कहते हैं ज्यादा आत्मविश्वास आत्मघाती होता है। वैसे एक पुरानी कहावत भी है कि सामने वाले (दुश्मन) को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए। शायद यूपी में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी या यूँ कहें कि अखिलेश यादव इसे भूल गए है।
2019 का लोकसभा चुनाव जहाँ सिर पर है और लगभग सभी दल जहाँ कमर कस चुके हैं, वहीं समाजवादी पार्टी कार्यालय में छाई खामोशी दो बातों की ओर इशारा कर रही है। पहली ये कि या तो अखिलेश यादव अपने बेहतरीन प्रदर्शन को लेकर ओवर कान्फीडेंट हो चुके हैं या अभी दिग्भ्रमित हैं। एक ओर जहां बीजेपी दिनरात ‘यूपी-2019 फ़तेह’ चुनावी रणनीत में लगी है, वही सपा की चुनावी तैयारियों में कोई ख़ास जोश व जीत का जज्बा नज़र नहीं आता।
तेज़ न्यूज़ की पुख्ता जानकारी के मुताबिक मुस्लिम/ यादव वोटबैंक के भरोसे, अखिलेश यादव बिना किसी रणनीत व पुख्ता तैयारी के बीजेपी को बेदखल कर, यूपी की सत्ता में पुनः वापसी का सपना देख रहे है। जबकि यादव वोटो में बटवारे के लिए ‘चाचा’ शिवपाल यादव, कसम खा कर, अखाड़े में मजबूती से कूद गए है और मुस्लिमो की पहली पसंद मोदी को मजबूत टक्कर देने वाला होगा, आज की बात करें तो लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र, मुस्लिमों की पसंद राहुल गांधी है ना कि अखिलेश यादव।
तेज़ न्यूज़ के मुताबिक आज की तारीख तक सपा की प्रदेश, जिला, वार्ड के साथ बूथ कमेटियों का गठन तक नहीं हुआ है। यूपी में सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम को बने हुए लगभग डेढ़ वर्ष का समय बीत गया है, पर आजतक प्रदेश कार्यकारिणी का गठन नई हुआ है। यूपी के अधिकतर जिलों में सपा के महत्पूर्ण पद आज भी खली है। यूपी के कुछ जिलों को छोड़ दे तो आधे से अधिक जिलों में सपा का ‘जिलाध्यक्ष’ नहीं है।
राजधानी लखनऊ से सटे बाराबंकी और हरदोई जिलों में आज तक सपा का ‘जिलाध्यक्ष’ नहीं बना है। जिला कमेटिया कॉफी समय से भंग है। अब ऐसे ने सपा की बूथ मीटिंग हो रही है, जिसके कोई मायने नहीं है। लखनऊ के 110 वार्डो में से ज्यादातर वार्डो में सपा ने आज तक ‘वार्ड अध्यक्ष’ नहीं बनाये है। आज तक अधिकतर बूथों पर बूथ कमेटिया का गठन तक नहीं हुआ है।
अब समाजवादी पार्टी के अंदर बने मौजूदा हालात तो यही बया कर रहे है की अखिलेश ने ‘यूपी-2019 फ़तेह’ के सामने अपने हाथ खड़े कर दिए है। अखिलेश यादव मायावती के साथ गठबंधन को लेकर जिस तरह से लोकसभा चुनाव-2019 की वैतरणी पार करने का ख्वाब देख रहे हैं, वह उनके लिए एक पीड़ा जनक सपना साबित हो सकता हैं।
मायावती पर भरोसा अखिलेश के लिए आत्मघाती साबित होगा। यदि ऐसा हुआ तो अखिलेश के राजनैतिक कैरियर पर यह भारी पड़ेगा और उनकी छवि एक अपरिपक्व नेता के तौर पर उभरेगी। 2019 लोकसभा को लेकर सपा की चुनावी तैयारियों को देखते हुए ये साफ़ तस्वीर उभर रही है की या तो अखिलेश अपने आप को धोखा दे रहे है, या अपनों को।
शाश्वत तिवारी