देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवानी के निकटतम सहयोगियों में प्रमुख रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी को कभी पार्टी के थिंक टैंक के रूप में भी जाना जाता था। अतीत में पार्टी में उनकी हस्ती एक रणनीतिकार की रही। ऐसे राजनेता को तीक्ष्ण बुद्धि और रणनीतिकार कौशल और दूरदृष्टि का धनी कहना सर्वथा उपयुक्त होगा।
लेकिन वही कुलकर्णी पूर्वानुमान लगाने से चूक गए कि पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री खुर्शीद कसूरी की पुस्तक के विमोचन समारोह के आयोजन में भागीदारी करना महाराष्ट्र के सत्ताधारी गठबंधन के सहयोगी दल शिवसेना को इतना आक्रोषित कर देगा कि शिव सैनिक उन्हें विमोचन समारोह में पहुंचने से रोकने के लिए उनके चेहरे पर काला पेंट पोतने से भी गुरेज नहीं करेंगे। शिवसेना ने शायद विरोध का यह तरीका इसलिए अपनाया होगा कि मुंह पर कालिख पुति होने के कारण उस बदरंग चेहरे के साथ कुलकर्णी समारोह में नहीं जा पांएगे परंतु निसंदेह कुलकर्णी के इस साहस की सराहना की जानी चाहिए कि उसी हालत में कुलकर्णी ने पत्रकार वार्ता को संबोधित किया।
देशभर में भले ही शिवसैनिकों के इस कृत्य की भत्र्सना की जा रही हो परंतु शिवसेना पूरी तरह उनके साथ है और उसके अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने उन 6 शिवसैनिकों को न केवल सम्मानित किया बल्कि उन्हें शाबासी भी दी और सुधीन्द्र कुलकर्णी की तुलना उस पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब से कर डली है जो मुंबई के आतंकी हमले का मुख्य गुनाहगार माना गया। गौरतलब है कि अभी कुछ दिनों पूर्व ही पाकिस्तान के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गजल गायक गुलाम अली खां को शिवसेना के उग्र विरोध के कारण ही अपना कार्यक्रम मुंबई में आयोजित करने से वंचित होना पड़ा था। शिवसेना पाकिस्तान के साथ भारत के क्रिकेट संबंधों की भी सदा विरोधी रही है और उसके कार्यकर्ताओं ने अपना विरोध जताया था।
अगर अतीत की कुछ घटनाओं को विस्मृत भी कर दिया जाए तब भी गुलाम अली खां के संगीत कार्यक्रम को रद्द करने के लिए विषम परिस्थितियां पैदा करना और पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी की पुस्तक के विमोचन समारोह में जाने से रोकने के लिए सुधीन्द्र कुलकर्णी के चेहरे पर कालिख पोतकर गर्व महसूस करना, ये दो ऐसी घटनाएं हैं जिन पर महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार की मुखिया भारतीय जनता पार्टी को आगे चलकर भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। शिवसेना ने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस को भी नहीं बख्शा है।
उसने कहा हैै कि मुख्यमंत्री ने खुर्शीद कसूरी को पुस्तक विमोचन कार्यक्रम को निर्विघ्न संपन्न कराने के लिए सुरक्षा उपलब्ध कराकर महाराष्ट्र का अपमान किया है। गौरतलब है कि इसके पहले फडऩवीस ने यह कहा था कि शिवसैनिकों के उक्त कृत्य से समूचे महाराष्ट्र का अपमान हुआ है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्य की छवि धूमिल हुई है। राज्य में भाजपा और शिवसेना के बीच अब जो परस्पर विरोधी बयानबाजी का सिलसिला प्रारंभ हो गया है उसे देखते हुए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आगे आने वाले दिनों में सत्तारूढ़ गठबंधन के दोनों घटक दलों भाजपा और शिवसेना के रिश्तों में और कड़वाहट आएगी और यह कोई अचरज की बात नहीं होगी कि भाजपा नीत गठबंधन सरकार को मुश्किल में डालने के लिए शिवसेना द्वारा ऐसे और कृत्यों को अंजाम दिया जाए जिससे भाजपा खुद ही सत्ता में उसकी भागीदारी जारी रखने के फैसले पर पुनर्विचार करने लगे। वैसे भी महाराष्ट्र की सरकार में भागीदारी रहते हुए भी शिवसेना के मंत्रियों को इतना महत्व नहीं दिया जा रहा है कि सरकार के सभी फैसलों में उनकी सहमति लेने की आवश्यकता मुख्यमंत्री फडऩवीस महसूस करें।
