हमारे देश में जहां राजनेताओं को आम लोगों को शिक्षा का अधिकार दिए जाने की वकालत करते सुना जाता है वहीं लगभग प्रत्येक वर्ष खासतौर पर विद्यालयों का सत्र समाप्त होने के बाद तथा महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में दाखि़ला शुरू होने से पूर्व यूजीसी अर्थात् विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अपनी प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से अथवा विज्ञापन के द्वारा एक ऐसी सूची जारी की जाती है जिससे छात्रों को देश के विभिन्न राज्यों में में संचालित किए जा रहे फर्ज़ी विश्वविद्यालयों के नामों से अवगत कराया जाता है।
अपनी विज्ञप्ति में यूजीसी छात्रों को यह सूचित करता है कि अमुक फर्ज़ी विश्वविद्यालयों को डिग्री देने का कोई अधिकार नहीं है। इसका अर्थ यह है कि यूजीसी द्वारा जारी की गई सूची में उल्लिखित विश्वविद्यालयों से डिग्री लेने वाले छात्रों की डिग्री मान्य नहीं होगी तथा उस डिग्री को किसी भी प्रकार की नौकरी के लिए प्रयोग में नहीं लाया जा सकेगा। इस वर्ष भी यूजीसी ने दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडृ,पश्चिम बंगाल तथा महाराष्ट्र में अपना मुख्यालय बना कर संचालित की जाने वाले ऐसे 21 विश्वविद्यालयों की सूची जारी की।
गौरतलब है कि इस प्रकार की फर्ज़ी डिग्रियों को हासिल करने के मामले में केवल साधारण छात्रों के ही नाम नहीं सुनाई देते बल्कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तथा भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी की धर्मपत्नी,दिल्ली सरकार के कानून मंत्री जितेंद्र तोमर सहित कई अन्य सांसदों तथा विधायकों के नाम फर्ज़ी डिग्री अथवा फर्ज़ी विश्वविद्यालयों से जारी करने वाली डिग्रियों के सिलसिले में आते रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि वास्तव में हमारे देश में डिग्री अथवा ऐसी डिग्री जारी करने वाले विश्वविद्यालयों का कोई महत्व है भी अथवा नहीं? ऐसी बातों का महत्व होना भी चाहिए या नहीं? किसी मान्यता प्राप्त अथवा गौर मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से जारी की जाने वाली डिग्री का वास्तव में कोई महत्व होना भी चाहिए अथवा नहीं?
निश्चित रूप से हमारे देश में मान्यता प्राप्त विद्यालय तथा विश्वविद्यालय द्वारा जारी की जाने वाली डिग्रियों तथा अंक तालिका का बहुत महत्व है। खासतौर पर इनके बिना कोई व्यक्ति सरकारी नौकरियां हासिल नहीं कर सकता। चपरासी से लेकर सिपाही और बड़े से बड़े अधिकारी की भर्ती तक के लिए सरकारी मान्यता प्राप्त विद्यालयों तथा यूजीसी द्वारा मान्यता प्रदान किए गए विश्वविद्यालयों का प्रमाण पत्र होना अत्यंत आवश्यक है। परंतु इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। हमारे देश में शिक्षा विभाग में चपरासी या क्लर्क की नौकरी के लिए जहां दसवीं-बारहवीं अथवा स्नातक परीक्षा पास करनी ज़रूरी है वहीं शिक्षामंत्री बनने हेतु किसी डिग्री अथवा सर्टिफिकेट की कोई ज़रूरत नहीं।
