नए कृषि अध्यादेशों के विरुद्ध चलने वाला किसान आंदोलन जैसे जैसे और लम्बा खिंचता जा रहा है वैसे वैसे आंदोलन के पक्ष में जनसमर्थन भी बढ़ता जा रहा है। इसी क्रम में गत 15 जनवरी को कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रमुख नेताओं की अगुवाई में देश के अनेक राज भवनों के समक्ष किसानों के समर्थन में प्रदर्शन कर नए कृषि अध्यादेशोंका जमकर विरोध किया व इसे किसान विरोधी बताया। विभिन्न राज्यों में कांग्रेस नेताओं की गिरफ़्तारियां भी हुईं। जिस समय कांग्रेस किसानों के पक्ष में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन कर रही थी ठीक उसी समय 83 वर्षीय गांधीवादी नेता व समाज सुधारक अन्ना हज़ारे भी अपने गांव रालेगन सिद्धि में किसानों को अपना समर्थन दे रहे थे तथा वे नए कृषि क़ानूनों को अन्याय पूर्ण बताते हुए पत्रकारों से रूबरू थे।अन्ना हज़ारे निश्चित रूप से भारतीय आंदोलन जगत का वर्तमान समय का सबसे बड़ा नाम हैं तथा अपने अनेक अनशन व आन्दोलनों से कई बार वे विभिन्न राज्य सरकारों व केंद्र सरकारों को अपने अनेक फ़ैसले वापस लेने व अपनी जनहितकारी मांगें मनवाने के लिए बाध्य कर चुके हैं।
वर्तमान किसान आंदोलन को अन्ना हज़ारे का समर्थन इसलिए और भी अहम है क्योंकि इस आंदोलन को बदनाम करने के लिए केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार नेताओं की ओर से बार बार यह कोशिश की गयी कि इस आंदोलन को किसी तरह देश विरोधी आंदोलन साबित कर दिया जाए। इसके लिए तरह तरह के हथकंडे भी अपनाये गए व रणनीतियां भी बनाई गईं। किसान संगठनों में फूट डालने की कोशिश की गयी तो कभी अपने पक्ष में नई नवेली किसान यूनियन बनाकर उसका समर्थन मिलने जैसा ढोंग भी रचा गया। कभी कहा गया कि इस आंदोलन के पीछे कांग्रेस व कम्युनिस्ट जैसे राजनैतिक दल सक्रिय हैं।
गोया विपक्षी दलों को विपक्ष की अपनी भूमिका अदा करने में भी सत्ताधारियों को तकलीफ़ हो रही है। बहरहाल इन सभी आरोपों,प्रत्यारोपों व विवादों के बीच अन्ना हज़ारे का यह एलान करना कि वे जनवरी माह के अंत में किसानों के समर्थन में दिल्ली में अपने जीवन का आख़िरी अनशन करेंगे,बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि वर्तमान सरकार के विरुद्ध विभिन्न मुद्दों को लेकर बार बार उभरने वाले जनाक्रोश के मध्य अन्ना हज़ारे की ख़ामोशी उनके प्रति संदेह ज़रूर पैदा कर रही थी। ख़ास तौर पर इस बात को लेकर कि जब 2011-12 में अन्ना हज़ारे ने कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मनमोहन सिंह सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेड़ी थी और जनलोकपाल बनाए जाने की मांग की थी उस समय वर्तमान सत्ताधारियों ने जोकि उस समय विपक्ष में थे,अन्ना हज़ारे के आंदोलन का खुलकर साथ दिया था।
तब से लेकर अब तक विभिन्न मुद्दों पर अन्ना हज़ारे की ख़ामोशी इस बात की तसदीक़ कर रही थी कि अन्ना हज़ारे के उस 2011 के आंदोलन के पीछे हो न हो भारतीय जनता पार्टी का ही हाथ था। यह शंका तब और मज़बूत हो गयी जबकि अन्ना हज़ारे के आंदोलन के समय तक ग़ैर राजनैतिक चेहरा बने रहने वाले पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल विक्रम सिंह व पूर्व आई पी एस अधिकारी किरण बेदी जैसे अन्ना समर्थकों ने इसी अन्ना आंदोलन से अपना चेहरा चमकाया और बाद में अन्ना का साथ छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। इनमें जहाँ विक्रम सिंह केंद्र में मंत्री के रूप में शोभायमान हैं वहीँ किरण बेदी पांडेचरी की लेफ़्टिनेंट गवर्नर के पद पर विराजमान हैं। राजनीति में इतने बड़े पदों को प्राप्त करने के बाद भ्रष्टाचार के विरुद्ध परचम उठाने वाले इन अवसरवादी नेताओं को आजतक न तो जनलोकपाल के गठन की मांग करने की ज़रुरत महसूस हुई न ही गत 6-7 वर्षों में इन्हें कोई भ्रष्टाचार नज़र आया। और इन्हीं नेताओं के साथ साथ अन्ना हज़ारे की ख़ामोशी भी स्वभाविक रूप से संदेह पैदा कर रही थी।
परन्तु अब अन्ना हज़ारे ने केंद्र सरकार को 2011 के उस आंदोलन को याद दिलाया है कि किस तरह 2011 में आपके वर्तमान मंत्रियों ने संसद के विशेष सत्र में मेरे आंदोलन की तारीफ़ की थी। अन्ना ने यह भी बताया कि वे कई बार कृषि क़ानूनों की कमियों को लेकर तथा किसान आंदोलन के प्रति अपनी चिंताओं को लेकर सरकार को कई पत्र लिख चुके हैं। परन्तु उनके किसी पत्र का अब तक कोई जवाब नहीं मिला। अन्ना के अनुसार वे अपने प्रस्तावित अनशन के संबंध में भी दिल्ली के संबध अधिकारियों को अनशन की अनुमति व अनशन स्थल हेतु पत्र लिख चुके हैं परन्तु उसका भी उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। अन्ना के पत्रों का उत्तर न देना अपने आप में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए काफ़ी है कि यह सरकार आज उन्हीं अन्ना हज़ारे को कितनी गंभीरता से ले रही है कल जिनके कांधों पर सवार होकर इन्हीं ‘अवसरवादियों’ ने केंद्रीय सत्ता तक का सफ़र तय किया था।
बहरहाल अन्ना हज़ारे का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा गया अपने ‘आख़िरी अनशन’ संबंधी पत्र व उनकी किसानों के आंदोलन को दी जाने वाली हिमायत से जहाँ किसान आंदोलन को और बल मिलेगा वहीं यह अनशन किसान आंदोलन के उन आलोचकों व विरोधियों को भी असमंजस में डालेगा कि जो इस आंदोलन को कभी ख़ालिस्तानी,कभी पाकिस्तानी,कभी कांग्रेसी तो कभी कम्युनिस्ट,कभी माओवादी तो कभी दलालों व कमीशनख़ोरों का आंदोलन बताकर इसके महत्व को कम करने व इसे बदनाम करने की कोशिश कर रहे थे। देखना दिलचस्प होगा कि ऐसे किसान विरोधी लोग अब इसी किसान आंदोलन को अन्ना हज़ारे की ‘आख़िरी अनशन’ का साथ मिलने के बाद भी इस आंदोलन को बदनाम करने के लिए अब और कौन सी नई थ्योरी गढ़ेंगे ?
:-तनवीर जाफ़री