प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक अनेकों साधकों, आचार्यों, मनीषियों, दार्शनिकों, ऋषियों ने अपने मूल्यवान अवदानों से भारत की आध्यात्मिक परम्परा को समृद्ध किया है, उनमें प्रमुख नाम रहा है – आचार्य महाप्रज्ञ। उनका जन्म शताब्दी समारोह 30 जून 2019 से प्रारंभ हो रहा है।
वे ईश्वर के सच्चे दूत थे, जिन्होंने जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक आदर्श समाज रचना का साकार किया है, वे ऐसे क्रांतद्रष्टा धर्मगुरु थे, जिन्होंने देश की नैतिक आत्मा को जागृत करने का भगीरथ प्रयत्न किया। वे एक अनूठे एवं गहन साधक थे, जिन्होंने जन-जन को स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की क्षमता प्रदत्त की। वे ऊर्जा का एक पूंज थे, प्रतिभा एवं पुरुषार्थ का पर्याय थे।
इन सब विशेषताओं और विलक्षणताओं के बावजूद उनमें तनिक भी अहंकार नहीं था। पश्चिमी विचारक जी. के चस्र्टटन लिखते हैं-‘देवदूत इसलिए आकाश में उड़ पाते हैं कि वे अपनी महानता को लादे नहीं फिरते।’
आचार्य महाप्रज्ञ को हम बीसवीं एवं इक्कीसवीं सदी के एक ऐसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार कह सकते हैं, जिस परंपरा को महावीर, बुद्ध, गांधी और आचार्य तुलसी ने आलोकित किया है। अतीत की यह आलोकधर्मी परंपरा धुंधली होने लगी, इस धुंधली होती परंपरा को आचार्य महाप्रज्ञ ने एक नई दृष्टि प्रदान की थी। इस नई दृष्टि ने एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात किया था। इस सूत्रपात का आधार आचार्य महाप्रज्ञ ने जहाँ अतीत की यादों को बनाया, वहीं उनका वर्तमान का पुरुषार्थ और भविष्य के सपने भी इसमें योगभूत बने।
प्रेक्षाध्यान की कला और एक नए मनुष्यआध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व के जीवन-दर्शन को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए वे प्रयत्नशील थे। उनके इन प्रयत्नों में न केवल भारत देश के लोग बल्कि पश्चिमी राष्ट्रों के लोग भी जीवन के गहरे रहस्यों को जानने और समझने के लिए उनके इर्द-गिर्द देखे गये थे। आचार्य महाप्रज्ञ ने उन्हें बताया कि ध्यान ही जीवन में सार्थकता के फूलों को खिलाने में सहयोगी सिद्ध हो सकता है।
अपने समय के महान् दार्शनिक, धर्मगुरु, संत एवं मनीषी के रूप में जिनका नाम अत्यंत आदर एवं गौरव के साथ लिया जाता है। वे बीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध एवं इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के ऐसे पावन एवं विलक्षण अस्तित्व थे जिन्होंने युग के कैनवास पर नए सपने उतारे। वे व्यक्ति नहीं, संपूर्ण संस्कृति थे। दर्शन थे, इतिहास थे, विज्ञान थे। आपका व्यक्तित्व अनगिन विलक्षणताओं का दस्तावेज रहा है। तपस्विता, यशस्विता और मनस्विता आपके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व में घुले-मिले तत्त्व थे, जिन्हें कभी अलग नहीं देखा जा सकता।
आपकी विचार दृष्टि से सृष्टि का कोई भी कोना, कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। विस्तृत ललाट, करुणामय नेत्र तथा ओजस्वी वाणीµये थे आपकी प्रथम दर्शन में होने वाली बाह्य पहचान। आपका पवित्र जीवन, पारदर्शी व्यक्तित्व और उम्दा चरित्र हर किसी को अभिभूत कर देता था, अपनत्व के घेरे में बाँध लेता था।
आपकी आंतरिक पहचान थी अंतः करण में उमड़ता हुआ करुणा का सागर, सौम्यता और पवित्रता से भरा आपका कोमल हृदय। इन चुंबकीय विशेषताओं के कारण आपके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आपकी अलौकिकता से अभिभूत हो जाता था और वह बोल उठता था कितना अद्भुत! कितना विलक्षण!! कितना विरल!!! आपकी मेधा के हिमालय से प्रज्ञा के तथा हृदय के मंदरांचल से अनहद प्रेम और नम्रता के असंख्य झरने निरंतर बहते रहते थे। इसका मूल उद्गम केंद्र थालक्ष्य के प्रति तथा अपने परम गुरु आचार्य तुलसी के प्रति समर्पण भाव।
आचार्य महाप्रज्ञ ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतोंµआदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया।
जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों/विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, राजनीतिक अपराधीकरण, लोकतंत्र की विसंगतियों, संभावित परमाणु युद्ध का विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है।
जीवन के नौवें दशक में आचार्य महाप्रज्ञ का विशेष जोर अहिंसा पर रहा। इसका कारण सारा संसार हिंसा के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित होना था। जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभावµऐसे कारण थे जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे थे और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाप्रज्ञ प्रयत्नशील थे। इन विविध प्रयत्नों में उनका एक अभिनव उपक्रम थाµ‘अहिंसा यात्रा’। अहिंसा यात्रा ऐसा आंदोलन बना, जो समूची मानव जाति के हित का चिंतन कर रहा था।
