आमतौर पर पर्दा या नकाब या हिजाब प्रथा को इस्लाम धर्म से जोडक़र देखा जाता है। इस प्रथा को लेकर इस्लाम धर्म तथा इस्लामिक देशों में भी न केवल अलग-अलग तरह की राय है बल्कि पर्दा,हिजाब या नकाब धारण करने के महिलाओं के अलग-अलग तरीके भी हैं। अरब के कई देशों में सिर से लेकर पैर के नाखून तक तथा पूरे हाथ ढके रहने को पर्दानशीनी कहा जाता है तो अरब के ही कई देश ऐसे भी हैं जहां सिर से पैर तक पर्दा तो ज़रूर ओढ़ा जाता है परंतु महिलाओं के चेहरे पूरी तरह खुले रहते हैं। भारत,पाकिस्तान तथा बंगलादेश जैसे देशों में जहां पर्दे के रूप में नकाब का इस्तेमाल होता है वहीं दो दशकों से शरीर पर चादर लपेटने को भी पर्दानशीनी के रूप में ही देखा जाता है। अनेक मुस्लिम महिलाएं न$काब तो ओढ़ती हैं परंतु अपनी आंखें खुली रखती हैं। और होंठ व नाक के हिस्से को नकाब से ढक लेती हैं। गोया समय व फैशन के साथ-साथ दुनिया में पर्दे व हिजाब ने भी कई तरह के रंग व रूप बदले हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि इस्लाम धर्म में पर्दे या हिजाब को लेकर एक जैसे इस्लामी दिशा निर्देश कुरान,हदीस या शरिया के तहत जारी किए गए होते तो आज पूरे विश्व में पर्दे या नकाब अथवा हिजाब के भी एक ही तरीके को सर्वमान्य समझा जाता । परंतु विभिन्न देशों व प्रांतों में पर्दे की अलग-अलग व इनके अलग-अलग चलन स्वयं यह प्रमाणित करते हैं कि पर्दा या हिजाब कैसा हो, इस विषय पर इस्लामी जगत एकमत नहीं है।
पर्दे को लेकर दूसरा तथ्य यह है कि भारत सहित कई दक्षिण एशियाई देशों में पर्दा व्यवस्था केवल मुसलमानों में ही नहीं बल्कि दूसरे धर्मों में भी पाई जाती है। घूंघट में रहना,अपने ससुर,जेठ अथवा परिवार के दूसरे बड़े बुज़ुर्गों यहां तक कि गांव-मोहल्ले वालों के सामने पर्दे में रहना या चेहरे पर घूंघट डालकर रखना किसी धर्म विशेष का नहीं बल्कि हमारी संस्कृति का एक हिस्सा है। आज भी हमारे ही देश में महिलाओं की ऐसी बड़ी आबादी मिलेगी जो अपने पति का नाम तक नहीं लेतीं। इसे हम किसी धर्म से जोडऩे के बजाए यदि क्षेत्रीय संस्कृति से जोड़ें तो ज़्यादा बेहतर होगा। भारत,पाकिस्तान तथा बंगला देश वह मुल्क हैं जहां महिलाओं के पर्दे के लिए ही डोली का चलन हुआ करता था। यह डोली केवल मुसलमान ही इस्तेमाल नहीं करते बल्कि हर धर्म की पर्दा नशीन महिलाएं डोली में सवार होकर एक जगह से दूसरी जगह जाया करती थीं। लिहाज़ा पर्दा व्यवस्था को पूरी तरह से मुस्लिम महिलाओं से संबंधित विषय है यह बताना भी उचित नहीं है।
इन सब वास्तविकताओं के बावजूद जब कभी पर्दा या हिजाब के विषय पर चर्चा होती है तो उसे मीडिया द्वारा कुछ इस तरह से पेश किया जाता है गोया मुस्लिम महिलाओं पर मुसलमानों का पुरुष समाज ज़ोर-ज़बरदस्ती कर उनपर पर्दा थोप रहा हो या उन्हें अपनी मरज़ी के अनुसार पर्दे में रहने के लिए बाध्य कर रहा हो। परंतु इस तरह की धारणा पूरी तरह $गलत है। आज मुस्लिम समाज की महिलाएं भी पर्दा व्यवस्था को लेकर पूरी तरह सजग,स्वतंत्र तथा निर्भीक दिखाई देती हैं। जहां शहरी मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा वर्ग स्कूल,कॉलेज तथा उच्च शिक्षा से जुड़ा हुआ है वह स्वेच्छा से इस व्यवस्था को धीरे-धीरे त्याग चुका है वहीं इन्हीं में कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो अपनी मरज़ी से पर्दा करती तो ज़रूर हैं परंतु उनका पर्दा करने का तरीका भी उन्हीं की मरज़ी का होता है जिसे आप पर्दा करना या न करना दोनों ही रूप में देख सकते हैं। पर्दा व्यवस्था को लेकर एक तथ्य यह भी है कि जहां शिक्षित व बुद्धिजीवी महिलाओं का एक बड़ा वर्ग इस व्यवस्था को महिलाओं को $कैद रखने जैसी व्यवस्था बताकर इस का विरोध करता है वहीं इसी समाज की अनेक शिक्षित व इस्लामी उसूलों की पाबंद महिलाएं ऐसी भी हैं जो स्वेच्छा से पर्दा करती भी हैं तथा इस व्यवस्था की पूरी वकालत भी करती हैं। परंतु इस प्रकार की मुस्लिम महिलाओं के आंतरिक विरोध के बावजूद यह कहना किसी भी $कीमत पर सही नहीं है कि मुस्लिम परिवार के पुरुष मुखियाओं द्वारा अपने परिवार की महिलाओं को पर्दा किए जाने के लिए बाध्य किया जाता है।
