लखनऊ- अमर उजाला के एडिट पेज पर इस्तीफिए नाटकबाजों के समर्थन में अपने वरिष्ठ पत्रकार साथी नवीन जोशी जी का लेख पढ़ने को मिला। उनके लेख का लब्बोलुआब ये है कि देश की मिलीजुली संस्कृति तबाह हो रही है, देश पर फिरकापरस्त ताकतों का कब्जा हो रहा है लिहाजा लेखकों का विरोध लाजमी है।
मेरे वरिष्ठ मित्र साहेब अपने लेख में बाकलम होते हुए फरमाते हैं कि पुराने तर्क देकर मौजूदा हालातों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। तो ये है जोशी जी के जोशीले विचारों में फ्रेम किया हुआ लेख।
दोस्तों! मैं भी छोटा-मोटा सा लेखक हूँ और 28 किताबें मेरी भी प्रकाशित हो चुकी हैं और एक-आध फैलोशिप मैं भी पा चुका हूँ व उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से चार पुस्तकों पर सम्मान भी हाँतो बतौर छुटभैया लेखक और पत्रकार मेरे भी चंद सवालात हैं। जोशी जी और उनकी सोच से इत्तिफाक रखने वाली सशक्त और वेल मैनेज्ड लाॅबी से
सवाल ये रहे और आपका समय शुरू होता है अब-
1- हिंदी अकादमी का बतौर सदस्य रहते उन्होंने जो मलाई जीवन भर चखी है और उस मलाई को चखने में जो सरकारी पैसा जाया हुआ है क्या वह वो सरकारी खजाने में जमा करेंगे?
2- पुरस्कार में मिली राशि को ब्याज सहित और प्रशस्ति पत्र सहित वापस करेंगे क्या सरकार को यह नहीं करना चाहिए कि वह ऐसे नाटक व नौटंकीबाज साहित्यकारों से मय ब्याज रकम वसूले?
3- 1984 में जब हजारों सिखों को सरेराह कांग्रेसी जला रहे थे तब ये लाल लंगोटधारी साहित्यकारों की राष्ट्रीय चेतना और जमीर क्या घास चरने गया था?
4- भागलपुर दंगों से लेकर कांग्रेसी हुकूमत में हुए हजारों दंगों पर इनकी कलम और जुबान क्यों नहीं बंद थी….घोर सांप्रदायिकता के भाव से पगी और सेक्युलरिज्म के नाटक में माहिर कांग्रेसी इनके जमीर को आखिर कौन सी मुगली घुट्टी 555 पिलाते रहे कि इनका आत्मचिंतन और आत्मबोध 65 साल बाद जागा?
5- बांग्लादेश में जब एक धर्म विशेष के लोगों की नृशंस हत्याओं का दौर चला और धर्म विशेष के स्थलों को नेस्तनाबूद कर दिया गया ….तसलीमा नसरीन जैसी लेखिका को” लज्जा” के कारण अपना ही मुल्क छोड़ देना पड़ा तो इस्तीफे के नौटकीबाज साहित्यकारों की आवाज एक बार भी इस महिला लेखिका के समर्थन में क्यों नहीं निकली?
6- केरल में धर्म के नाम पर हाल ही में कुछ धर्म प्रचारकों की जिस तरह से नृशंस हत्या हुई उस पर इस्तीफे क्यों नहीं हुआ?
7- केरल में लालच देकर जिस तेजी से धर्मपरिवर्तन हो रहा है उससे वहाँ की इस्तीफा देने वाली स्वनाम धन्य साहित्यकारा महोदय की जुबान व कलम कहाँ गिरवी थी?
8- क्या यह सवाल लाजिमी नहीं है कि भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में कांग्रेसियों ने चुन चुनकर लाल चढ्ढी की सोच वाले तथाकथित इतिहासकारों और तमाम साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं में इनकी थोक भाव में भर्ती की गई?
9- क्या यह सच नहीं है कि ऐसे तमाम इतिहासकारों और लाल चढ्ढी भक्त लेखकों ने तथाकथित शोध व लेखन के नाम पर लाखों व करोड़ों के वारे-न्यारे नहीं किए….कई पर अखबारों में इस आशय से संदर्भित खबरें भी आईं लेकिन हुआ कुछ नहीं?
10- दिल्ली की एक बड़ी साप्ताहिक हिंदी मैग्जीन में मुझे जब काम करने का मौका मिला और अपने कुछ वरिष्ठ साहित्यकार मित्रों के साथ जब हिंदी अकादमी और अक्सर शाम को इंडिया हैबीटेट सेंटर मे देर शाम गुजारने का जो मौका मिला तो पता चला ये साहित्यिक जमात दरअसल प्याज की आडी की तरह है ।एक-एक परत छीलते जाओ और नई नई कहानियों का लुत्फ लेते जाओ हिंदी अकादमी से जेएनयू के “बौद्धिक प्याजीय” स्तर का पता लगाना हो तो अड्डे मैं बता देता हूँ सार आप निकाल लाइए।
दोस्तों! हिंदी अकादमी हो या भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ..यहां आजादी के बाद से ही एक वर्ग विशेष व राजनैतिक विचारधारा के गुलाम ऐसे साहित्यकार व लेखक भाड़े पर पाले जाते रहे हैं।ये मेरी अपनी राय है कि धन-पद और प्रतिष्ठा पाने के लिए ये एक पक्षीय तथाकथित साहित्यकारों का झुंड किसी भी स्तर तक गिर सकता है इस्तीफे का यह नाटक इनके लिए ही भारी न पड़ जाए।
11- क्या यह सच नहीं है कि दिल्ली से लेकर देश की तमाम साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थानों में आजादी के बाद से कम्युनिस्ट सोच के साहित्यकारों और पत्रकारों ने अपना एक साम्राज्य खड़ा किया ? क्या यह सच नहीं है कि दिल्ली में रहते हुए आपको सम्मान पुरस्कार फैलोशिप स्कालरशिप तभी मिल सकती है जब तक आपके सिर पर किसी कम्युनिस्ट साहित्यकार व कम्युनिस्ट मांइडसेट वाला पत्रकार हाथ न रखे?