सिपाही में भर्ती के लिए दसवीं या बारहवीं पास होने के साथ-साथ निर्धारित शारीरिक मापदंड भी पूरे होने चाहिए। परंतु गृहमंत्री बनने के लिए कोई शिक्षा की अनिवार्यता भी नहीं है और यदि गृहमंत्री विकलांग हो तो भी कोई आपत्ति नहीं। आईए इससे और आगे बढ़ते हैं। हमारे देश में बड़े से बड़ा अधिकारी अथवा मंत्री जिन तथाकथित धर्मगुरुओं के आगे नतमस्तक होता है तथा जिनके चरण स्पर्श करने में वह अपना सौभाग्य समझता है उस ‘धर्मात्मा’ के लिए भी शिक्षा की कोई अनिवार्यता नहीं। और यदि गहन अघ्ययन किया जाए तो विभिन्न धर्मों में पाए जाने वाले धर्मगुरुओं में अधिकांश लोग अनपढ़ पाए जाएंगे।
उनके पास शायद ही किसी विद्यालय अथवा विश्वविद्यालय यहां तक कि फ़र्ज़ी कहे जाने वाले गैर मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों की डिग्री तक भी मुश्किल से ही मिलेगी। सवाल यह है कि जब देश चलाने वाला अर्थात् सरकार के नीति निर्धारकों के लिए मान्यता प्राप्त डिग्री अथवा उनकी शैक्षिक योग्यता कोई मायने नहीं रखती तो समाज के साधारण वर्ग से आने वाले सिपाहियों व लिपिकों की भर्ती के लिए यूजीसी द्वारा मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय की डिग्रियों की शर्त क्यों?
यदि इसे हमारे देश की विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसा वह महत्वपूर्ण मंत्रालय जिसे कभी अर्जुन सिंह, डा० मुरली मनोहर जोशी तथा कपिल सिब्बल जैसे उच्च शिक्षा प्राप्त व दूरदर्शी बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ सुशोभित कर चुके हों उस मंत्रालय पर आज स्मृति ईरानी जैसी एक ऐसी महिला को बिठाया गया है जिसकी शैक्षिक योग्यता तथा डिग्री संदिग्ध एवं विवादित है। हां अभिनय तथा अपनी बात को बेहद खूबसूरत तरीके से प्रस्तुत करने के जो गुण स्मृति ईरानी में हें वह विशेषताएं बेशक इनके पूर्व के मानव संसाधन विकास मंत्रियों में नहीं रही होंगी। आश्चर्य की बात तो यह है कि पिछले दिनों अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट से यह भी पता चला कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सभी केंद्रीय मंत्रियों मेें केवल स्मृति ईरानी के कामकाज से ही सबसे अधिक संतुष्ट है।
इससे भी यह ज़ाहिर होता है कि योग्यता के मापदंड केवल पढ़ाई-लिखाई तथा किसी विषय विशेष के ज्ञान पर अपना नियंत्रण होना नहीं बल्कि कुछ और ही है। अन्यथा एक ऐसा अति महत्वपूर्ण मंत्रालय जो देश के सभी विश्वविद्यालयों यहां तक कि आईआईटी तथा शिक्षा व साहित्य संबंधी अन्य तमाम विभागों की देखरेख करता हो देश के विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों की नियुक्ति में तथा देश की शिक्षा नीति में अपना महत्वपूर्ण दखल रखता हो ऐसे मंत्रालय में किसी अनपढ़ अथवा कम पढ़े-लिखे या संदिग्ध डिग्री धारण करने वाले व्यक्ति की मंत्री के रूप में नियुक्ति का मतलब ही क्या है? परंतु ज़ाहिर है जो कुछ भी हो रहा है वह भले ही नैतिकता के दायरे में न आता हो परंतु संविधान के दायरे में तो बहरहाल है ही।
