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Friday, March 29, 2024

भय और आतंक का नाम है आपातकाल

Emergency in Indiaउत्तर प्रदेश में जयप्रकाश जी एक लम्बे अन्तराल के बाद गुजरात में रविशंकर महराज के अनशन से लौटते हुए लखनऊ पहुंचे। जहां वह राजभवन में तत्कालीन राज्यपाल अकबर अली खान के अतिथि बने। इस दौरान लखनऊ के पूर्व मेयर दाऊ जी गुप्ता ने उनके द्वारा आयोजित राईट टू रिकाल (चुने हुये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने) पर एक गोष्ठी गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में हुई। जिसमें जयप्रकाश जी को आना था। उस मीटिंग में कुल 20-25 लोग ही शामिल हुए जिसमें मेरे साथ बाराबंकी से करीब 5-7 लोग पहुंचे। कांग्रेस के विरुद्ध गुजरात में तेजी से आन्दोलन शुरु हो गया था। जिसकी चिंगारी बिहार, उत्तर प्रदेश सहित अन्य प्रान्तों में भी पहुंच चुकी थी। बिहार के नवजवान भी आन्दोलन के रास्ते पर संघर्ष समितियां बनाकर सत्याग्रह कर रहे थे। उत्तर प्रदेश में जयप्रकाश को गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में आयोजित सभा से काफी निराशा लगी।

कुछ समय बाद जयप्रकाश जी को राजभवन में रोके जाने पर गर्वनर अकबर अली खां को राज्यपाल के पद से हटना पड़ा। थोड़े समय बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के तत्कालीन अध्यक्ष नागेन्द्र प्रताप सिंह ने देश भर में आन्दोलन की फैैलती आग को देखते हुए लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की सभा के लिये जयप्रकाश जी को आमांत्रित किया गया। उन्हे बुलाने का जिम्मा मुझे और मेरे मित्र हर्षवर्धन को सौंपा गया। हम लखनऊ से दिल्ली पहुंचे ही थे कि दिल्ली में पता चला कि जयप्रकाश जी पटना से वाया कानपुर होते हुए लखनऊ जा रहे हैं। मुझे तत्काल दिल्ली से वापस आना था।


वहां बिहार के वरिष्ठ समाजवादी नेता, पुलिस परिषद के जन्मदाता एवं पूर्व गृहमंत्री रामानन्द तिवारी से भेट हुयी। तदोपरान्त श्री तिवारी के साथ हम सभी लखनऊ वापस आ गये। जेपी ने छात्रसंघ की सभा को सम्बोधित किया। शाम को अगली मीटिंग उनकी बेगम हजरत महल पार्क में आयोजित की गयी थी। जो सभा आज भी इतिहास के पन्नो में दर्ज है। उस अभूतपूर्व सभा में शामिल लोगों का हुजूम देखकर जेपी को यह आभास ही नही हो रहा था कि अभी कुछ दिन पूर्व एक साधारण से हाल में आयोजित सभा मंे जहां 20-25 ही लोग ही शामिल हुए थे। वहीं कांग्रेस के प्रति बढ़े रोष को देखते हुए बेगम हजरत महल पार्क से लेकर हजरतगंज चौराहे तक लोगों का हुजूम देखते बनता था। उस सभा में जयप्रकाश जी ने उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री चन्द्रभान गुप्त को सम्मलित होने से इसलिए रोका क्योंकि जो उन्हे उनके 65 वें जन्मदिवस पर 65 लाख की थैली भेट की गयी थी उसका हिसाब उनको देखना था।

जेपी ने बड़ी विनम्रता से सभा में कहा कि गुप्ता जी मेरे बड़े भाई के समान है और मुझे पूरा विश्वास है कि उनको दी गयी थैली बिना किसी दबाव के स्वैच्छा पूर्वक लोगों ने दिया है। लेकिन फिर भी मेरी अपनी संतुष्टि के लिये मुझे उसका हिसाब देखना है। उस सभा को देखकर मुझे लगता था कि जेपी के नेतृत्व में किसी नई क्रान्ति का उद्भव होने वाला है। बिना किसी साधन के बिना इकट्ठा हुए लोगों में क्रान्ति परिवर्तन की अलख नजर आ रही थी। पटना से लखनऊ तक पहुंचने में जेपी का लगभग सभी स्टेशनो पर जोरदार स्वागत हुआ। इन सभी स्थितियों को देखकर जेपी बेहद प्रभावित थे और देश की जनता जो भ्रष्टाचार से टूट चुकी थी परिवर्तन के लिये किसी भी हद तक संघर्ष करने को तैयार थी। इस सारी स्थितियों का जायजा लेते हुए जेपी ने सम्पूर्ण क्रान्ति का आवाहन किया।  जब जेपी से पूछा गया कि सम्पूर्ण क्रान्ति का प्रारुप क्या होगा तो उन्होने कहा कि ‘‘ जो डा लोहिया की सप्त क्रान्तियां थी वही सम्पूर्ण क्रान्ति है।  समाजवादी आन्दोलन के उस महान योद्धा से पत्रकारों ने पूछा कि आप का स्वास्थ्य बेहद खराब है। आपकी इतनी बड़ी लड़ाई है अगर कोई अनहोनी होती है तो इस आन्दोलन को कौन चलायेगा ? तो उन्होने कहा कि मेरे बाद यह आन्दोलन एसएम जोशी के नेतृत्व में चलेगा। चूंकि मैं इस आन्दोलन में शुरुआती दिनो से ही शामिल हो गया था। मैं जनपद बाराबंकी के सोशलिस्ट पार्टी का जिलाध्यक्ष एवं राज्यसमिति का सदस्य था। 