12- देश की जिस चिंता में ये तथाकथित साहित्यकार दुबले हुए जा रहे हैं वो उस वक्त कलम व जुबान की खामोशियों के आगोश में क्यों बने रहे जब शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट को भी कांग्रेस सरकार ने धता बता दी थी?
13- क्यों किसी इस्तीफाबाज के लिए अरबों रूपए का कांग्रेसी घोटालों का सच उपन्यास, कहानी या निबंध संग्रह का रूप अख्तियार नहीं कर सका? 35 सालों का पश्चिम बंगाल का कम्युनिस्ट शासन जिसमें पुलिसिया नरसंहारों और लाल आंतक पर इस्तीफाई खामोशी छाई रही?
14- कुछ माह पूर्व बांग्लादेश में जिस तरह से दो ब्लागरों की नृशंस हत्याएं हुई उस पर कलम क्यों गिरवी हो गई?
15- माओवादियों द्वारा जब 75-75 सुरक्षा कर्मियों की हत्याएं होती हैं तो ये इस्तीफें राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर क्यों नहीं होते हैं?
16- कभी किसी कम्युनिस्टीय साहित्यकार की कलम से आपने चीन की विस्तारवादी नीति व भारत विरोधी गतिविधियों के विरोध में कलम घिसते देखा है क्या?
17- क्या यह सच नहीं है कि इस्तीफिए उसी लेखक बिरादरी का हिस्सा हैं की जब भारत ने पोखरण में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था तब ऐसी संवेदनशील व राष्ट्रीय सोच वाली बिरादरी ने अपने लेखों में लिखा था…भारत को गरीबी व भुखमरी से लड़ने की जरूरत है परमाणु परीक्षण की नहीं लेकिन इससे पूर्व जब चीन में परमाणु परीक्षण हो रहे थे तो उसके भारतीय संदर्भ में यह बिरादरी कलम व विवेक शून्य थी?
18- हजारों लोग भोपाल गैस कांड में मारे गए , इस पूरे कांड में कांग्रेस की तत्कालीन राज्य व केन्द्र की सरकारों की जो घोषित घटिया भूमिका थी उस वक्त इन साहित्यकारों का विधवा विलाप क्यों नहीं हुआ जोशी जी? जबकि सबसे ज्यादा मुस्लिम तबका इससे प्रभावित हुआ था।
19- प्रख्यात साहित्यकार पाश की पंजाब में हत्या हुई, सुल्तानपुर में मान बहादुर सिंह मान की हत्या हुई और गाजियाबाद में रंगकर्मी सफदर हाशमी की तब क्या हुआ था इस्तीफिए नाटककारों को? इस लिए खामोशी थी क्योंकि कांग्रेसियों की सत्ता थी और देश के तमाम साहित्यिक व सांस्कृतिक व शोध संस्थानों पर कम्युनिस्ट माइंडसेट काबिज था?
20- हाल ही में तो मुज्जफरनगर का दंगा भी हुआ था जोशी जी उस दौरान इस्तीफिओं की राष्ट्रीय समरता के भाव क्या घास चरने गए थे? जोशी जी अब देश की साक्षरता दर औसतन 70 या इसके ऊपर तो होगी ही पुख्ता आंकडे मुझे नहीं पता हैं। लिहाजा अब ऐसी संगठित लेखकीय लाॅबी एक नहीं हजार लेख लिखे या अपना इस्तीफा लेकर जंतर-मंतर पर बैठकर मातम मनाए सोशल मीडिया पर सवाल उठेंगे और बाल की खाल निकाली जाएगी।
अब बरगलाने के दिन जा चुके हैं सवाल आप उठाएँगे तो लोग अपनी तरफ से भी सवाल उठाएँगे, यह कहकर अब कोई विशेष विचारधारा का सोकाल्ड साहित्यकार तमाम सवालों से बच नहीं सकता कि ये सब बातें पुरानी हैं। जोशी जी वर्तमान बहुत कुछ इतिहास की नींव पर होता है।
भारतीय इतिहास अंनुसंधान परिषद में कई साल बैठकर अपनो-अपनो को उपकृत करने का वक्त गया। इस साल तू मुझे सम्मानित कर अगले साल मैं तुझे करवा दूंगा इस साल मेरी फैलोशिप अगले साल तेरी फैलोशिप अब नहीं अब तो सवाल उठेंगे आदरणीय जोशी जी पुरस्कारों का तिलस्म कितना गहरा है हम सभी को पता है। मेरे सवालों से अगर आपको कोई नाराजगी हो तो अग्रिम माफी मांगता हूँ।
लेखक:-पवन सिंह