफ्फरनगर में भी शरारती तत्व दोबारा सिर उठा रहे हैं। अविश्वास के घटाटोप अंधकार में ऐसा नहीं है कि उजाले की उम्मीद की कोई किरण है ही नहीं। जब अखबारों में हिंसा की खबरों के बीच ऐसी खबर नजर पर आती है, जो यह बताती है कि कैसे दंगाइयों के बीच फंसे बच्चों या बड़ों को निकाला गया, तो लगता है कि हमारी आंखों का पानी अभी पूरी तरह खुश्क नहीं हुआ है। आंखों के कहीं किसी कोने में नमी बाकी है, जो उम्मीद की लौ जलाए रखने में मदद करती है। आपसी सौहार्द की खबरें हौसला देती हैं कि मेरठ में ऐसे इंसान भी रहते हैं, जो नहीं चाहते कि ‘मेरठ दंगों’ के शहर के रूप में कुख्यात रहे।

लेखक सलीम अख्तर सिद्दीकी

मेरठ से प्रकाशित हिंदी दैनिक जनवाणी में सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं।

संपर्कः sarimindia@gmail.com

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