मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, कांग्रेस महासचिव एवं सांसद दिग्विजय सिंह के साथ मेरा परिचय लगभग 2 दशक पूर्व हुआ था। कार्यकाल का तीसरा वर्ष था जब मेरी उनसे पहली बार भेंट हुई थी। मेरे गृह नगर मंडला में उनके प्रवास के दौरान आयोजित एक पत्रकार वार्ता में मैं भी पत्रकारों के उस समूह में शामिल था। जिससे दिग्विजय सिंह प्रदेश सरकार के मुखिया के रूप में मुखातिब थे। पत्रकारों के सारे सवालों के जवाब देते समय वे इतने सहज थे कि पत्रकारों को तनिक भी यह महसूस नहीं हुआ कि वे एक मुख्यमंत्री से प्रश्न कर रहे हैं। पत्रकारों के जटिल से जटिल प्रश्नों ने भी उन्हें तनिक भी असहज नहीं किया। पत्रकारों के सवालों का जवाब देते समय उन्होंने अपनी विनोदप्रियता का एहसास भी हमें करा दिया।
पत्रकार वार्ता के पश्चात मेरी उनसे अनौपचारिक वार्तालाप भी हुई और कुछ ही पलों में उन्होंने मुझे अपना बना लिया। न पद का अहंकार और न ही एक चतुर राजनेता जैसी ओढ़ी हुई विनम्रता। एकदम सहज, सरल और मृदुभाषी मुख्यमंत्री की इस छवि ने मुझे ऐसा सम्मोहित किया कि मैं उनसे हमेशा के लिये आत्मीय भाव से जुड़ गया। उस दिन तत्कालीन मुख्यमंत्री के साथ मेरे जो संबंध बने वे मेरे लिये अमूल्य पूंजी हैं। भले ही उम्र में मैं उनसे काफी छोटा हूं और मेरी उनसे मुलाकात भी यदाकदा होती है परंतु जब भी मैं उनसे मिलता हूं, उनसे हुई हर मुलाकात मेरे स्मृति पटल पर हमेशा के लिये अंकित हो जाती है। मुझे हमेशा उन्होंने अनुजवत स्नेह दिया है। अभी कुछ ही समय पूर्व की बात है, वे सपत्नीक जिस ट्रेन के प्रथम श्रेणी कोच में सफर कर रहे थे, सौभाग्य से मैं भी कोच में यात्रा कर रहा था। उन्होंने मुझे देखते ही मधुर मुस्कान के साथ मेरे कंधों पर हाथ रखकर कहा— अच्छा तुम भी साथ चल रहे हो। इसके बाद पूरी यात्रा के दौरान उन्होंने थोड़े— थोड़े अंतराल के बाद स्वयं ही मेरी बर्थ के पास आकर मुझे अपने साथ अपने अभिभावक के होने का एहसास कराया। एक पल को मैं यह सोचने के लिये विवश हो गया कि आखिर दिग्विजय सिंह जी जैसे सहज, सरल और मृदुभाषी राजनेता के विरोधी कैसे हो सकते हैं। परंतु यह एक हकीकत है कि दिग्विजय सिंह के विरोधियों की संख्या इतनी कम नहीं है कि उसे नजअंदाज करना मुमकिन हो सके परंतु एक हकीकत यह भी है कि हर राजनीतिक दल में उनके मित्र मौजूद हैं।
नीतिगत और सैद्धांतिक विरोध को वे कभी व्यक्तिगत संबंधों पर हावी नहीं होने देते। दिग्विजय सिंह केवल संबंध बनाने की कला भर में माहिर नहीं हैं अपितु संबंधों को निष्ठापूर्वक निभाने का जज्बा भी उनके अंदर— कूट कूटकर भरा हुआ है। दिग्विजय सिंह सबके काम आते हैं, चाहे वह उनके अपने दल का हो अथवा कांग्रेस से परहेज करने वाले किसी अन्य दल का। विरोधी दलों के नेताओं के साथ भी दिग्विजय सिंह की मैत्री इतनी प्रगाढ़ है कि कई बार इन विरोधी मित्रों को अपने ही दल में गलतफहमी का शिकार बनना पड़ा है। ऐसी स्थितियां अतीत में कई बार बन चुकी हैं और आज भी ऐसे अवसर आते रहते हैं जब दिग्विजय सिंह जी के साथ किसी विरोधी दल के नेता की भेंट सुर्खियों का विषय न बनी हो। यही दिग्विजय सिंह की राजनीति की पहचान भी है, जो हमेशा राजनीतिक पंडितों के लिये जिज्ञासा का विषय रही है और हमेशा रहेगी। दिग्विजय सिंह एक ऐसे राजनेता हैं जिनसे आप सहमत या असहमत तो हो सकते हैं परंतु उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते।
वे अपनी बेवाक टिप्पणियों से पैदा होने वाले विवादों की परवाह नहीं करते। उन्हें जो सही प्रतीत होता है उसे वे पूरी निर्भीकता के साथ व्यक्त कर देते हैं। कई बार उनकी टिप्पणियों की वजह से उन्हें अपने ही दल में भी आलोचना सहनी पड़ती है परंतु जो राजनेता अपनी आलोचना से विचलित हो जाए उसका नाम दिग्विजय सिंह तो हो ही नहीं सकता। उनके व्यक्तित्व की एक विशेषता यह है कि वे एक बार जो कह देते हैं उस पर हमेशा अटल रहते हैं। एक बार एक समाचार चैनल में साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा भी था कि उनके विरुद्ध मानहानि के कई मुकदमे दायर हो चुके हैं परंतु वे हर बार विजेता साबित हुए हैं। जीत उनकी ही हुई है और उनका पक्ष हर बार सही साबित हुआ है।