आज भारत,पाकिस्तान व बंगलादेश जैसे देशों में जहां बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती है वहां की महिलाएं अपने-अपने देशों की सर्वोच्च सेवाओं में तथा राजनीति के शिखर पर दिखाई देती हैं। पर्दा व्यवस्था को इस्लाम धर्म पर कलंक बताने वाले या इसका राजनैतिक विरोध करने वाले क्या यह नहीं देख पाते कि मुस्लिम बाहुल्य देश होने के बावजूद वहां के बहुसंख्य समाज ने समय-समय पर बेगम खालिदा जि़या,शेख हसीना वाजिद तथा बेनज़ीर भुट्टो को अपने देश का प्रमुख चुना? यदि मुस्लिम महिला का पर्दा नशीन होना ज़रूरी ही था तो पर्दा या हिजाब समर्थक रूढ़ीवादी सोच रखने वाले मुसलमानों को इन महिलाओं का इसी विषय पर बहिष्कार कर देना चाहिए था कि यह महिलाएं चूंकि बेपर्दा रहती हैं लिहाज़ा यह इस्लाम के सिद्धांतों तथा रीति-रिवाजों की विरोधी हैं। परंतु इनकी स्वीकार्यता यह प्रमाणित करती है इस्लाम धर्म में पर्दा व्यवस्था एक स्वैच्छिक प्रथा तो हो सकती है परंतु अनिवार्य प्रथा नहीं। भारत व पाकिस्तान में तो कई मुस्लिम महिलाएं कामर्शियल तथा लड़ाकू विमान भी उड़ा रही हैं। भारत व आसपास के कई देशों में मुस्लिम महिलाएं न केवल राजनीति में सक्रिय हैं बल्कि आईएएस व आईपीएस जैसी प्रशासनिक सेवाओं में देखी जा सकती हैं। न्यायालय से लेकर उद्योग जगत तक में मुस्लिम महिलाएं अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रही हैं। खेल व फल्म जगत में भी मुस्लिम महिलाओं ने अपना लोहा मनवाया है। ज़ाहिर है यह महिलाएं यदि पर्दानशीनी को अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा समझतीं तो शायद इतने शिखर तक उनका पहुंच पाना संभव न हो पाता। परंतु इस बुलंदी तक पहुंच कर उन्होंने मुस्लिम महिलाओं का मान-सम्मान भी बढ़ाया है तथा अपनी अगली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का महत्वपूर्ण स्त्रोत भी बनी हैं।
जहां तक महिलाओं पर नियंत्रण रखने, उन्हें पुरुषों के अधीन रखने या उन्हें बंदिशों में रखने का प्रश्र है तो हमारे देश में हिंदू समाज में ही स्वयं को उच्च जाति का बताने वाला ऐसा समाज भी है जो महिलाओं को लडक़ों की बारात में नहीं ले जाता। जिनकी महिलाएं अपने मृतक परिजनों के साथ शमशान घाट में नहीं जा सकतीं। सती प्रथा का प्रचलन इस्लाम धर्म से जुड़ा प्रचलन नहीं था। हमारे देश में किसी समय में एक समाज ऐसा भी था जहां लड़कियों के पैदा होते ही उनकी हत्या कर दी जाती थी। ऐसे ‘विचारवान’ लोगों का मानना था कि परिवार में लडक़ी का पैदा होना भविष्य में उनके सिर नीचा करने का कारण हो सकता है। लिहाज़ा यह प्रचारित करना कि केवल पर्दा व्यवस्था इस्लाम धर्म महिलाओं को $कैद में रखने का प्रतीक है तो ऐसा हरगिज़ नहीं है।
परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय मीडिया $खासकर इस्लाम धर्म के रीति-रिवाजों पर सुनियोजित तरी$के से निशाना साध रहा है। बेहतर होगा कि इस व्यवस्था की अच्छाई या बुराई से निपटने का काम मुस्लिम समाज की ही महिलाओं पर छोड़ दिया जाए। आज की मुस्लिम महिलाएं पर्दा व्यवस्था की बुराईयों,अच्छाईयों तथा उसकी ज़रूरत आदि को स्वयं बेहतर समझती हैं। देश के प्रत्येक समाज को या धर्म के ठेकेदारों को यह चाहिए कि वे दूसरे धर्म अथवा समाज की व्यवस्थाओं में झांकने-ताकने या उसमें टांग अड़ाने के बजाए अपने-अपने समाज की कुरीतियों से निपटने तथा उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें। बजाए इसके कि दूसरे धर्म की रीतियों या मान्यताओं पर उंगली उठाकर या उनकी आलोचना कर सियासत की रोटी सेंकने की कोशिश करें।
निर्मल रानी
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