बच्चियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। चाहे वह देश की राजधानी दिल्ली हो, कोलकाता हो, मुंबई हो, लखनऊ, भोपाल, पटना, रांची, चंडीगढ़ या फिर देश के किसी दूरस्थ इलाके में बसा कोई गांव ही हो। बच्चियों और बच्चियों ही क्यों, पूरी स्त्री जाति ही सुरक्षित नहीं है। अब तो गांवों में भी 60-65 साल की महिलाएं तक सुरक्षित नहीं हैं। उनके साथ भी बलात्कार हो रहे हैं। ऐसे में बच्चियों का मामला कोई अलग थोड़े ही न है। समाज का इतना पतन हो चुका है कि साल-साल भर की बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। मानसिकता इतनी गंदी हो गई है कि लोग शव के साथ सामूहिक दुराचार कर रहे हैं।
अभी एक सप्ताह पहले की ही बात है। गुडग़ांव की एक महिला की प्रसव के दौरान मौत हो गई। महिला के परिवार वालों ने उसके शव को दफना दिया। उस इलाके कुछ लोगों के सिर पर हवस का भूत इस कदर हावी हुआ कि वे वहां पहुंच गए और उस महिला के शव को बाहर निकाला।
महिला के शव के साथ सामूहिक दुराचार किया और उसे उसी हालत में छोड़ गए। सुबह जब लोगों ने देखा, तब जाकर मरने वाली महिला के परिजनों को जानकारी हुई और पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गई। आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि उच्छृंखलता, कामुकता और नैतिकता का किस हद तक पतन हो गया है। इंसान बिल्कुल जानवरों की श्रेणी में जा खड़ा हुआ है। जानवर भी कम से कम अपने मरे हुए संगी-साथी के साथ बलात्कार नहीं करते हैं, तो फिर गुडग़ांव की घटना को क्या समझा जाए?
हमारे समाज का पतन इतना हो गया है कि हम जानवरों से भी गए बीते हो गए हैं। हम जानवर कहलाने के लायक भी नहीं रहे। वैसे भी बलात्कार किसी के भी साथ हो, हमेशा पीड़ादायक ही होता है। बलात्कार वह निर्मम अपराध है जिसकी कोई भी सजा दी जाए, कम ही मानी जानी चाहिए। हालांकि मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस एन. किरुबकरन ने एक मामले में कहा है कि बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले लोगों का बंध्याकरण कर देना चाहिए। अगर हम मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस की बातों पर गौर करें, तो यह सही है कि किसी भी अपराधी का बंध्याकरण बर्बर सजा को सभ्य समाज में श्रेणी की सजा में माना जाएगा। लेकिन पिछले कुछ दशकों से जिस तरह बच्चियों और महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध में बर्बरता बढ़ी है, उसे देखते हुए यह सुझाव कोई बुरा नहीं प्रतीत होता है।
जिस तरह बलात्कार के बाद स्त्री अपना बाकी जीवन सामान्य महिलाओं की तरह नहीं बिता पाती है, हर पल बलात्कार का दंश उसके जीवन को दुश्वार किए रहता है। ठीक उसी तरह अगर बच्चियों की अस्मत से खिलवाड़ करने वाले का बंध्याकरण करके समाज में छोड़ दिया जाए, तो वह जिस तरह की जिल्लत और अपमान से गुजरेगा, वह उसे जीवन भर चैन से नहीं बैठने देंगे। समाज उसे हेयदृष्टि से तो देखेगा ही, वह खुद भी अपनी नजरों में गिर जाएगा। अभी तो होता यह है कि बलात्कारी सजा की अवधि जेल में बिताकर बाकी जिंदगी शान से गुजारता है। लेकिन बंध्याकरण की स्थिति में शान से जिंदगी गुजारना उसके लिए संभव नहीं होगा।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं या बच्चियों के प्रति अपराध पहले नहीं होते थे। महिलाओं के साथ दुराचार, उनका यौन शोषण तो प्राचीनकाल में भी होता रहा है, आज भी हो रहे हैं, भविष्य में भी बिल्कुल खत्म हो जाएगा, ऐसी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। यह दुनिया लुभावनी है, उन्हें उत्तेजित करती है, उनके मन में जहां आश्चर्य पैदा करती है, तो असीमित और अनियंत्रित वासना का संचार भी करती है। वे उसी में डूब-उतरा रहे हैं। गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में इंटरनेट और मोबाइल के प्रादुर्भाव से पहले सभी तरह की खिड़कियां बंद थीं।
लड़के-लड़कियों के मिलने-जुलने पर घर-परिवार से लेकर गांव-समाज तक का प्रतिबंध था। रिश्ते-नातों का बंधन उन्हें किसी भी तरह के अपराध के लिए रोकता था। लेकिन जैसे ही यह बंधन हटा, सभी स्वतंत्र हो गए। लड़के भी। लड़कियां भी। हजारों साल से समाज में मिलने-जुलने पर लगा प्रतिबंध ढीला क्या पड़ा, यौनिक उन्मुक्तता ने सारे बंधन तोड़ दिए। लोगों ने समाज की जरूरत समझकर अपने बेटे-बेटियों पर लगा कठोर प्रतिबंध हटाया, तो इस स्वतंत्रता ने उन्हें जहां अपने विकास का मार्ग सुझाया, तो यौनिक कुंठाएं भी प्रदान की। इन्हीं यौनिक कुंठाओं का परिणाम है बच्चियों और महिलाओं के प्रति बढ़ता अपराध। यौन कुंठा ने अपराध का प्रतिकार करने पर बर्बरता को जन्म दिया। यही वही बर्बरता है जिसको आज छोटी-छोटी बच्चियां भोग रही हैं, महिलाएं भोग रही हैं।
अगर हम आंकड़ों की ही बात करें, तो पिछले दो दशक में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध चिंताजनक स्तर तक बढ़े हैं। बच्चों के प्रति होने वाला अपराध भी कई गुना बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। सन 2008 में नाबालिगों (जिसमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल हैं) के साथ 22,900 मामले दर्ज किए गए थे। उसके अगले साल 24,201 मामले, वर्ष 2010 में 26,694 मामले दर्ज हुए, लेकिन इसके अगले साल यानी 2011 में पिछले साल के मुकाबले बच्चों के साथ होने वाले अपराध में भयानक तेजी आई।
वर्ष 2011 में 33,098 मामले संज्ञान में आए, तो वहीं 2012 में 38,172 मामले दर्ज किए गए। वर्ष 2013 में 58,224 और 2014 में 89,423 मामले पंजीकृत हुए। अब अगर इन आंकड़ों पर गौर करें, तो पाते हैं कि वर्ष 2008 से 2014 तक आते-आते अपराध के मामलों में 400 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। ये आंकड़े वाकई किसी भी सभ्य समाज और देश-प्रदेश की सत्ता की पोल खोलने के लिए काफी हैं। ये दिनोंदिन बढ़ते आंकड़े इस बात के भी गवाह हैं कि हमारी सरकारें सिर्फ बयान जारी करके चुप बैठ जाने के मामले में ही चुस्त-दुरुस्त हैं, अपराध नियंत्रण पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं महसूस करती हैं। यदि स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध को नहीं रोका गया, तो समाज में स्त्रियों की अस्मिता कहीं भी सुरक्षित नहीं रहेगी। न घर में, न बाहर।
लेखक:- जगजीत शर्मा
(लेखक दैनिक न्यू ब्राइट स्टार में समूह संपादक हैं।)