अहिंसा की योजना को क्रियान्वित करने के लिए ही उन्होंने पदयात्रा के सशक्त माध्यम को चुना। ‘चरैवेति-चरैवेति चरन् वै मधु विंदति’ उनके जीवन का विशेष सूत्र बन गया था। इस सूत्र को लेकर उन्होंने पाँच दिसंबर, 2001 को राजस्थान के सुजानगढ़ क्षेत्र से अहिंसा यात्रा को प्रारंभ किया, जो गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, दिल्ली एवं महाराष्ट्र में अपने अभिनव एवं सफल उपक्रमों के साथ विचरण करते हुए असंख्य लोगों को अहिंसा का प्रभावी प्रशिक्षण दिया एवं हिंसक मानसिकता में बदलाव का माध्यम बनी। आचार्य श्री महाप्रज्ञ की इस अहिंसा यात्रा में हजारों नए लोग उनसे परिचित हुए। परिचय के धागों में बंधे लोगों ने अहिंसा दर्शन को समझा, आचार्य महाप्रज्ञ के व्यक्तित्व को परखा और अहिंसा यात्रा को निर्बाध मानकर उसके राही बने थे।
आचार्य महाप्रज्ञ जितने दार्शनिक थे, उतने ही बड़े एवं सिद्ध योगी भी थे। वे दर्शन की भूमिका पर खड़े होकर अपने समाज और देश की ही नहीं, विश्व की समस्याओं को देखते थे। जो समस्या को सही कोण से देखता है, वही उसका समाधान खोज पाता है। आचार्यश्री जब योग की भूमिका पर आरूढ़ होते थे, तो किसी भी समस्या को असमाहित नहीं छोड़ते। समाधान की नई दृष्टि देते हुए उन्होंने अपने वक्तव्य में कहाµ‘‘समाज हो और समस्या न हो, यह कभी संभव नहीं है। एक से दो होने का अर्थ ही है समस्या को निमंत्रण।
समस्या हो और उसका समाधान न हो, यह भी संभव नहीं है। मेरे अभिमत से समस्या का समाधान है अनेकांत-दृष्टि। इस दृष्टि का पूरा उपयोग हो तो कोई समस्या टिक नहीं सकती। केवल राजनीति, समाजनीति या धर्मनीति के पास समाधान नहीं मिलेगा। राजनीति, समाज और धर्म के लोग मिल-जुलकर प्रयत्न करें तो सहज रूप से समाधान निकल आएगा।’’ इसी ध्येय को लेकर उन्होंने समान विचारधारा के लोगों को एक मंच पर लाने का प्रयत्न किया और उसे नाम दिया अहिंसा समवाय।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन इतना महान और महनीय था कि किसी एक लेख, किसी एक ग्रंथ में उसे समेटना मुश्किल है। यों तो आचार्य महाप्रज्ञ की महानता से जुड़े अनेक पक्ष हैं। लेकिन उनमें महत्त्वपूर्ण पक्ष है उनकी संत चेतना, आँखों में छलकती करुणा, सोच में अहिंसा, दर्शन में अनेकांतवाद, भाषा में कल्याणकारिता, हाथों में पुरुषार्थ और पैरों में लक्ष्य तक पहुँचने की गतिशीलता। आचार्य महाप्रज्ञ जैसे महामानव विरल होते हैं। गुरुनानक देवजी ने ऐसे ही महामानवों के लिए कहा है ऐसे लोग इस संसार में विरले ही हैं जिन्हें परखकर संसार के भंडार में रखा जा सके, जो जाति और वर्ण के अभिमान से ऊपर उठे हुए हों और जिनकी ममता व लोभ समाप्त हो गई है।
कहा जा सकता है कि आचार्य महाप्रज्ञ ऐसे सृजनधर्मा साहित्यकार, विचारक एवं दार्शनिक मनीषी थे जिन्होंने प्राचीन मूल्यों को नये परिधान में प्रस्तुत किया। उनका रचित साहित्य राष्ट्र, समाज एवं सम्पूर्ण मानवता को प्रभावित एवं प्रेरित करता रहा है। वे अध्यात्म-चेतना को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ने की बात कहते थे।
उनका साहित्य केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और रूपांतरण की सजीव प्रक्रिया है। उनका साहित्य जादू की छड़ी है, जो जन-जन में आशा का संचार करती रही है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनके निकट रहने, उनके कार्यक्रमों से जुड़ने और उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का अवसर मिला। मुझे उनका असीम आशीर्वाद प्राप्त हुआ और मुझे पहला आचार्य महाप्रज्ञ प्रतिभा पुरुस्कार भी उन्ही के सान्निध्य में मिला। मेरा जीवन सचमुच ऐसे महापुरुष की सन्निधि से ध्यन्य बना।
आचार्य महाप्रज्ञ के निर्माण की बुनियाद भाग्य भरोसे नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, पुरुषार्थी प्रयत्न और तेजस्वी संकल्प से बनी थी। हम समाज एवं राष्ट्र के सपनों को सच बनाने में सचेतन बनें, यही आचार्य महाप्रज्ञ की प्रेरणा थी और इसी प्रेरणा को जीवन-ध्येय बनाना उस महामानव की जन्म शताब्दी पर हमारे लिए शुभ एवं श्रेयस्कर है। ऐसे ही संकल्पों से जुड़कर हम महानता की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
लांगफेलो ने सही लिखा है कि महापुरुषों की जीवनियाँ हमें याद दिलाती हैं कि हम भी अपना जीवन महान बना सकते हैं और जाते समय अपने पगचिन्ह समय की बालू पर छोड़ सकते हैं। यदि हम ऐसा कर पाए तो आचार्य महाप्रज्ञ के जन्म शताब्दी पर इस महापुरुष की वर्धापना एवं स्मृति में एक स्वर हमारा भी होगा।
प्रेषकः ललित गर्ग
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25 आई॰ पी॰ एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92