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Sunday, April 27, 2025

ये है देश के बड़े बैंक फ्रॉड, कैसे हुए जानिये पूरा सच

कुल 8748 बैंक फ्रॉड बीते तीन बरस में हुआ । यानी हर दिन बैंक फ्रॉड के 8 मामले देश में होते रहे । वैसे सरकार की इतनी सफलता जरुर है कि बरस दर बरस बैंक फ्रॉड में इंच भर की कमी जरुर आयी है।

कांग्रेस को 198 करोड रुपये मिले। बीजेपी को मिलने वाली रकम कितनी ज्यादा है ये इसी बात से समझा जा सकता है कि इससे पहले के दो लोकसभा चुनाव यानी 2004 से 2011-12 के बीच कुल कारपोरेट फंडिग ही 378 करोड 78 लाख रुपये की हुई। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि क्या जिन्होने राजनीतिक फंड दिया उसकी एवज में उन्हें क्या मिला।

एसबीआई [2466], बैंक आफ बड़ौदा [782] ,बैंक आफ इंडिया [579], सिंडीकेट बैंक [552],सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया [527], पीएनबी [471], यूनियन बैंक आफ इंडिया [368], इंडियन ओवरसीज बैंक[342],केनरा बैंक [327], ओरियंट बैंक आफ कामर्स[297] , आईडीबीआई [ 292 ], कारपोरेश बैंक[ 291], इंडियन बैंक [ 261],यूको बैंक [ 231],यूनिईटेड बैंक आफ इंडिया [ 225 ], बैंक आफ महाराष्ट्र [ 170],आध्रे बैंक [ 160 ], इलाहबाद बैंक [ 130 ], विजया बैंक [114], देना बैंक [105], पंजाब एंड सिंघ बैंक [58] ..ये बैंकों में हुये फ्रॉड की लिस्ट है। 2015 से 2017 के दौरान बैंक फ्रॉड की ये सूची साफ तौर पर बतलाती है कि कमोवेश हर बैंक में फ्रॉड हुआ। सबसे ज्यादा स्टेट बैंक में 2466। तो पीएनबी में 471 । और सभी को जोड दिजियेगा तो कुल 8748 बैंक फ्रॉड बीते तीन बरस में हुआ । यानी हर दिन बैंक फ्रॉड के 8 मामले देश में होते रहे । वैसे सरकार की इतनी सफलता जरुर है कि बरस दर बरस बैंक फ्रॉड में इंच भर की कमी जरुर आयी है।

मसलन, 2015 में सबसे ज्यादा 3243 बैंक फ्रॉड हुये। तो 2016 में 2789 बैंक फ्रॉड। 2017 में 2716 बैंक फ्रॉड। पर सवाल सिर्फ बैंक फ्रॉड भर का नहीं है। सवाल तो ये है कि बैंक से नीरव मोदी मेहूल चौकसी और माल्या की तर्ज पर कर्ज लेकर ना लौटाने वालों की तादाद की है। और अरबों रुपया बैंक का बैलेस शीट से हटाने का है। और सरकार का बैंको को कर्ज का अरबो रुपया राइट आफ करने के लिये सहयोग देने का है ।

यानी सरकार बैंकिंग प्रणाली के उस चेहरे को स्वीकार चुकी है, जिसमें अरबो रुपये का कर्जदार पैसे ना लौटाये । क्योकि क्रेडिट इनफारमेशन ब्यूरो आफ इंडिया लिमिटेड यानी सिबिल के मुताबिक इससे 1,11,738 करोड का चूना बैंकों को लग चुका है। और 9339 कर्जदार ऐसे है जो कर्ज लौटा सकते है पर इंकार कर दिया। और पिछले बरस सुप्रीम कोर्ट ने जब इन डिफाल्टरों का नाम पूछा तो रिजर्व बैंक की तरफ से कहा गया कि जिन्होने 500 करोड से ज्यादा का कर्ज लिया है और नहीं लौटा रहे है उनके नाम सार्वजनिक करना ठीक नहीं होगा। अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। तो ऐसे में बैंकों की उस फेरहिस्त को पढिये कि किस बैंक को कितने का चूना लगा और कर्ज ना लौटाने वाले है कितने।

तो एसबीआई को सबसे ज्यादा 27716 करोड का चूना लगाने में 1665 कर्जदार हैं। पीएनबी को 12574 करोड का चूना लगा है और कर्ज लेने वालो की तादाद 1018 है। इसी तर्ज पर बैंक आफ इंडिया को 6104 करोड़ का चूना 314 कर्जदारो ने लगाया। बैंक आफ बडौदा को 5342 करोड का चूना 243 कर्जदारों ने लगाया। यूनियन बैंक को 4802 करोड का चूना 779 कर्जदारों ने लगाया। सेन्ट्रल बैंक को 4429 करोड का चूना 666 कर्जदारों ने लगाया। ओरियन्ट बैंक को 4244 करोड का चूना 420 कर्जदारो ने लगाया। यूको बैंक को 4100 करोड का चूना 338 कर्जदारों ने लगाया। आंध्र बैंक को 3927 करोड का चूना 373 कर्जदारों ने लगाया। केनरा बैंक को 3691 करोड का चूना 473 कर्जदारों ने लगाया। आईडीबीआई को 3659 करोड का चूना 83 कर्जदारों ने लगाया। और विजया बैंक को 3152 करोड़ का चूना 112 कर्जदारों ने लगाया । तो ये सिर्फ 12 बैंक हैं।