केन्द्र में भी सत्तारूढ़ राजग सरकार में शिवसेना के मंत्रियों की यही स्थिति है। दोनों जगह शिवसेना के मंत्री अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे है। यहीं कुंठा शिवसेना को अपना दमदार अस्तित्व सिद्ध करने के लिए कालिख कांड जैसे उन तरीकों को इस्तेमाल करने के लिए विवश कर रही है जिसे उसके नेता संजय राउत शालीन तरीका बता रहे हैं। दरअसल शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को अब यह महसूस होने लगा है कि भाजपा के लिए सिरदर्द बनकर ही वे अपने लिए कुछ हासिल कर सकते है और इसके लिए जरूरी है कि शिवसेना अपने पुराने रूप में लौट आए, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इससे शिवसेना को भाजपा की पिच खोदने में सफलता मिलेगी या वह खुद अपनी ही पिच खोद डालेगी।
उद्धव ठाकरे को अब उस सुखद अतीत की याद सता रही है जब शिवसेना की कमान उनके पिता बाला साहेब ठाकरे के हाथों में हुआ करती थी और भाजपा के सामने उनका संरक्षण पाने के लिए विवश होना पड़ता था। आज स्थिति पूरी तरह उलट चुकी है उद्धव ठाकरे खुद को अपमानित महसूस कर रहे हैं। विधानसभा चुनावों में भी सीटों के बंटवारे पर उनकी शर्त मानने के बजाय भाजपा ने दो दशक पुराने गठबंधन सरकार में शामिल होने के लिए भी उद्धव ठाकरे को भाजपा की शर्ते मानने के लिए विवश होना पड़ा। शिवसेना को सत्ता में भागीदारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उद्धव ठाकरे को उप मुख्यमंत्री पद हासिल करने में जो असफलता हाथ लगी उसने भी उन्हें चुपचाप अपमान का घूंट पीने के लिए विवश होना पड़ा।
उद्धव ठाकरे उसी अपमान का बदला लेना चाहते हैं परंतु दिक्कत यह है कि उद्धव ठाकरे को आज पार्टी के अंदर उनके पिता के समान ‘भगवान’ का दर्जा प्राप्त नहीं है। भाजपा भी इस हकीकत को जान गई है कि उद्धव ठाकरे जितने विरोध के अनुचित तरीके अपनाएंगे उतना ही शिवसेना का नुकसान होगा। इसलिए भाजपा द्वारा लगातार उसे उत्तेजित करने की रणनीति अपनाई जा रही है। शिवसेना को ऐसी स्थिति में अपनी दमदार मौजूदगी जताने के लिए उन पुराने दिनों में लौटने की अपरिहार्यता महसूस होने लगी है जब उसके कार्यकर्ता तोडफ़ोड़ की कार्रवाईयों का सहारा लेकर पार्टी की दहशत कायम करने में रुचि लेते थे लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं है क्योंकि राज्य में उसके ही अतीत के दल के साथ उसे सत्ता में भागीदारी करनी पड़ रही है।
शिवसेना जिन मर्यादित तरीकों का इस्तेमाल कर दबाव की राजनीति करना चाहती है वे तरीके खुद उसका ही आधार कमजोर कर देंगे। शिवसेना यह भूल रही है कि उसका आधार केवल मुंबई और पुणे तक ही सीमित है। उग्रवाद की राजनीति को अपनाकर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का दमदार वजूद कायम करने की कोशिश की थी परंतु वे इसमें सफल नहीं हुए उसी से उद्धव ठाकरे को यह सीख मिल जानी चाहिए कि तोडफ़ोड़ और हिंसात्मक तरीकों से वह पुराने सुखद दिनों की ओर नहीं लौट पाएगी। उसके लिए बेहतर तो यही होगा कि वह भाषण के साथ तालमेल की नीति का अनुसरण करते हुए अपना महत्व बढ़ाने की कोशिशों में जुटी रहे।
