देश की राजधानी नई दिल्ली के समीप स्थित दादरी गांव के वि विज्यात कस्बे में एक पखवाड़े पहले जो भय, दहशत और नफरत का माहौल दिखाई दे रहा था उसे देखते हुए तब यह अनुमान लगाना असंभव ही था कि जल्द ही उसी कस्बे में शादी की शहनाईयां गूंजती सुनाई देंगी और मुस्लिम परिवार में संपन्न होने वाली शादी में हिन्दू परिवारों को तन मन धन से सहयोग करते हुए देखा जा सकेगा।
गांव के एक निवासी की दो बेटियों की शादी गत दिवस जिस हंसी खुशी सौहार्द पूर्ण माहौल में संपन्न हुई और इस अवसर पर दोनों संप्रदायों के लोगों के बीच जो भाईचारा दिखाई दे रहा था उससे हमारे देश के उन राजनीतिक नेताओं को यह सबक मिल जाना चाहिए कि वे हर घटना का राजनीतिक लाभ लेने की मानसिकता से मुक्ति पा ले तो देश में एक बार फिर सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण निर्मित होने में कोई मुश्किल पेश नहीं आ सकती परंतु दिक्कत तो यहीं है कि कहीं कोई तनाव अथवा अशांति की स्थिति पैदा होते ही हमारे राजनीतिक दलों के नेता सबसे पहले बयानबाजी शुरू करके उसका अधिकतम राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिशों में जुट जाते है। मीडिया उस घटना को इस तरह प्रस्तुत करता है कि उससे माहौल सामान्य होने के बजाय आग में घी डालने की कहावत चरितार्थ होने लगती है। करीब करीब हर राजनीतिक दल के नेता यह साबित करने में दिलचस्पी लेते दिखाई देते हैं कि पीडि़त पक्ष का उनसे बड़ा हितैषी और कोई राजनीतिक दल नहीं हो सकता और अगर पीडि़त पक्ष का संबंध किसी अल्पसंख्यक समुदाय से हैं तो फिर तो उनकी यह दिलचस्पी देखते ही बनती है।
देश के जिस राज्य उत्तरप्रदेश में महज अफवाह के आधार पर एक मुस्लिम युवक की पीट पीटकर हत्या करने और उसके पुत्र को पीट पीटकर घायल करने की लोमहर्षक घटना हुई उस राज्य के एक वरिष्ठ मंत्री को सबसे पहले यह जरूरी लगा कि इस घटना की शिकायत संयुक्त राष्ट्र महासचिव से की जाए। उसी राज्य के सत्तारूढ़ दल के मुखिया ने यह दावा तो किया कि उनकी पार्टी की सरकार सांप्रदायिक शक्तियों को कुचलने में तनिक भी नहीं हिचकेगी भले ही उनकी सरकार ही क्यों न चली जाए। अब क्या उनसे यह पूछा जा सकता है कि उनकी पार्टी तो पिछले चार सालों से सत्ता की बागडोर थामे हुए है फिर दादरी की घटना कैसे घटित हो गई। इसमें दो मत नहीं कि इस तरह की सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे वाली घटनाओं को अंजाम देने वाले सिरफिरे तत्वों का संबंध किसी भी संप्रदाय से क्यों न हो उस पर कठोरतम कार्रवाई होना चाहिए परंतु सवाल यह उठता है कि ऐसी कठोरतम कार्रवाई से उन्हें रोका किसने है? कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी के निर्वाह में असफल सरकार अपनी सफलता के लिए पीडि़त पक्ष से खेद व्यक्त करने के बजाय उसके मंत्री अगर किसी घटना का राजनीतिक लाभ लेने की मुहिम में जुट जाए तो सौहार्द्र और सदभाव का माहौल बनाए रखने की जिमेदारी किसकी है। सवाल यहां किसी एक राजनीतिक दल का नहीं है दादरी पहुंचकर राजनीतिक बयान देने में कोई भी दल पीछे नहीं रहा। कितने आश्चर्य की बात है कि दादरी की घटना को बिहार विधानसभा के चुनावों में ऐसा मुद्दा बना दिया गया कि बिहार में भी माहौल बिगडऩे की आशंका दिखाई देने लगी।
