मंडला- आदिवासी समाज अपने में एक से बढ़कर एक अनोखी रस्में और रीती रिवाज़ समेटे हुए है। आदिवासी बाहुल्य मंडला जिले में इन रीती रिवाजों की बानगी गाँव – गाँव में देखने को मिलती है। इन्ही रीती रिवाजों में एक प्रथा है देवर पाटों और नाती पाटों। इस प्रथा में यदि किसी महिला के पति की मृत्यु हो जाती है तो उसके अंतिम संस्कार के दसवें दिन समाज की मौजूदगी में देवर अपनी भाभी को कड़ा पहनाता है जिसे देवर पाटों कहते है।
इसके बाद ये पति – पत्नी की तरह रहने के लिए स्वतंत्र रहते है। इसी तरह यदि विधवा महिला का देवर न हो तो वो अपने ही नाती के हाथों कड़ा पहन लेती है, जिसे नाती पाटा कहते है हालांकि नाती पाटा विधवा महिला को संरक्षण प्रदान करने के मकसद से ही होता है। पाटों के बाद नाती की हैसियत पैवर में मुखिया की तरह होती है। नई पीढ़ी में इस प्रथा का प्रचलन भले ही काम हो गया है लेकिन पुराने लोग आग भी इस प्रथा को अपनाये हुए है।
आदिवासियों की इस अनोखी प्रथा को जाने हम पहुंचे बेहंगा गाँव। यह वो गाँव है जिसके बारे में यह कहा जाता है कि पाटों प्रथा के चलते इस गाँव में विधवा नहीं है यदि है भी तो उनकी संख्या काफी कम है। इस गाँव में हम सबसे पहले पहुंचे सुंदरों बाई के घर। जब हम इनके घर पहुंचे तो यह बुजुर्ग महिला अपने परिवार की अन्य महिलाओं के साथ तेंदू पत्ता की गिड्डियां बना रही थी।
इन तेंदू पत्ता को तोड़ने इन्हे सुबह 4 बजे से जंगल में जाना होता है और 100 गिड्डियों के एवं में इन्हे करीब 120 रूपये मिलते है। जब हमने सुंदरों बाई से उनके देवर पाटों के बारे में पूंछा तो उन्होंने बताया कि करीब 40 साल पहले शादी के दो साल बाद ही उनके पति की मौत टीबी से हो गई थी। पति के अंतिम संस्कार के दसवें दिन समाज के वरिष्ठ लोग जिन्हे पंच कहते है की मौजूदगी में देवर ने चांदी का कड़ा पहना दिया। तभी से ववह अपने देवर के साथ पति – पत्नी की तरह रह रही है। इसी से उनकी दो बेटी और एक बेटा थे, लेकिन दो साल पहले बेटे की मौत हो गई।
सुंदरों बाई की बेटी रमोति बाई जो एक साल पहले ही विधवा हुई है लेकिन उसके परिवार में अन्य कोई पुरुष न होने के चलते न उसका देवर पाटों हो सका और न ही नाती पाटों। इस महिला ने बताया कि इस प्रथा में यदि किसी महिला के पति की मृत्यु हो जाती है तो उसके अंतिम संस्कार के दसवें दिन समाज की मौजूदगी में देवर अपनी भाभी को कड़ा पहनाता है जिसे देवर पाटों कहते है। इसके बाद ये पति – पत्नी की तरह रहने के लिए स्वतंत्र रहते है।
इसी तरह यदि विधवा महिला का देवर न हो तो वो अपने ही नाती के हाथों कड़ा पहन लेती है, जिसे नाती पाटा कहते है हालांकि नाती पाटा विधवा महिला को संरक्षण प्रदान करने के मकसद से ही होता है। लेकिन यदि आगे चलकर वे सम्बन्ध में रहते है तो समाज को इससे कोई आपत्ति नहीं होती। कई बार समाज जब तक रोटी ग्रहण नहीं करता जब तक विधवा के परिवार के पुरुष पाटों नहीं करते। उनका कहना है कि हालांकि नई पीढ़ी में इसका प्रचलन कम हो गया है लेकिन पुराने लोग आज भी इस प्रथा को अपनाये हुए है।
गाँव के पूर्व सरपंच व वर्तमान सरपंच पति जोगी वरकड़े ने भी सुंदरों बाई की बेटी की ही तरह पाटों प्रथा के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि गाँव में करीब 10 लोग पाटों प्रथा में रह रहे जिसकी वजह से विधवा महिलाओं की संख्या और विधवा पेंशन के प्रकरण भी काफी कम है।
मंडला विधायक संजीव उइके जो खुद आदिवासी है, कहते है कि पुरातन काल से समाज में यह व्यवस्था चली आ रही है। यदि कम उम्र में ही कोई महिला विधवा हो जाती है तो उसके सामने भविष्य को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो जाते है। भौतिक सुख सुविधा के साथ – साथ अकेले जीवन गुजरना भी एक कड़ी चुनौती होती है ऐसे में उस महिला को संरक्षण देने और अपने ही परिवार में रहने के मकसद से उसके देवर के साथ उसका पाटों कर दिया जाता था। शिक्षा और रोजगार के बेहतर साधन उपलब्ध होने से यह प्रथा अब कम होती जा रही है। रिपोर्ट:- सैयद जावेद अली