अब सवाल यह उठता है कि जब मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, तब क्या नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के समर्थन और विरोध में जारी रैलियों और प्रदर्शनों का सिलसिला स्थगित नहीं कर किया जाना चाहिए। सरकार कह चुकी है कि अब यह कानून वापस नहीं लिया जाएगा और दूसरी और विपक्ष को इसका विरोध करने में अपने राजनीतिक हित दिखाई दे रहे हैं।
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर केंद्र की मोदी सरकार और विपक्षी दलों के बीच जारी टकराव कब तक रहेगा, इस बारे में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गत दिवस कहा है कि वह डंके की चोट पर घोषणा करते हैं कि यह कानून हर हाल में लागू किया जाएगा। उधर दूसरी ओर विपक्षी दल इसके प्रति अपना विरोध व्यक्त करने के लिए नित नए तरीके अपना रहे हैं। प्रदर्शनों, धरनों एवं रैलियों से आगे बढ़कर यह विरोध अब विधानसभाओं के अंदर भी दाखिल हो चुका है। गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने इस कानून को अपने राज्यों में लागू न करने की घोषणा पहले ही कर दी थी और इससे भी आगे जाकर राज्य विधानसभाओं के अंदर इस कानून के विरोध में प्रस्ताव किए जा चुके है।
केरल और पंजाब इस मामले में सबसे आगे रहे हैं और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार भी विधानसभा में ऐसा ही प्रस्ताव लाने जा रही है। दूसरे अन्य गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारें इसी रास्ते पर चलने का फैसला कर चुकी है। यह भी एक विडंबना है कि जब सारे देश में गणतंत्र दिवस के आयोजन को उल्लास से मनाने की तैयारी होनी थी, तब यह समय रैलियों ,धरना प्रदर्शनों ने ले लिया। यह पर्व हमें संविधान के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का पुनीत अवसर उपलब्ध कराता है, परंतु इस बार का गणतंत्र दिवस हमसे यह सवाल कर रहा है कि क्या संविधान के प्रति हमारी निष्ठा और आस्था के मायने बदल गए है। सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि केंद्र सरकार और विपक्ष दोनों ही इस कानून के समर्थन और विरोध के लिए संविधान की दुहाई दे रहे हैं। कोई भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है।
संविधान की अलग-अलग व्याख्या अपने ढंग से की जा रही है। देश की सर्वोच्च अदालत ने नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर रोक लगाने के लिए दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए दोनो पर रोक लगाने से अभी इंकार कर दिया है। सर्वोच्च अदालत ने साफ कहा कि इस मामले में सरकार का पक्ष सुने बगैर कोई भी एक तरफा फैसला नहीं करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए चार सप्ताह में जवाब देने का निर्देश दिया है। जाहिर सी बात है कि तब तक यथास्थिति बनी रहेगी। इस मामले की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट चार सप्ताह तक रोजाना सुनवाई भी कर सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, तब क्या नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के समर्थन और विरोध में जारी रैलियों और प्रदर्शनों का सिलसिला स्थगित नहीं कर किया जाना चाहिए। सरकार कह चुकी है कि अब यह कानून वापस नहीं लिया जाएगा और दूसरी और विपक्ष को इसका विरोध करने में अपने राजनीतिक हित दिखाई दे रहे हैं।
इसलिए विपक्ष अपने विरोध का अभियान जारी रखेगा इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन क्या इस सवाल को नजरअंदाज किया जा सकता है कि महंगाई और बेरोजगारी की समस्या पर ध्यान आकर्षित करने के लिए विरोध प्रदर्शनों को इतने लंबे समय तक जारी क्यों रखा जाना चाहिए। विपक्ष सरकार पर आरोप लगा रहा है कि महंगाई ,बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था की सुस्ती पर से जनता का ध्यान हटाने के लिए सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लाने की चाल चली है।
विपक्ष खुद भी इस बात पर विचार क्यों नहीं करता की उसने इस कानून का विरोध करके सरकार को भी दूसरी समस्याओं से ध्यान हटाने में परोक्ष मदद कर दी है। आख़िर सरकार की भी यही मंशा थी, तब तो विपक्ष ने उसका काम आसान कर दिया है। बेहतर तो यही होगा कि विपक्ष इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा करें और फैसला आने तक अपने विरोध प्रदर्शनों को विराम दे दे ,ताकि उसे भी महंगाई बेरोजगारी और आर्थिक सुस्ती जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरने का मौका मिल सके।
इस पूरे मामले में कांग्रेस सबसे अधिक दुविधा में फंसी दिखाई दे रही है। कांग्रेस चाह रही थी कि सारे विपक्षी दल नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का विरोध करने के लिए उसके बैनर तले एकजुट हो जाए ,परंतु सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई बैठक में शामिल न होकर विपक्षी दलों ने यह साफ कर दिया है कि वे सीएए और एनपीआर का विरोध तो करते हैं, परंतु कांग्रेस के बैनर तले एकजुट होने के लिए कतई तैयार नहीं है।
केंद्र क राजग सरकार भी यही चाह रही है कि सारे विपक्षी दल अलग-अलग लड़ाई लड़े और धीरे-धीरे उनका विरोध धीमा होकर शांत पड़ जाए। कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं सुप्रीम कोर्ट के वकील कपिल सिब्बल भी अब यह मानने लगे हैं कि केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानून को राज्य सरकारें अपने यहां लागू करने से इनकार नहीं कर सकती हैं । कपिल सिब्बल स्वयं विधिवेत्ता है, इसलिए उन्होंने कांग्रेस नेता होते हुए भी इस कड़वी हकीकत से अपने दल को अवगत करा दिया है।
इससे इस कानून के विरोध में उनकी पार्टी का अभियान वैसे भी बेमानी सिद्ध हो जाता है। गौर करने लायक बात यह है कि कपिल सिब्बल के विचारों का कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील सलमान खुर्शीद ने भी समर्थन किया है। ऐसी स्थिति में क्या कांग्रेस पार्टी के लिए उचित होगा कि वह नागरिकता संशोधन कानून का विरोध जारी रखें। अतः अब इस मामले में काग्रेस सहित सारे विपक्षी दलों को केवल सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट जो फैसला दे उसे स्वीकार करना चाहिए।
कृष्णमोहन झा/