सत्याग्रह के दौरान मेरे साथ मेरे साथी हर्षवर्धन जो पूरे संघर्षो में मेरे साथ रहे गिरफ्तार किये गये। इस दौरान और बहुत से क्रान्तिकारी नवजवान गिरफ्तार कर लिये गये। सम्पूर्ण क्रान्ति के प्रथम चरण में मुझे बाराबंकी कारागार में रखा गया। उसके बाद द्वितीय चरण के आन्दोलन में नैनी कारागार में बंदी रहा। जिसमें मेरे साथ अटल बिहारी बाजपेयी मेरी ही बैरिक में तथा राजनारायण दूसरी बैरिक में बंद थे। सर्वोच्च न्चयायालय द्वारा राजनारायण को समन किया गया और वह दिल्ली जेल के लिये रवाना हो गये। वह एक अति मार्मिक दृश्य था। जो राजनारायण और अटल जी एक दूसरे से गले मिले। और कहा कि ‘‘भविष्य बहुत ही खतरनाक दौर में गुजर रहा है। आगे की भेट कब और कहां होगी यह भविष्य की गर्भ में है‘‘। उन्होने उनको स्नेह के साथ इत्र लगाया और हुमांयू के युद्ध की एक कहानी सुनायी जिसके बाद राजनारायण जी जेल से रवाना हो गये। कुछ दिन बाद सभी लोग नैनी कारागार से छूट गये। तीसरे चरण का आन्दोलन शुरु हुआ हम लोग पुनः सत्याग्रह करके बाराबंकी कारागार में बंद हुए। अभी हम लोग छूटे ही थे कि जनपद स्तरीय समितियों का सर्वदलीय गठन हो चुका था।
 
12 जून 1975 में इन्दिरा गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में धांधली का दोषी पाया और 6 साल के लिये पद के बेदखल कर दिया। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा लेकिन इन्दिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दी। 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने इन्दिरा गांधी के इस्तीफा देने तक देश भर में रोष प्रदर्शन करने का आहवान किया। 25 जून की रात्रि तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने समस्त लोकतांत्रिक अधिकारों को स्थगित करआपात काल की घोषणा कर दी। राजनैतिक लोगों की व्यापक पैमाने पर 27 जून तक गिरफ्तारियां हो गयी। बचे कुचे लोग भूमिगत हो गये। इस घोर अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के विरोध में न्यायपालिका के किसी भी न्यायधीश ने न तो त्याग पत्र दिया और न ही विरोध करने का साहस जुटाया। लोकतंत्र के समस्त स्तम्भ विधायिका, न्यायपालिका, दो ही एक तरह से आत्म समर्पण कर चुकी थी। कार्यपालिका एक अस्तित्वहीन जमात है जिसके कुछ अधिकारी तो मानवीय रुप से इस प्रक्रिया से असंतुष्ट थे। बाकी लोग उसी राह पर चल दिये थे जिस राह पर विधायिका और न्यायपालिका चल रही थी। अब बचा चौथा स्तम्भ जो पत्रकारिता के रुप में जाना जाता था। आपातकाल के लगते ही समाचार के प्रकाशन और प्रसारण के विरुद्ध सेंसरशिप लागू हो गयी थी। जिनसे स्वतंत्रता के समस्त मौलिक अधिकार छीन लिये गये। बिना सरकार के अनुमति के कोई भी समाचार प्रकाशितनही हो सकता था। केवल जनसत्ता के मालिक रामनाथ गोयनका जो जेपी के साथी भी थे विरोध करने पर उन्हे भी जेल में जाना पड़ा। बिना किसी कारण के लाखो लोग जेलो में डाल दिये गये।
 
महीनो तक उन्हे जेल से रिमाण्ड पर नही भेजा जाता था। जेल नियमावली पूरी तरह से स्थगित हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में लोगों की मुलाकातें भी परिजनो एवं साथियों से लगभग बंद हो गयी थी। यातनाआंे का दौर शुरु हो गया था। सारी लोकतांत्रिक व्यवस्था समाप्त हो गयी थी और नौकरशाहों का राज हो गया था। जनता पर जुर्म और जालिमाना हरकतें अधिकारी करने लगे थे। चारो ओर भय और आंतक का माहौल बन गया था। 14 जुलाई 1975 को मैं भी बाराबंकी कारागार मंे बंद हुआ। सत्याग्रह करते हुए मुझे भी दमनकारी सरकार के हुकुमरानों ने सड़क से गिरफ्तार किया। जेल जाने पर जेल की विचित्र दशा सामने थी। कर्मचारियों के बदल मिजाज को देख जेलों में भी संघर्ष जारी था। ऐसे में आपातकाल एक ऐसी व्यवस्था का नाम है जो आज भी जहन में आते ही भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है। लोकतंत्र का काला अध्याय बन चुके आपात काल का पुनः भारत में अभुदय न हो इसके लिये जनता सरकार और जन प्रतिनिधियों को पूरी तरह से संकल्पित और दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिए।
 
RAJNATH SHARMAलेखक: राजनाथ शर्मा
(समाजवादी चिंतक एवं सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के सभी चरणों के बंदी)

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