उद्धव ठाकरे को इसी हकीकत से भी वाकिफ हो जाना चाहिए कि उनकी पार्टी को अब उस भाजपा के साथ सामंजस्य बिठाकर चलना होगा जिसमें सारे फैसले करने के अधिकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों में सुरक्षित हैं और नरेन्द्र मोदी के कद का कोई करिश्माई नेता आज शिवसेना के पास नहीं है। दरअसल उद्धव ठाकरे को अंदर ही अंदर भय सता रहा है कि वे अगर भाजपा की खुशी का ही ध्यान रखेंगे तो उनकी अपनी पार्टी का जनाधार क्रमश: सीमित होता जाएगा। भाजपा भी यही चाहती है इसलिए उद्धव ठाकरे को अब सोच समझकर अपनी रणनीति तय करनी होगी और ऐसी रणनीति से परहेज करना होगा जो राज्य में सत्ता में रहते हुए भी उनकी पार्टी को विपक्षी दल के रूप में पेश करने में सहायक हो।
और अंत में मैं चंद सवाल उन सुधीन्द्र कुलकर्णी से भी करना चाहूंगा जो पिछले कुछ वर्षों से भारतीय जनता पार्टी में हाशिए पर ढकेल दिए जाने की पीड़ा से अब तक नहीं उबर पाए हैं। वे निरंतर पार्टी की मुख्य धारा में आने के प्रयासों में जुटे हुए हैं। ऐसे में यह जिज्ञासा भी स्वाभाविक है कि क्या पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी की पुस्तक के विमोचन समारोह में भागीदारी करने का फैसला उन्होंने इसीलिए किया कि इस आयोजन पर विवाद खड़ा होने के बाद शिवसेना के उपर आक्रमण करने का एक सुनहरा मौका उनके हाथ लग जाएगा।
सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे राजनीतिक पत्रकार को इतना तो अंदाजा अवश्य होगा कि इस आयोजन में उनकी भागीदारी से विवाद उठ खड़ा होगा। यह भी आश्चर्य का विषय है कि सुधीन्द्र कुलकर्णी ने हाल में ही पाकिस्तान के द्वारा कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से बातचीत के कारण उससे भारत वार्ता रदद होने के बाद भी इस आयोजन में भागीदारी करने में दिलचस्पी दिखाई।
सुधीन्द्र कुलकर्णी ने आखिर इस बिन्दु पर विचार करने की आवश्यकता क्यों नहीं महसूस की कि अगर पाकिस्तान कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को प्रोत्साहित करने से बाज नहीं आ रहा है तो उन्हें पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक के विमोचन समारोह में दिलचस्पी क्यों दिखाना चाहिए। यहां यह भी गौरतलब है कि कभी सुधीन्द्र कुलकर्णी के मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी का अपने पाकिस्तान प्रवास के दौरान वहां के पूर्व प्रधानमंत्री जिन्ना को महान धर्म निरपेक्षवादी बताने पर भाजपा का अध्यक्ष पद छोडऩे पर विवश होना पड़ा था।
जाने क्यों मेरा मन इस सच्चाई को नकारने के लिए अनुमति नहीं देता कि सुधीन्द्र कुलकर्णी शायद अतीत कि उन घटनाओं का स्मरण नहीं कर पाए जिनके कारण वे बार-बार विवादों के घेरे में कैद होते रहे। विवादों में रहकर कुलकर्णी जी ने क्या अर्जित किया, यह तो वे ही जानते होंगे परंतु मेरा तो यह निश्चित मानना है कि सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे विद्वान, तीक्षण बुद्धि के धनी और रणनीतिक कौशल में दक्ष पत्रकार राजनेता को अपने आभामंडल की चमक बढ़ाने के लिए विवादों में आकर खबरों में बने रहने की कोई विवशता महसूस नहीं होनी चाहिए।
कृष्णमोहन झा
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)