चेन्नई- साल 2001 में तमिलनाडु के इरावदी गांव में एक दरगाह में आग लग गई थी जिसमें 25 लोग मारे गए थे। मारे गए सभी लोगों को जंजीरों से बांध कर रखा गया था। इसी कारण जब आग लगी तो कोई वहां से भाग नहीं पाया। उन्हें ये मानकर जंजीरों से बांधा गया था कि उनके शरीर में प्रेतात्मा का वास है।
प्रेतात्मा को भगाने के लिए ही उन्हें दरगाह पर लाया गया था। इसके बाद साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को एक आदेश दिया कि जहां भी इस प्रकार की धारणा मौजूद है, उस तरह की संस्थाओं को बंद कर दिया जाए।
अहमदाबाद के मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल के सुप्रीडेंट और स्टेट मेंटल हेल्थ अथॉरिटी के सदस्य डॉक्टर अजय चौहान ने बीबीसी को बताया कि जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश मिला तो वे परेशान हो गए क्योंकि अहमदाबाद से 100 किलोमीटर दूर हजरत सैयद अली मीरा दातार दरगाह पर इस प्रकार की गतिविधियां होती थीं।
साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के कारण माहौल सामान्य नहीं था
वो बताते हैं, “हम जब दरगाह पहुंचे तो वहां कई मानसिक रोगियों को भूत-प्रेत के नाम पर जंजीरों से बांधकर रखा गया था। उस वक्त हमारे सामने दो समस्याएं थीं। पहली, साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के कारण माहौल सामान्य नहीं था। गुजरात में बीजेपी की सरकार थी।
अगर हम इस दरगाह को बंद करवा देते तो पूरी घटना को राजनीतिक नजर से देखा जाता।” आगे वो बताते हैं, “सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि जिन्हें आम लोग भूत-प्रेत की छाया मानते थे, असल में वे सभी मानसिक रोग के शिकार थे।
इस दरगाह पर सिर्फ गुजरात से ही नहीं बल्कि देश-विदेश से लोग आते हैं जिनमें ज्यादातर हिंदू होते हैं। मसला श्रद्धा और विज्ञान का था। किसी की श्रद्धा को ठेस पहुंचाकर इसे वैज्ञानिक नजरिए से देखना मेरे लिए मुश्किल था।” डॉक्टर अजय चौहान इस परेशानी का हल ढूंढ रहे थे तभी उन्हें एक सफल प्रयोग के बारे में पता चला।
1980 के दशक में ग्रामीण इलाकों में इलाज की व्यवस्था नहीं थी
वो उस कहनी के बारे में बताते हैं, “1980 के दशक में ग्रामीण इलाकों में इलाज की व्यवस्था नहीं होने के कारण मां और नवजात बच्चों की मृत्य दर में बढोत्तरी हो रही थी। दूसरी तरफ बच्चों को जन्म देने का काम दाइयों के भरोसे था, जिनके पास तालीम और अच्छे संसाधनों का अभाव था।
गुजरात सरकार ने यह तय किया कि दाइयों को अच्छी तालीम और साधन दिए जाएं। यह प्रयोग सफल रहा और मां-बच्चे की मृत्यु दर में काफी गिरावट आई।”
डॉक्टर अजय कहते हैं, “बस यही प्रयोग मैंने भी करने का फैसला किया।
मैं मीरा दातार दरगाह से जुडे ट्रस्ट के सदस्यों से मिला। उन्हें समझाया कि हम उनके किसी भी काम में दखल नहीं देना चाहते हैं, बल्कि दरगाह पर काम कर रहे लोगों को मानसिक रोगियों की पहचान करने की ट्रेनिंग देंगे। अगर आप हमें सहयोग करें तो हम यहां एक छोटा सा दवाखाना भी शुरू कर सकते हैं।”
मीरा दातार के ट्रस्टी वारिस अली ने बताया कि डॉक्टर अजय चौहान और उनका मकसद एक ही था कि वहां आने वाला हर शख्स चंगा होकर जाए। उन्होंने डॉक्टर चौहान से कहा कि आप दवा करना और हम दुआ करेंगे। और इस तरह से साल 2004 में दरगाह के अंदर ‘दुआ और दवा’ नाम से एक छोटा-सा अस्पताल शुरू हो गया।
“मुजावर हमारे लिए ‘फेथ हीलर’ साबित हुए
डॉक्टर अजय चौहान ने बताया कि पहले उन्होंने 250 मुजावरों को ट्रेनिंग दी। मुजावर भूत उतरवाने आए श्रद्धालुओं को धार्मिक क्रियाकलापों के बाद उनके पास भेज देते थे जिनका वे इलाज करते थे।
डॉक्टर अजय कहते हैं, “मुजावर हमारे लिए ‘फेथ हीलर’ साबित हुए। धीरे-धीरे काम बढने लगा। दुआ के साथ दवा मिलने के कारण मानसिक रूप से बीमार लोग अच्छे होने लगे। तभी हमारी मदद करने ‘अलट्रुइस्ट’ नाम की एक गैर सरकारी संस्था सामने आई।”
इस संगठन के ट्रस्टी मिलेश हमलाइ ने बीबीसी को बताया, “हमने डॉक्टर अजय चौहान के प्रोजेक्ट को साल 2008 से संभाला और गुजरात सरकार के साथ मिलकर ‘दवा-दुआ प्रोजेक्ट’ को आगे बढाया।”
400 से ज्यादा मुजावरों को मानसिक बीमारी के बारे में तालीम दी
मिलेश बताते हैं, “अभी तक हमने 400 से ज्यादा मुजावरों को मानसिक बीमारी के बारे में तालीम दी है। दूर से आए लोगों के दरगाह में रहने का इंतजाम भी हम करते हैं। हर साल दरगाह आने वाले बीस हजार से ज्यादा मरीज हमारे पास आते हैं।
दूसरे राज्यों से आए मरीजों को हम बिना पैसे दवाएं भी कूरियर से भेजते हैं। यहां इलाज और दवाई पर कोई खर्च नहीं होता है।” राजस्थान से आए महेश मीणा ने बताया, “मेरे पिता पांच साल से बीमार थे। लोगों का कहना था कि कोई बुरी आत्मा उन्हें परेशान करती है।
किसी ने हमें बताया कि मीरा दातार के दरगाह पर जाओ। हमने वहां मन्नत मांगी और दवा भी लेकर आए। अब मेरे पिता पहले जैसे हो गए हैं। हमें मालूम नहीं कि दवा ने अच्छा किया या दुआ ने लेकिन हमारा काम बन गया।” [एजेंसी]