हादसे दर हादसे होते रहते है और हर हादसे के बाद कठोर कार्यवाही का आश्वासन मानों यह रोजमर्रा की बात हो गई हो. अभी तक कोई भी सरकार स्कूलों में पढ़ने वाले इन मासूम बच्चों के अभिभावकों को यह भरोसा दिलाने में समर्थ नह है कि अब आगे से इस तरह के हादसे नहीं होंगे। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश कुशीनगर क्षेत्र में मासूम बच्चों को स्कूल ले जा रही एक बस की रेलगाड़ी से टक्कर हो जाने के कारण ह्रदय विदारक दुर्घटना ने फिर सवाल खड़ा किया है क़ि आखिर ऐसे हादसों पर पूर्णविराम लगाने की इच्छाशक्ति किसी भी राज्य एवं केंद्र सरकार के अंदर कब जागेगी । हर बार हादसों के बाद दुर्घटना में हताहत हुए लोगो के परिजनों के लिए मुआवजे की घोषणा कर दी जाती है। इसके बाद घटना की निष्पक्ष जाँच कराकर दोषियो के विरुद्ध कठोर कार्यवाही का केवल आश्वासन देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली जाती है। और इसके बाद दर्दनाक हादसों का यह सिलसिला चलता रहता है।
हादसे दर हादसे होते रहते है और हर हादसे के बाद कठोर कार्यवाही का आश्वासन मानों यह रोजमर्रा की बात हो गई हो. अभी तक कोई भी सरकार स्कूलों में पढ़ने वाले इन मासूम बच्चों के अभिभावकों को यह भरोसा दिलाने में समर्थ नह है कि अब आगे से इस तरह के हादसे नहीं होंगे।
आज स्तिथि यहाँ तक आ पहुची है कि जब तक बच्चे सुरक्षित घर नहीं पहुँच जाते तब तक परिजन चिंता में डूबें रहते है कि कही कोई अनहोनी तो नहीं हो गई , मगर स्कूल प्रबंधन से लेकर प्रशासन और सरकार को शायद अभिभावकों की इस चिंता से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अगर कोई फर्क पड़ता भी है तो वो महज चंद घंटों तक ही सबंधित सरकार की चिंता की वजह बन पाता है। इन हादसों के बाद फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। फिर कुछ दिनों बाद कुशीनगर जैसी दर्दनाक दुर्घटना की खबर सुनाई पड़ जाती है। और फिर वही आश्वासन दे दिया जाता है।
कुशीनगर क्षेत्र में जिस स्कूल बस की टक्कर ने अनेकों बच्चों को असमय ही मौत की नींद में सुला दिया है उस बस का चालक कानों में इयरफोन लगा कर गाने सुन रहा था। इस कारण आती हुई रेलगाड़ी को देखकर घबराएं हुए बच्चों की चीखें उसे सुनाई नहीं दी। इसका नतीजा तत्काल ही एक दर्दनाक हादसे के रूप में सामने आ गया, जिसने केवल कुशीनगर ही नहीं सारे देश को झंझोरकर रख दिया। ऐसे मामलों में कितना ही मुआवजा दे दिया जाए , कितनी ही कठोर सजा दोषियों को दी जाए, परंतु कोई भी मरहम उन माता पिता की पीड़ा को कम नहीं कर सकता , जिन्होंने अपने लाडले नौनिहालो को इस दुर्घटना में खो दिया है ।
यह दुर्घटना इतनी भयावह थी कि मासूम बच्चे क्षण भर में मृत्यु के आगोश में समा गए। प्रारंभिक जानकारी में पता चला है कि मानव रहित क्रासिंग पर यह दर्दनाक हादसा हुआ। अगर उस क्रासिंग पर फाटक या चौकीदार होता तो इससे बचा जा सकता था। यह जिम्मेदारी रेल मंत्रालय की है कि जिन क्रासिंगों पर फाटक नहीं है, वहा चौकीदार की व्यवस्था की जाए ,मगर रेल विभाग इस जिम्मेदारी मानने के लिए तैयार नहीं है।।
गौरतलब है कि 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से सख्त लहजे में कहा था कि भले ही इस काम के लिए आपके पास बजट की दिक्कत हो परंतु मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर हो रही मौतों को रोकना उसकी ही जिम्मेदारी है। इसके लिए हर हाल में पर्याप्त कदम उठाने ही होंगे। आखिर सरकार इस कड़वी सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ सकती है कि कुशीनगर का हादसा मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर हुई पहली दुर्घटना नहीं है।
हर बार ऐसी क्रासिंग निर्दोष नागरिकों की असमय मौतों को आमंत्रण देती है, परंतु उनपर रोक लगाने गंभीरता कोई भी सरकार नहीं दिखाती है। बताया जाता है कि मानव रहित क्रासिंग पर होने वाली दुर्घटनाओं में अब तक 5 हजार लोगो को अपनी जान गवाना पड़ी है, परंतु अब तक ऐसे कोई पुख्ता कदम नहीं उठे है कि ऐसे हादसों पर पूर्णविराम लग सके।
यहाँ यह भी विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि अतीत में पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने एक मानव रहित क्रासिंग पर हुई दर्दनाक दुर्घटना के बाद घोषणा की थी कि जिन रेलवे क्रासिंग पर चौकीदार की व्यवस्था नहीं है वहा अलार्म की व्यवस्था की जाएगी । उन्होंने तो यह आश्वासन भी दिया था कि तीन साल के अंदर देश में सारे मानव रहित क्रासिंग पर ऐसी व्यवस्था करने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है,जिससे होने वाले ऐसे हादसों पर रोक लगाईं जा सके।।
यह घोषणा करने वाले रेल मंत्री सुरेश प्रभु की जगह जब पीयूस गोयल ने ली तो यह आश्वासन फिर दोहराया गया। उसके बाद कुशीनगर हादसे ने फिर फिर सरकार को नींद से जगाया लेकिन सरकार ने फिर वही फिर वही मानसिकता का परिचय दिया। ऐसे मामलों को लेकर कहा जा सकता है कि जब तक सरकारे ऐसे हादसों से सबक न लेने की मानसिकता से मुक्त नहीं होती ,तब तक इसके न होने की आशंका से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। क्या अब रेल मंत्रालय इस दुर्घटना से कोई सबक लेकर तत्काल कोई गंभीर कदम उठाएगा? या फिर वही घिसापिटा रवैया अपनाकर मामले की इतिश्री कर ली जाएगी। आखिर सरकार ऐसे मामलों में कब उद्वलित होगी. यह यक्ष प्रश्न अभी भी देश की जनता पूछ रही है।
लेखक – कृष्णमोहन झा
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)