कहते थे पानी बिकेगा और तुम क्या दुनिया खरीदेगी बात पर हंसी भी आती थी और अधिकांश बार कान पर से उडा भी दी जाती थी। पर आज लगता है कि सही कहते थे पिता जी और हमारे वयोवृद्ध पूर्वज आज पानी बिक रहा है। और हम खरीद भी रहे हैं। घर में आने वाले राशन के सामान की तरह पानी का बजट भी बनने लगा है लोगों की कमाई का कुछ हिस्सा इसी में जा रहा है।
देखा जाये तो इस खतरे को भांपने की सही दृष्ट्रि तो रही है पूर्वजों में पर समाधान की दिशा में कुछ कार्य जो पूर्व में किये गये क्या हम उनको आगे नहीं बढा पाये या फिर कारण कुछ और है यह चिंतन मनन के लिये आवश्यक हो जाता है खास कर उस समय जब यह संकट लगातार गहराता जा रहा हो? हालांकि इसके कम होने के साथ ही इसके फेर और धंधे को भी समझने की आवश्यकता हो जाती है?
क्योंकि आप देखेंगे तो पानी के धंधे में अरबों के बारे न्यारे भी हो रहे हैं इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है? खतरे की बजती घंटी आपको एक बडे संकट की ओर ईशारा कर रही है? विश्व के अधिकांश देश इसके संकट से प्रवाहित हो चुके हैं और भारत देश की बढती आबादी एवं पेयजल के स्त्रोतों में घटता जल एक बडी समस्या की ओर शनै:शनै:कदम बढाने में लगा हुआ है।
मित्रो अगर हम पिछले इतिहास पर नजर डालें तो बर्ष 1947 में 6042 क्यूबिक मीटर जल प्रत्येक नागरिक हिस्से में आता था। बर्ष 2001 में यह घटकर 1816 क्यूबिक मीटर एवं 2011 में 1545 क्यूबिक मीटर जल प्रत्येक नागरिक के हिस्से आने के बाद वर्तमान में बर्ष 2016 के संबध में जानकार एवं संबधित विभाग के आंकडे बतलाते हैं कि 1495 क्यूबिक मीटर जल प्रत्येक नागरिक के लिये बचा है।
अगर यह कहा जाये कि संविधान में जिस प्रकार के अधिकार दिये गये हैं उस प्रकार नागरिकों को कम से मुफत पानी के हक को दिलाने में पिछली सरकारों द्वारा किये गये कार्य तो कम से कम लापरवाही की ओर ईशारा करते हैं? यानि पानी भी अब खरीद कर पीना पड रहा है आश्चर्य की बात तो यह है कि जिनके पूर्वजों ने कूये,बाबडी,सरोवरों,प्याऊ का निर्माण कराया वही आज जल को क्रय करने मजबूर होने लगे हैं?
व्यर्थ बहाना और जल स्त्रोतों का सूखना –
भारत के अंदर एक बडा भाग जल का नदियों,नालों के माध्यम से सीधे समुद्रों में पहुंच जाता है। जबकि इसके प्राचीन जल स्त्रोतों का रख रखाव के आभाव में सूखना तथा नष्ट्र होना जारी है। प्रकृति बनते बिगडते संतुलन से कहीं गीला तो कहीं सूखा की स्थिति लगातार निर्मित होने लगी है। अधिकांश राज्य सूखे की चपेट में तो कहीं कहीं अति वृष्टि होने से सब गढबढा रहा है।
जानकारों की माने तो भारत में जल एवं उसके स्त्रोतों को बचाने के लिये आजादी के बाद आज तक कोई ठोस पहल नहीं हुई नहीं तो परिणाम इतने भयावह नहीं हो पाते जितने बने हुये हैं? बतलाया जाता है कि देश में लगभग 65 प्रतिशत बारिश का जल इसको रोकने के ठोस कदम न उठाने के चलते समुद्र में चला जाता है। खेती हो या फिर विद्युत उत्पादन या फिर बुझानी हो प्यास सभी के लिये जल की आवश्यकता है।
पानी का धंधा-
पेयजल के संकट को लेकर लगातार इसका धंधा व्यवसायियों के लिये मुनाफे का सौदा साबित हो रहा है। कहने को तो पानी पर पानी में पैसा कैसे बनता है यह इनसे अच्छा शायद कोई भी समझ सके। लगातार गहराते संकट के संबध में जानकार बतलाते हैं कि अगर ठोस प्रयास नहीं किये गये तो बर्ष 2050 तक यानि आने वाले 25 -30 बर्षों में प्रत्येक नागरिक के हिस्से का पानी एक हजार क्बूबिक मीटर से भी काफी नीचे हो जायेगा। धंधे से जुडे एवं सूत्रों की माने तो आने वाले बर्ष में बोतलों में बिकने वाले पेयजल के धंधा 16 सौ करोड के करीब पहुंचने की स्थिति में है। पानी के धंधे में जहां इसके व्यवसायी लाभांवित हो रहे हैं तो वहीं चिकित्सकों की भी चांदी होने लगी है।
@ डॉ. लक्ष्मी नारायण वैष्णव