हर विवाद के बाद वे और मजबूत होकर उभरे हैं। उनके आलोचकों को कई बार मौन धारण करने के लिये जिन्होंने विवश कर दिया है परंतु ज्वलंत मुद्दों पर अपनी बेवाक राय देने का स्वभाव दिग्विजय सिंह ने कभी नहीं छोड़ा। सन् 2003 में जब मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की सोचनीय पराजय हुई थी तब ऐसा मानने वालों की संख्या कम नहीं थी कि दिग्विजय सिंह अब कांग्रेस पार्टी ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति में हमेशा के लिये हाशिये पर चले जाएंगे। उन्होंने संपूर्ण विनम्रता के साथ उस सोचनीय पराजय की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए यह संकल्प लिया था कि वे दस वर्षों तक सत्ता प्रतिष्ठानों में कोई भी पद स्वीकार नहीं करेंगे।
दस वर्षों का लंबा समय किसी भी राजनेता को हाशिये पर पहुंचाने के लिये काफी है परंतु दिग्विजय सिंह को नहीं। वे न तो हाशिये पर भेजे जा सके और न ही राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हुए। अपनी पार्टी के लिये वे बराबर अपरिहार्य बने रहे। अपनी सारी ताकत और विलक्षण कार्यशैली के माध्यम से वे कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने में जुटे रहे। मध्यप्रदेश की राजनीति में भी उनकी प्रासंगिकता पर कई बार सवाल खड़े किये गए परंतु 15 वर्षों के बाद जब एक बार फिर कांग्रेस पार्टी सत्ता में लौटी है तो वे सर्वाधिक प्रासंगिक बन चुके हैं। वे राज्य में सत्ता का दूसरा शक्तिशाली केन्द्र हैं। विधानसभा चुनावों के पूर्व जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद की बागडोर कमलनाथ को एवं प्रचार अभियान समिति के प्रमुख की बागडोर ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपी गई थी तब समन्वय समिति के मुखिया की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालने के लिये दिग्विजय सिंह पर ही भरोसा किया और उसी समय यह भी सुनिश्चत हो गया था कि राज्य में न केवल कांग्रेस की सत्ता में वापसी होना तय है बल्कि दिग्विजय सिंह किंगमेकर की भूमिका निभाने के लिये पूरी तरह तैयार हैं। मुख्यमंत्री पद के लिये कमलनाथ के चयन से लेकर मंत्रिमंडल गठन और उसके बाद हुए प्रशासनिक फेरबदल में दिग्विजय सिंह की राय अहम साबित हुई है।
सारे महत्वपूर्ण फैसलों में दिग्विजय सिंह की राय की अहमियत को नकारना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन भी है। दिग्विजय सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के जिन पहलुओं ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है, उनमें अध्यात्म के प्रति उनके समर्पण का सश्रद्धया उल्लेख अगर मैं इस लेख में ना करूं तो यह मेरा घोर अपराध होगा। दिग्विजय सिंह की इतनी राजनीतिक व्यस्तता और सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की भागदौड़ के बीच अध्यात्म से जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ। उनकी दिनचर्या की शुरुआत ईश्वर की आराधना से होती है, जिसके लिये लगभग 3 घंटे का समय तय है। अपनी दिनचर्या के लिये सारी उर्जा और पूरी शक्ति उन्हें अध्यात्म से ही मिलती है। वे संकल्प शक्ति के धनी हैं। उन्होंने पुण्य सलिला नर्मदा की परिक्रमा का संकल्प लिया था और दो वर्ष पूर्व उन्होंने संकल्प को मूर्त रूप देने की ठान ली। उन्होंने अपनी यह निजी अध्यात्मिक नर्मदा परिक्रमा अटूट श्रद्धा और समर्पण के साथ पूर्ण की जो उनके यशस्वी जीवन का स्वर्णिम अध्याय था। मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा यात्रा को कठोर तपस्या निरूपित किया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि दिग्विजय सिंह की यह आध्यात्मिक यात्रा भले ही उनका निजी अनुष्ठान रही हो परंतु मध्यप्रदेश में सत्ता से कांग्रेस के वनवास की समाप्ति में उनकी इस कठोर तपस्या की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
@कृष्णमोहन झा
वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है))