जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से पढ़ी और ख़ुद भी जनवादी विचारों की महिला डाॅ. मालविका हरिओम ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब को एक प्रगतिशील लेखक और शायर के रूप में याद करते हुये कहा की महिलाओं को लेकर फ़ैज़ साहब की जो सोच और चिंता उनकी ग़ज़लों में दिखाई देती है वही हम महिलाओं को उनके ग़ज़ल शिल्प के क़रीब लाती है।
भारतीय उपमहाद्वीप के मश्हूर लेखक, शायर और पत्रकार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जयंती पर मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित ‘एक शाम-फ़ैज़ के नाम’ कार्यक्रम में मश्हूर लोकगीत एवं ग़ज़ल गायिका डाॅ. मालविका हरिओम ने समा बाँध दिया।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से पढ़ी और ख़ुद भी जनवादी विचारों की महिला डाॅ. मालविका हरिओम ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब को एक प्रगतिशील लेखक और शायर के रूप में याद करते हुये कहा की महिलाओं को लेकर फ़ैज़ साहब की जो सोच और चिंता उनकी ग़ज़लों में दिखाई देती है वही हम महिलाओं को उनके ग़ज़ल शिल्प के क़रीब लाती है।
डाॅ. मालविका हरिओम ने कहा कि फ़ैज़ की ख़ूबसूरत कामयाबी इस बात में है कि वो सिर्फ मौहब्बत तक नहीं बँधे रह गये बल्कि उनकी शायरी इंक़लाब तक पहुँचती है।उसी शायरी ने उन्हें फ़ैज़ बनाया और दुनिया इसलिये ही आज उन्हें याद करती है कि उनकी शायरी में इंक़लाब के वो स्वर नज़र आते हैं।फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को लेकर कुछ बातचीत के बाद डाॅ. मालविका हरिओम ने तक़रीबन एक घंटे तक लगातार फ़ैज़ की लिखी हुई ग़ज़लें सुनाईं।
‘रंग पैराहन का ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम,
मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम,
फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं,
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम’ को अपनी सुरीली आवाज़ में सुनाकर कार्यक्रम की शुरूआत की जिससे पूरी महफिल अपने रंग में आ गई।
‘हम के ठहरे अजनबी इतने मदारातों के बाद,
फिर बनेंगे आश्ना कितनी मुलाक़ातों के बाद,
थे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद,
उन से जो कहने गये थे “फ़ैज़” जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद’।
फ़ैज़ की याद में आयोजित इस कार्यक्रम में डाॅ. मालविका हरिओम अपनी शानदार आवाज़ में एक के बाद एक फ़ैज़ की कई शानदार नज़्में सुनाती रहीं।
‘शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई,
दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई,
बज़्म-ए-ख़्याल में तिरे हुस्न की शमा जल गई,
दर्द का चाँद बुझ गया हिज्र की रात ढ़ल गई,
दिल से तो हर मोआ’मला कर के चले थे साफ़ हम,
कहने में उन के सामने बात बदल-बदल गई,
आख़िर-ए-शब के हम-सफ़र ‘फ़ैज़’ न जाने क्या हुए,
रह गई किस जगह सबा सुब्ह किधर निकल गई,
‘दोनों जहाँ तेरी मुहब्बत में हार के,
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के,
भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज ‘फैज़’,
मत पूछ वलवले दिल-ए-नाकर्दाकार के’ और फिर उसके बाद
‘क़ाग़ज़ पे क़लम तेरा रुक-रुक के चला होगा,
जब पहले पहल तुमने
ख़त मुझको लिखा होगा,
दो अजनबी आँखे जब आपस में मिली होंगी,
कुछ इसने कहा होगा कुछ उसने कहा होगा’ को भी डाॅ. मालविका हरिओम ने अपने अंदाज़ में सुनाकर पूरी महफिल को झूमने पर मजबूर कर दिया।
महफिल को अपने रंग में रंगने के बाद डाॅ. मालविका हरिओम ने आख़िर में हाल ही में देशभर में चर्चा में रही फ़ैज़ की नज़्म ‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ सुनाकर कार्यक्रम में मौजूद तमाम लोगों को अपने साथ गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया और नज़्म ख़त्म होने पर जमकर तालियाँ बटोरीं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस नज़्म को गाने के बाद पूरे सभागार में डाॅ. मालविका हरिओम के लिये लगातार 10 मिनट तक तालियाँ बजती रहीं।कार्यक्रम में रवि जाधव, प्रसन्ना आयरे, बाॅबी और जीतू ने वाद्य यंत्रों पर डाॅ. मालविका हरिओम का साथ दिया।
कार्यक्रम को चार चाँद लगाने के लिये वहाँ मौजूद सैंकड़ों श्रोताओं के अलावा महाराष्ट्र सरकार के सीनियर कैबिनेट मंत्री नवाब मलिक, विधायक सुहेल लोखंडवाला, विधायक अमीन पटेल, विधायक यूसुफ अब्राहनी, विधायक आसिफ शेख़, शिवसेना के वरिष्ठ नेता साजिद सुपारीवाला, मश्हूर पर्यावरणविद पद्मश्री आबिद सुरती, शीशा होटल के मालिक मौहम्मद अहमद और मुंबई प्रेस क्लब के चेयरमैन धर्मेंद्र जोड़े, अध्यक्ष गुरवीर सिंह, कोषाध्यक्ष वरुण सिंह, मैनेजिंग कमेटी मेंबर जतिन देसाई, उर्दू जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सरफ़राज़ आरज़ू, सीनियर जर्नलिस्ट मुस्तक़ीम मक्की, उर्दू मर्क़ज़ से फरीद ख़ान इत्यादि मौजूद रहे।
प्रोग्राम की निज़ामत मश्हूर शायर पंडित सागर त्रिपाठी ने की। कार्यक्रम के अंत में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के मेंबर और मैट्रोयुग फाउंडेशन के अध्यक्ष उस्मान सिद्दीक़ी ने सभी को धन्यवाद दिया।