जिन्होंने जानकारी दी की 9339 कर्जदार है जो 1,11,738 करोड नहीं लौटा रहे हैं। फिर भी इनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई नहीं है उल्टे सरकार बैंकों को मदद कर रही हैं कि वह अपनी बैलेस शीट से अरबो रुपये की कर्जदारी को ही हटा दें। ये सिलसिला कोई नया नहीं है। मनमोहन सरकार के दौर में भी ये होता रहा। पर मौजूदा दौर की सत्ता के वक्त इसमें खासी तेजी आ गई है। मसलन, 2007-08 से 2015-16 तक यानी 9 बरस में 2,28,253 करोड रुपए राइट आफ किये गये ।

तो 2016 से सितबंर 2017 तक यानी 18 महीने में 1,32,659 करोड़ रुपए राइट आफ कर दिये गये। यानी इक्नामी का रास्ता ही कैसे डि-रेल है या कहें बैंक से कर्ज लेकर ही कैसे बाजार में चमक दमक दिखाने वाले प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं ये उन कर्जदारों के भी समझा जा सकता हैं, जिन्होंने कर्ज लिये है। कर्ज लौटा भी सकते है पर कर्ज लौटा नहीं रहे हैं। और बाजार में अपने ब्रांड के डायमंड से लेकर कपड़े, फ्रीज से लेकर दवाई तक बेच रहे हैं।

तो ऐसे में अगला सवाल यही है कि देश में लोकतंत्र भी क्या रईसों के भ्रष्ट मुनाफे पर टिका है । क्योंकि देश की इक्नामी के तौर तरीके उसी चुनावी लोकतंत्र पर जा टिके है जिसके दायरे में चंदा देने वाले नियम कायदे से उभर होते हों। और अधिकतर राजनीतिक फंड देने वाले ही बैंकों के कर्जदार हैं। तो अगला सवाल यही है कि क्य़ा देश की नीतियां कॉरपोरेट तय करता है। और कॉरपोरेट इसलिए तय करता है क्योंकि बीते 12 बरस में हुये तीन लोकसभा चुनाव में 2355 करोड़ रुपये कारपोरेट ने चंदे के तौर पर दिये। और कारपोरेट को टैक्स में छूट के तौर पर 40 लाख करोड़ से ज्यादा राजनीति सत्ता ने दिये। तो जरा इस सच को भी समझना जरुरी है कि भारत में चुनाव का शोर ही लोकतंत्र की तस्दीक करता है ।

यानी एक तरफ हर नागरिक के लिये एक वोट। तो दूसरी तरफ वोट के लिये राजनीतिक दलों की रैली हंगामा। पर लोकतंत्र का ये अंदाज कैसे करोड़ों रुपये प्रचार में प्रचार में बहाता है। राजनीतिक दलो को करोडों रुपये कौन देता है। करोडों रुपये के एवज में दान देने वाले के क्या मिलता है। इस सवाल पर हमेशा खामोशी बरती गई। पर जिस तरह बैंकों के जरीये रईसो की लूट अब सामने आ रही है और बैंकों से कर्ज लेकर देश से रफूचक्कर होने का जो हंगामा मचा हुआ है।

उस पर पीएम मोदी की खामोशी पर अगर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब बोको को चूना लगाने वाले रईसो के जरीये राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी फंड से जोड रहे है तो शायद गलत भी नहीं है। क्योंकि चुनावी लोकतंत्र के 70 बरस के दौर राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग में सबसे ज्यादा इजाफा पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही हुआ। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2015-16 के बीच बीजेपी को 705 करोड़ रुपये की कारपोरेट-व्यापारिक घरानो से फंडिंग मिली।

कांग्रेस को 198 करोड रुपये मिले। बीजेपी को मिलने वाली रकम कितनी ज्यादा है ये इसी बात से समझा जा सकता है कि इससे पहले के दो लोकसभा चुनाव यानी 2004 से 2011-12 के बीच कुल कारपोरेट फंडिग ही 378 करोड 78 लाख रुपये की हुई। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि क्या जिन्होने राजनीतिक फंड दिया उसकी एवज में उन्हें क्या मिला।

खासकर तब जब बैंको से कर्ज लेकर अरबों के वारे न्यारे करने वाले कारपोरेट-उघोगपतियों की वह कतार सामने आ रही है और जो बैंक कर्ज नहीं लौटाते पर फोर्ब्स की लिस्ट में अरबपति होते है । नीरव मोदी का नाम भी

2017 की फोर्बस लिस्ट में थे । तो अगला सवाल यही है कि क्या अर्थव्यवस्था का चेहरा इसी नींव पर टिका है जहा सिस्टम ही रईसो के लिये हो । और आखिरी सवाल यही कि चुनाव पर टिके लोकतंत्र पर निगरानी करने वाले चुनाव आयोग तक के पास राजनीतिक दलों को मिले चंदे के बारे में पूरी जानकारी तक नहीं है। क्योंकि राष्ट्रीय दल भी नहीं बताते है कि उन्हे कितनी रकम कहां से मिली। और ना बताने का ये खेल 20 हजार रुपये के फंड की जानकारी ना देने से लेकर फंड के लिये बने कारपोरेट बांड तक से खुल कर उभर रहा है । पर लोकतंत्र ही खामोश है क्योंकि लोकतंत्र का मतलब चुनाव है। जो वोटरों से ज्यादा राजनीतिक दलों का खेल है।

 लेखक – पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से

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