2014 में प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत बड़े जोश व उत्साह से की थी। महात्मागांधी के चित्रों व उनके स्वच्छता संबंधी विचारों से लेकर देश के अनेक बड़े छोटे फ़िल्मी सितारों व विशिष्ट हस्तियों तक को स्वच्छता मिशन के प्रचार प्रसार में शामिल किया गया था। स्वयं प्रधानमंत्री ने झाड़ू देने से लेकर समुद्र के किनारे से कूड़ा चुनने तक के कई फ़ोटो शूट कराकर यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि देश के लोगों के स्वास्थ्य के लिए सफ़ाई का कितना महत्व है। देश के अधिकांश मंत्री,मुख्य मंत्री,सांसद व विधायक भी जनता को सफ़ाई के लिए प्रेरित करने हेतु अनेक बार झाड़ू चलाते हुए मीडिया में प्रचार पाते देखे जा चुके हैं। अब तक हज़ारों करोड़ रूपये इस अभियान पर ख़र्च हो चुके हैं। कई हज़ार करोड़ रूपये तो सिर्फ़ इस मिशन के प्रचार में ही ख़र्च किये जा चुके हैं। पूरे देश में सफ़ाई से संबंधित लाखों आधुनिक वाहन ख़रीदे गए हैं। गली गली घर घर कूड़ा उठाने वालों को ठेके पर रखा गया। भाजपा शासित कई राज्यों में तो घर घर प्लास्टिक के कूड़ेदान भी दिए गए हैं। लगभग सभी शहरों व क़स्बों में छोटे बड़े कूड़ेदान रखे गए जिसमें आम लोग कूड़ा करकट डाल सकें। कई शहरोंमें कूड़ा उठाने वाली गाड़ियाँ कूड़ा उठाते व इकठ्ठा करते समय लाऊड स्पीकर पर स्वच्छता संबंधी नारे व गीत बजाती रहती हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि मोदी सरकार ने देश को स्वच्छ बनाने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करने का संकल्प लिया है। 2014 से अब तक इस अभियान पर कितने पैसे ख़र्च हो चुके हैं इसका अंदाज़ा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने केवल 2020-21 के वित्तीय बजट में मात्र स्वच्छ भारत अभियान के लिए 12 हज़ार तीन सौ करोड़ रूपये निर्धारित किये हैं। ज़ाहिर सी बात है सरकार द्वारा किया जाने वाला हर ख़र्च भारत का करदाता अदा करता है। इसलिए उन्हीं देशवासियों व करदाताओं को यह जानने का भी हक़ है कि लाखों करोड़ रूपये ख़र्च करने के बाद आख़िर गत सात वर्षों में अब तक भारत कितना स्वच्छ हुआ है ? स्वच्छ हुआ भी है या नहीं ? या कहीं पहले से भी अधिक गन्दा तो नहीं हो रहा ? इसका यदि सही जायज़ा लेना है तो पर्यटक स्थलों या महानगरों के मुख्य मार्गों पर नहीं बल्कि शहरों व क़स्बों की गलियों तथा गांव देहात के उन इलाक़ों में झांकने की ज़रुरत है जहां देश की अधिकांश आबादी यानी असली भारत रहता है।
आइये स्वच्छता अभियान के दावों और हक़ीक़त के मध्य अंतर की कुछ सच्चाइयों पर नज़र डालते हैं। सर्वप्रथम तो हमें इस बात को किसी सार्वभौमिक सत्य की तरह स्वीकार कर लेना चाहिए कि भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण और समाप्त न हो पाने वाला हिस्सा बन चुका है। चाहे वह पूर्ववर्ती सरकारें रही हों या उन सरकारों को भ्रष्ट बताकर तथा व्यवस्था से भ्रष्टाचार समाप्त करने का वादा कर सत्ता में आने वाली वर्तमान सरकार। लिहाज़ा स्वच्छता अभियान के योजनाकारों व उन योजनाओं पर अमल करने वाली मशीनरी ने भी इस अभियान में भ्रष्टाचार का खुला खेल खेला है। देश में जहाँ भी कूड़ेदान लगाए गए हैं ज़रा उनकी गुणवत्ता उनके स्थापित करने के तरीक़े व उनके स्थान पर नज़र डालिये। यदि यह कूड़ेदान स्टील के हैं तो यह मान लीजिये कि इससे घटिया स्टील तो आपको बाज़ार में मिलेगी ही नहीं। और यदि प्लास्टिक या फ़ाइबर के हैं तो वह भी निम्नतम