इस घटना को लेकर बिहार में विभिन्न राजनीतिक दलों के मुख्य चुनाव प्रचारकों ने जिस तरह की बयानबाजी कर डाली उसकी तो चर्चा करना ही बेकार है। मुझे इस बात पर जरूर आश्चर्र्य होता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस तरह की अप्रिय बयानबाजी से खुद को पूरी तरह निर्लिप्त क्यों नहीं रखा। दादरी पर राजनीतिक बयानबाजी करने वाले नेताओं को तो रोकना मुश्किल ही था परंतु अब जब दादरी में सब कुछ सामन्य हो चला है, दोनों संप्रदायों के लोगों ने गांव में दो मुस्लिम बेटियों के विवाह समारोह में तन मन धन से सहयोग करके जो अनूठी मिसाल पेश की है क्या उसकी चर्चा भी बिहार के नेता अपने भाषणों में करेंगे। गौरतलब बात तो यह है कि गांववासियों में भय, नफरत और दहशत के वातावरण से मुक्ति दिलाने में राजनीतिक दलों ने वैसी दिलचस्पी नहीं दिखाई जैसी कि उनसे अपेक्षित थी। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने इस घटना पर जिस तरह चिंता व्यक्त की दरअसल वैसी ही चिंता अगर हमारे राजनीतिक दलों को होने लगे तो दादरी जैसी घटनाओं का सिलसिला थमते देर नहीं लगेगी। प्रधानमंत्री का यह कहना बिल्कुल सही है कि हिन्दू मुस्लिम मिलकर गरीबी से लड़े। यह खेद का ही विषय हो सकता है कि बिहार चुनाव में अब विकास के मुद्दे को गौण बना दिया गया है और केवल अमर्यादित बयानबाजी की होड़ मची हुई है। क्या यह हास्यास्पद बात नहीं है कि दादरी की घटना के लिए उत्तरप्रदेश सरकार को जिम्मेदार ठहराने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधा जा रहा है। पहले तो प्रधानमंत्री से दादरी की घटना की चुप्पी तोडऩे की मांग की गई और जब उन्होंने यह कहा कि हिन्दू मुस्लिम संप्रदाय के लोग मिलकर गरीबी से लड़े तो उनसे यह मांग हो रही है कि घटना की निंदा करें।
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने भी राष्ट्रपति के उस बयान का समर्थन दिया है जिसमें उन्होंने देशवासियों से यह अपील की है कि वे भारतीय सभ्यता की विविधता, सहिष्णुता और अनेकता में एकता के बुनियादी मूल्यों को आंच न पहुंचने दें। मेरे विचार से राष्ट्रपति की इस अपील से सबको सहमत होना चाहिए। इसी बिन्दु पर मैं साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटने वाले उन साहित्यकारों से भी यह सवाल करना चाहंूगा कि क्या दादरी की घटना के अलावा देश में ऐसी कोई गंभीर घटना या अपराध उन्हें इतना भयावह या जघन्य प्रतीत नहीं हुआ कि उसको रोकने में केन्द्र सरकार की असफलता को वे साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का आधार बना लेते। दिल्ली का निर्भया दुष्कर्म कांड या मुजफ्फरपुर के दंगों ने उन्हें सरकार के प्रति इतना आक्रोशित क्यों नहीं किया कि वे तब साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का फैसला करते। दादरी की घटना की भयावहता को निश्चित रूप से कम करके नहीं आंका जा सकता परंतु क्या देश में और किसी घटना ने उनके मानस को इतना नहीं झकझोरा कि उन्हें पुरस्कार लौटाने के अलावा कोई विकल्प उचित प्रतीत नहीं होता।
भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के विरोध में दो माहों से आंदोलन कर रहे छात्रों की जायज मांग के समर्थन में अगर साहित्यकार अपना सम्मान वापिस कर देते तो शायद केन्द्र सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया जा सकता था। आखिर उक्त संस्थान में निदेशक के पद पर गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति का फैसला तो सीधे सीधे केन्द्र ने ही किया था। मेरा सुझाव तो यह है कि साहित्यकारों को उनके अमूल्य योगदान के लिए जो सम्मान दिया गया हैं उस सम्मान का वे सम्मान करें और उन्हें मिले सम्मान को वापिस करने के फैसले पर पुनर्विचार करे। विरोध का और कोई तरीका समाज के उस बुद्धिजीवी वर्ग को खोजना चाहिए जो समाज को दर्पण दिखाने के उत्तरदायित्व
को वहन करते हैं।
कृष्णमोहन झा
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)