याद कीजिए, आखीरी बार आपने गौरैया को अपने आँगन में या आसपास कब चीं-चीं करते देखा था ! कब वह आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी ! कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर के दालान में गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगवार बना देते थे। नन्ही गौरैया के सान्निध्य भर से बच्चों के चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी। पर अब वही गौरैया विलुप्त होते पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हम ही हैं। नन्ही गौरैया अब कम ही नजर आती है। दिखे भी कैसे !
गौरैया के लापता होने के कई कारण हैं जिनमें मोबाईल के टावर प्रमुख हैं। गौरैया की घटती संख्या के कारणों पर अध्ययन करने वाले पक्षी विज्ञानी डा. सैनुदीन पट्राझी के अनुसार मोबाइल टावर 900-1800 मेगाहर्टज की आवृत्ति उत्सर्जित करते हैं जिससे निकलने वाली विद्युत चुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रोमैगेनेटिक रैडियेशन) से गौरैया का नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है। इससे दिशा पहचानने की उसकी क्षमता भी बाधित होती है। आम तौर पर दस से चौदह दिनों तक अंडे सेने के बाद गौरैया के बच्चे निकल आते हैं लेकिन मोबाइल टावरों के पास तीस दिन सेने के बावजूद अंडा नहीं फूटता है।
भौतिकवादी जीवनशैली ने बहुत कुछ बदल दिया है। हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए, बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया। हरियाली खत्म कर कंक्रीट के जंगल खड़े किए, उसका कुदरती भोजन खत्म कर दिया है। घरों में कच्चे फ़र्श के धरातल पर उसको अपने लिये कुछ भोजन मिल जाया करता था मगर उसकी जगह अब कंक्रीट और मार्बल के फ़र्श ने ले ली है। फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से परिंदों की दुनिया ही उजड़ गई है।
गौरैया का पसंदीदा आहार अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं। गौरैया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर जीते हैं। कीटनाशकों से कीड़ों के लार्वा मर जाते हैं। ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है। फिर गौरैया कहाँ से आएगी?
धोकर छतों पर सुखाने के लिये रखे गये अनाज में से गौरैया अपने लिये दो दाने चुग लिया करती थी, मगर अब सब अनाज, दालें तैयार पैकिंग में उपलब्ध हैं।
यह आमतौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है। पर आज अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं।
गौरैया घर के झरोखों में भी घोंसले बना लेती है, मगर अब घरों में झरोखे ही नहीं तो वह घोंसला कहाँ बनाए ! शहर में कचरा बढ़ने से कौओं की तादाद भी बढ़ रही है और ये गौरैया के अंडों को खा जाते हैं। गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, गौरैया हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रही है। इससे जुड़ी कहानियॉं और गीत लोक साहित्य में देखने-सुनने को मिलते हैं।
घरों के आंगन, मुंडेर, खपरैल और छत पर चहचहाती, तिनका- तिनका घोंसला बनाती, अपने नन्हें बच्चों को सारा दिन दाना चुगाती, इंसान के इर्द रहकर उसकी कोमल संवेदनाओं को बचाती गौरैया आने वाले दिनों में कहीँ महादेवी वर्मा की कहानी के पन्नों में ही तो नहीं बचेगी। – शाश्वत तिवारी