अमेठी: जिले के शिक्षा विभाग के द्वारा सर्व शिक्षा अभियान और सब पढ़े सब बढ़े जैसे कार्यक्रम का आगाज़ किया गया है देखा जाये तो इसका न केवल व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिये, वरन टीन टप्पर सहित अन्य तरह के रोजगारों में लिप्त परिवार के मुखिया की भूमिका वाले बच्चों को भी शिक्षा अर्जन के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। शिक्षा ही इकलौता ऐसा माध्यम माना गया है, जिसके द्वारा समाज में फैली कुरीतियों और बुराईयों पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।आदि अनादि काल में शिक्षा के लिये गुरूकुलों की अवधारणा रही है। आज़ादी के बाद सरकारी शालायें अस्तित्व में आयीं। अस्सी के दशक तक मिशनरी के स्कूलों में प्रवेश स्टेटस सिंबॉल माना जाता था। उस दौर में अधिकारियों और सेठ साहूकारों के बच्चे ही मिशनरी की शालाओं में प्रवेश पा पाते थे। गरीब गुरबे सरकारी स्कूल में ही शिक्षा पाने के लिये मजबूर हुआ करते थे।
वैसे अस्सी के दशक तक सरकारी स्तर पर संचालित होने वाले बहुउद्देशीय (मल्टीपरपस़) शालाओं में अध्ययन का स्तर काफी हद तक गुणवत्ता वाला माना जाता था।
सरकारें जैसे-जैसे बदलीं, नये प्रयोग आरंभ हुए। नये प्रयोगों के चलते शिक्षा के लोक व्यापीकरण को अंज़ाम दिया जाने लगा। शिक्षा को जन जन तक पहुंचाने के लिये सरकारें संज़ीदा हुईं। शिक्षा का अधिकार कानून अस्तित्व में आया। इसके तहत गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने की व्यवस्था भी की गयी। यह सरकारी और गैर सरकारी शालाओं में समान रूप से लागू की गयी।
इसी के तहत काँग्रेस के शासनकाल में इस अभियान का आगाज़ हुआ। पहले काँग्रेस के द्वारा राजीव गांधी शिक्षा मिशन अस्तित्व में लाया गया फिर अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के समय इसका नाम बदलकर सर्वशिक्षा अभियान रख दिया गया। आज भी यह अभियान जारी है, जिसमें अरबों खरबों रूपये का फंड भी उपलब्ध कराया जाता है।
इस सबके बाद भी अमेठी जिले में परिवार के मुखिया की भूमिका में दुधमुँहे बच्चों से लेकर जवान होती पीढ़ी कचरा बीनती नज़र आती है।जिले के प्रशासनिक मुखिया से अपील है कि सर्व शिक्षा अभियान की सतत न केवल मॉनिटरिंग की जाये,वरन इस तरह की कवायद की जाये ताकि देश के नौनिहाल शिक्षा से वंचित न रह पायें।
रिपोर्ट@राम मिश्रा