क्वालिटी के। दूसरी बात यह कि जहाँ इन्हें स्थापित किया गया है वहां गाय,कुत्ते या आवारा सूअर उन कूड़ेदानों में मुंह मारकर या उनमें घुस कर उन्हें तोड़ फोड़ देते हैं और कूड़ा सड़क पर फैला देते हैं। और इन सबसे महत्वपूर्ण यह कि जितने कूड़ेदान पूरे देश में स्थापित किये गए हैं उनमें से अधिकांश तो आज आपको मिलेंगे ही नहीं। या तो वे चोरी हो चुके हैं या ध्वस्त हो गए। इसी तरह इसी अभियान के तहत देश भर में जितने शौचालय बनाए गए हैं उनके निर्माण की गुणवत्ता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अधिकांश शौचालय या तो टूट फूट गए हैं या उनके दरवाज़े ग़ायब हो चुके हैं या फिर उनकी सीट आदि ध्वस्त हो चुकी हैं।
यही हाल शहरी इलाक़ों में नाले नालियों का भी है। अधिकांश नाले नालियां आपको जाम मिलेंगे। बिहार के दरभंगा से लेकर हरियाणा के अम्बाला तक किसी भी शहर के मुहल्लों बाज़ारों से गुज़ारना मुहाल है। हर जगह नाले नालियां जाम हैं। दुर्गन्ध फैल रही है। मक्खी मच्छर भिनक रहे हैं। बीमारी को खुले आम दावत दी जा रही है। परन्तु सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान का ढोल पीटने व इसे लेकर अपनी पीठ थपथपाने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी जा रही है। हाँ इतना अंतर ज़रूर आया है कि हरियाणा जैसे राज्य में जहां गली मोहल्लों में नालियों की सफ़ाई नगरपालिका कर्मी रोज़ाना किया करते थे वह अब नियमित रूप से सफ़ाई करने के लिए आना बंद कर चुके हैं। अब यदि आप को अपनी गली की नालियां साफ़ करानी हैं तो स्वयं पालिका या निगम के दफ़्तर में फ़ोन करना होगा। उसके बाद निगम या पालिका के सफ़ाई कर्मी अपनी सुविधा के अनुसार 2 दिन से लेकर हफ़्ते तक कभी भी आएँगे और नालियां साफ़ करने की औपचारिकता पूरी कर जाएंगे। फिर नाली से निकला गया गन्दा कचरा नाली से निकलकर नाली के बाहर तब तक पड़ा हुआ बदबू मरता रहेगा जब तक आप दुबारा म्युनिसिपल कमेटी के दफ़्तर में फ़ोन कर कूड़ा उठाने की शिकायत दर्ज नहीं कराते। निगम व पालिका के कर्मचारियों की इस नई व्यवस्था के बारे में स्वयं कर्मचारियों का यह कहना है कि कर्मचारियों की कमी और नई भर्तियों के न हो पाने की वजह से पहले की तरह नालियों की नियमित सफ़ाई नहीं हो पा रही है।
इन हालात में प्रश्न यह उठता है कि स्वछता अभियान के नाम पर विज्ञापनों पर तथा स्वच्छ भारत अभियान के ब्रांड अंबेस्डर्स पर भारी भरकम धनराशि ख़र्च करना ज़्यादा ज़रूरी है या नए कर्मचारियों की भर्ती पर ? कई बार ठेके पर कूड़ा उठाने वाले अचानक कूड़ा उठाना बंद कर देते हैं। काफ़ी दिन बाद आने पर जब उनसे पूछा जाता है कि पिछले दिनों क्यों नहीं आए ? तो जवाब मिलता है कि ठेकेदार ने पैसे नहीं दिये थे। बिहार के दरभंगा,मुज़फ़्फ़रपुर यहाँ तक कि राजधानी पटना व लहेरिया सराय जैसे शहरों के मुख्य बाज़ारों में यदि आप मुंह पर रुमाल रखे बिना घूमें तो बीमार होने की पक्की गारंटी समझिये। यहाँ भी किसी नाले नाली में पानी बहता हुआ नहीं देख सकते। हाँ किसी कूड़े के ढेर पर मरा हुआ सुवर या कुत्ता बदबू व बीमारी फैलाता हुआ ज़रूर मिल जाएगा। इसलिए कहना ग़लत नहीं होगा कि स्वच्छता अभियान के दावे और हक़ीक़त में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। स्वच्छता अभियान की हक़ीक़त तो बक़ौल
‘आतिश’ कुछ ऐसी है कि-
बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का।
जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला।।
- निर्मल रानी