तमिलनाडु के कोयंबतूर में एक 31 वर्षीय मुस्लिम नौजवान की हत्या कर दी गई। उसका नाम फारुक था। उसकी हत्या इसलिए हुई कि वह नास्तिक था। वह अपनी वेबसाइट पर मजहबी मुद्दों के बारे में खुलकर लिखा करता था। वह अपने सैकड़ों साथियों को अक्सर व्हाट्सअप भेजा करता था। उसकी हत्या किसने की? उन लोगों ने की, जो अपने आप को इस्लाम के सिपाही मानते हैं।
याने कुछ कट्टर मुसलमानों ने फारुक को उसकी काफिराना हरकत की सजा दे दी। यह बिल्कुल वैसा ही हुआ, जैसा कि कुछ नासमझ हिंदुओं ने नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे और एम.एम. कालबुर्गी के साथ किया था। कहने का मतलब यह है कि सिरफिरे और अतिवादी लोग हर धर्म और संप्रदाय में हैं। वे समझते हैं कि वे बहुत बहादुर हैं। वे अपने मजहब के खातिर अपनी जान भी खतरे में डाल देते हैं। लेकिन मैं समझता हूं कि ऐसे लोग अपने मजहब की न सिर्फ तौहीन करते हैं बल्कि वे कायर भी हैं।
वे अपने मजहब की तौहीन इस प्रकार करते हैं कि वे उसमें अंधविश्वास करने की वकालत करते हैं। वे तर्क नहीं करना चाहते। वे वाद-विवाद से डरते हैं। क्या उनका धर्म या मजहब इतना पोंगापंथी है कि उस पर कोई बहस ही नहीं हो सकती? भारत में तो शास्त्रार्थ की परंपरा बहुत प्राचीन है। शंकराचार्य से लेकर महर्षि दयानंद तक धार्मिक मान्यताओं की बखिया उधेड़ते रहे हैं।
भारत में नास्तिक मतों को भी पलने-पालने की बड़ी परंपरा है। चार्वाक, जैन और बौद्ध मत नास्तिक ही हैं। ये सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास नहीं करते। वे निमित्त कारण को नहीं मानते लेकिन भारतीय दर्शन में उनका अपना स्थान है। अपने विरोधियों को तर्क से हराने की बात तो समझ में आती है लेकिन हिंसा से उनका मुंह बंद करने की कोशिश करना तो पशुता ही है। जो ऐसा करता है, वह अपने धर्म को ही हानि पहुंचाता है।
ईसा मसीह को सलीब पर लटकाने से यहूदियों का फायदा हुआ या नुकसान? महर्षि दयानंद पर सांप छोड़ने, जहर खिलाने और मार देने से क्या पौराणिकों का कोई फायदा हुआ? कई वैज्ञानिकों और विचारकों को यूरोप की पोपशाही ने सजा-ए-मौत देकर क्या हासिल किया? आज करोड़ों यूरोपीय लोग ईसाइयत से दूर हो गए हैं। कोयंबतूर में एक फारुक को मारकर कट्टरपंथियों ने हजारों फारुकों के बीज बो दिए हैं।
लेखक @ डा. वेद प्रताप वैदिक