भोपाल – सामाजिक कार्यकर्त्ता और समाजवादी जन परिषद/ श्रमिक आदिवासी संगठन के पद अधिकारी अनुराग मोदी ने आम आदमी पार्टी के मध्यप्रदेश संयोजक अलोक अग्रवाल को खुला पत्र लिख कई सवाल खड़े किए। अनुराग मोदी ने अपने पत्र में कहा की नीतियों से समझौता क्यों किया गया। मोदी ने कहा की जब हम जनसंगठनों के माध्यमों से भाजपा कांग्रेस को नीतियों को लेकर लताड़ लगते रहे है कि वो अन्तराष्ट्रीय कार्पोरेट और अमेरिका के दबाव में इन नीतियों को अपना रही है। क्या आज हम लोग भी उन्ही नीतियों के शिकार हो रहे है।
आये आप को बताए क्या कुछ लिखा है आप के कार्यकर्त्ता और और जनसंगठन के पदाधिकारी अनुराग मोदी ने :-
प्रशांत-योगेन्द्र और अरविन्द केजरीवाल मामले में आज तुम्हारा बयान अख़बारों में पढने को मिला – प्रशांत अपने पिताजी शांती भूषण के दबाव में समझौते से पीछे हटे और फिर योगेन्द्र! मुझे समझ नहीं आया; नीतियों से ऐसा कौन सा समझौता हो सकता है- जिसकी तुम बात कर रहे हो? चूंकि, तुमने इस बारे में सार्वजनिक बयान दिया है, इसलिए मुझे मजबूरी में यह खुला पत्र लिखना पढ़ रहा है।
हम लोगों ने 20 साल म. प्र. के जनसंगठनों की प्रक्रिया में साथ काम करते हुए, कांग्रेस और भाजप जैसी स्थापित पार्टियों की विकास नीति, वैश्वीकरण, निजीकरण का विरोध, और संसाधनों पर लोगों का अधिकार इन मुद्दों पर कंधे से कंधा मिलाकर- कई रैली; सेमिनार और गोष्टियाँ की है| कांग्रेस और भाजप को इस बात के लिए लताड़ा है- कि वो अन्तराष्ट्रीय कार्पोरेट और अमेरिका के दबाव में इन नीतियों को अपना रही है। जब तुम आम आदमी पार्टी (आप) में शामिल हुए तब उसकी नीति भी इन पार्टियों से जुदा नहीं थी| इसलिए हमारा मतभेद भी था, लेकिन इसके बावजूद, हमसे कई लोगों ने इस उम्मीद में ‘आप’ का साथ दिया था कि रफ़्ता-रफ़्ता पार्टी के लोकतांत्रिक मार्गों को अपना अंदरुनी बहस; मंथन के जरिए ‘आप’ को जनसंगठनों की नीतियों की तरफ मुडेगी। लेकिन तुम्हारे बयानों से तो लग रहा है कि ‘आप’ में इसके लिए जगह नहीं है और तुम सब क समझौते की राजनीति बनते जा रहा है? इसलिए इस बारे में मेरे निम्न सवाल है।
एक, हमने संघर्ष के दौरान लोकतांत्रिक तरीकों से अपने विवाद सुलझाए है। योगेन्द्र और प्रशांत हमारे इस संघर्ष के साथी रहे है| उनके मुद्दों से हमारे मतभेद हो सकते है| मेरे उनसे अनेक मतभेद है, जिनपर में खुलकर लिखता रह हूँ। लेकिन, जिस तरह से ‘आप’ की राजनैतिक मामलों की समीति से यह दोनों बाहर किए गए, क्या वो एक लोकतांत्रिक तरीका था? और पार्टी में स्वराज्य और पारदर्शिता और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के जो मुद्दे यह दोनों नेता उठा रहे थे, उससे से किसी तरह का निज़ी समझौता हो सकता था?
दूसरा, क्या आपको नहीं लगता- इन नेताओं व्दारा उठाए गए मुद्दे पर खुली बहस होना चाहिए था? किसी भी पार्टी के ईमानदार और लोकतांत्रिक बने रहने के लिए पार्टी के भीतर विवाद; मंथन; आलोचना; बहस यह जरुरी है?
तीसरा, तुमने अरविन्द केजरीवाल से ज्यादा प्रशांत के साथ काम किया है– लगभग २० साल; क्या तुम्हें लगता है, उस मीटिंग में उनके साथ जो हुआ उस लेकर वो झूठ बोल रहे है?
चोथा, आज ज्यादातर स्थापित दल व्यक्तिवाद की राजनीति से ग्रसित है; पार्टी व्यक्ति के नाम से जानी जाती है, क्या आम आदमी पार्टी भी उससे बच नहीं पा रही है?
आशा है, तुम इन सवालों के जवाब अपनी पार्टी के अन्दर ढूढने के बाद, मुझे तथा हम अभी साथियों को उससे सार्वजानिक रूप से अवगत कराओगे!