पिछले दिनों जिस समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा देश में चलने वाले फ़र्ज़ी विश्वविद्यालयों की सूची जारी की गई उस सूची में उत्तर प्रदेश में संचालित होने वाले 9 फ़र्ज़ी विश्वविद्यालयों के नामों का उल्ल्ेाख था उनमें एक नाम गुरूकुल यूनिवर्सिटी, वृंदावन, मथुरा का भी था। इस कथित विश्वविद्यालय के प्रवक्ता से एक टीवी चैनल के संवाददाता ने जब बात की तो उसने उसे बड़े ही अटपटे से जवाब दिए। उसने कहा कि हमारा विश्वविद्यालय तो यूजीसी की स्थापना से पहले ही स्थापित हुआ था। जबकि यूजीसी का गठन बाद में हुआ है।
उसने तर्क दिया कि विश्वविद्यालय का अर्थ है जहां पूरे विश्व के छात्र आकर शिक्षा ग्रहण करें और हमारे गुरुकुल में वही हो रहा है। उसने साफ कहा कि यूजीसी को हमारे विश्वविद्यालय को अमान्य बताने अथवा इसे फ़र्ज़ी बताने का कोई अधिकार ही नहीं। ज़ाहिर है इस प्रकार के तर्क-वितर्क तथा शिक्षा व डिग्रियों की मान्यता पर इस प्रकार के वाद-विवाद किसी साधारण भारतीय नागरिक को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने दें अथवा नहीं परंतु यह परिस्थितियां आम लोगों को भ्रमित तो ज़रूर ही करती हैं।
निश्चित रूप से विश्वविद्यालय के नाम पर चलने वाला राष्ट्रीय स्तर का फ़र्ज़ीवाड़ा छात्रों को ज्ञान कम देता है तथा अपनी डिग्रियां बेचता अधिक है। अर्थात् विश्वविद्यालय के नाम पर चलने वाले संस्थान शिक्षण संस्थान होने के बजाए व्यवसायिक केंद्र मात्र बनकर रह गए हैं। इसी प्रकार गली-मोहल्लों में खुलने वाले तमाम स्कूल भी ऐसे हैं जो संचालकों के लिए धनार्जन का साधन मात्र हैं।
लिहाज़ा इस विषय पर एक राष्ट्रव्यापी पारदर्शी नीति बनाए जाने की ज़रूरत है। तथा इस बात की भी सख्त ज़रूरत है किफ़र्ज़ी विश्वविद्यालयों की ओर आकर्षित होने वाले छात्रों को उधर जाने से रोका जाए। ज़ाहिर है इसके लिए यूजीसी द्वारा मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों का एक ऐसा व्यापक नेटवर्क होना चाहिए जिसका प्रचार व प्रसार देश के प्रत्येक गली-मोहल्ले तक हो। साथ-साथ यह भी बहुत ज़रूरी है कि संविधान में बदलाव कर देश के नीति निर्धारकों खासतौर पर विधायकों,सांसदों तथा मंत्रियों की न्यूनतम शिक्षा का निर्धारण किया जाए। हमारा देश विश्वगुरू था,यह बातें अध्यात्मवाद से जुड़ी हैं न कि शिक्षा,विज्ञान तथा सूचना एवं प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों से। हमारा देश तथा इसकी सरकारें ज़ाहिर है अध्यात्मवाद के बल पर नहीं चल रही हैं बल्कि इसके संचालन के लिए योग्यता,प्रशिक्षण तथा विभाग विशेष में पूरी दक्षता की ज़रूरत होती है। यदि मेहनतकश छात्रों,मेरिट लिस्ट में आने वालों तथा काबिल उच्चाधिकारियों पर अनपढ़ अथवा फ़र्ज़ी डिग्री धारकों का वर्चस्व इसी प्रकार बना रहा तथा ऐसे लोग शिक्षित लोगों को निर्देश जारी करते रहे तो नि:संदेह शिक्षित वर्ग का तथा अपनी जीतोड़ मेहनत के बल पर ऊंचे स्थानों पर पहुंचने वालों का मनोबल टूटता रहेगा। और वे यह सोचने पर मजबूर होंगे कि आखिर यह डिग्री-विग्री जैसी बातें हैं क्या?
:-निर्मल रानी
निर्मल रानी
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